प.बंगाल में सत्ता की ओर अग्रसर है भाजपा

कृष्णमोहन झा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की करिश्माई लोकप्रियता के बल पर बिहार की सत्ता पर पुनः काविज होने के बाद अब भारतीय जनता पार्टी ने अपना ध्यान पश्चिम बंगाल पर केंद्रित कर दिया है जहां अगले साल के पूर्वार्द्ध में विधानसभा चुनाव कराए जाने हैं। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के दूसरे कार्यकाल का यह आखिरी साल है। पिछले कुछ सालों में राज्य में भाजपा के तेजी से बढ़ते जनाधार ने उन्हें बेहद चिंतित कर रखा है। जिस भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनावों में राज्य की मात्र 2 सीटो पर जीत का स्वाद चखने का मौका मिला हो उसका जनाधार अगर पांच सालों में इतना बढ़ जाए कि वह राज्य की 18 लोकसभा सीटों पर कब्जा करने में सफल हो जाए तो निःसंदेह ममता बनर्जी के लिए यह चिंता का विषय होना ही चाहिए इसलिए वे हर संभव कोशिश कर रही हैं कि राज्य विधानसभा के अगले साल होने वाले चुनावों में भाजपा उनके हाथ से सत्ता की बागडोर छीनने में कामयाब न होने पाए परंतु आज की तारीख में राज्य में भाजपा का जोश और उत्साह देखकर तो यही अनुमान लगाया जा सकता है कि अगले विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का भाजपा की चुनौती से पार पाना मुश्किल होगा।

भाजपा के आक्रामक तेवरों ने ममता बनर्जी को बचाव की मुद्रा अपनाने के लिए विवश कर दिया है।भाजपा अगले साल अगर मिशन बंगाल में कामयाबी हासिल कर लेती है तो वह पश्चिम बंगाल में इतिहास रच देगी इसलिए पार्टी पिछले विधानसभा चुनावों के बाद से ही वहां से हुए कदमों से आगे बढ़ रही है। 2016 से राज्य में लगातार दूसरी बार सत्ता पर काबिज होने के बाद तृणमूल कांग्रेस को जब भाजपा की ताकत में निरंतर वृद्धि का अहसास होने लगा था तब से ही तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने राज्य में भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं को निशाना बनाना शुरू कर दिया था जिसके पीछे उनका एकमात्र मकसद रहता था कि भाजपा उन हमलों से भयभीत हो कर पश्चिम बंगाल में पैर जमाने का इरादा त्याग दे परंतु भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल कभी कम नहीं हुआ।

जनता के बीच पार्टी की स्वीकार्यता में निरंतर बढ़ोतरी होती रही जिसका प्रमाण 2019 के लोकसभा चुनावों में मिला जब राज्य में उसकी सीटें 2 से बढ़कर 18 हो गई और तृणमूल कांग्रेस 22 पर सिमट कर रह गई।गत लोकसभा चुनावों में भाजपा की यह अभूतपूर्व सफलता सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के लिए ऐसा झटका साबित हुई जिससे वह आज तक नहीं उबर पाई है।मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की परेशानी का सबसे बड़ा सबब यह है कि उनके पास भाजपा जैसे कुशल रणनीति कारों का अभाव है।

उन्हें खुद ही तृणमूल कांग्रेस की चुनावी व्यूह रचना करनी है और पार्टी के प्रचार अभियान की बागडोर भी संभालना है। दूसरी ओर भाजपा राज्य विधानसभा सभा के आगामी चुनावों के लिए अपनी तैयारियां पहले ही शुरू कर चुकी है। 2014के लोकसभा चुनावों में भाजपा के उत्तर प्रदेश प्रभारी के रूप में अपनी कु्शल रणनीति से राजनीतिक पंडितों को भी दांतों तले अंगुली दबाने के लिए विवश कर देने वाले अमित शाह अब केंद्रीय गृह मंत्री के रूप में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों में उसी रणनीतिक कौशल से एक बार फिर सबको अचंभित कर देने के लिए मानों कृत संकल्प हैं। भाजपा के पश्चिम बंगाल प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय की राजनीति सूझ-बूझ और सांगठनिक कौशल का परिचय गत लोकसभा चुनावों में राज्य में भाजपा को मिली अभूतपूर्व सफलता से मिल चुका है। चुका है।

कैलाश विजयवर्गीय के अथक और परिश्रम रणनीतिक कौशल ने पार्टी को आज पश्चिम बंगाल में इतना ताकतवर बना दिया है कि वह अगले साल होने वालेराज्य विधानसभा चुनावों में बहुमत हासिल करने का सुनहरा स्वप्न संजोने में समर्थ हो चुकी है। कभी मध्यप्रदेश भाजपा के संगठन मंत्री के रूप में राज्य में पार्टी संगठन को सुदृढ़ बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले अरविंद मेनन पश्चिम बंगाल में कैलाश विजयवर्गीय के मुख्य सहयोगी की भूमिका में होंगे। उल्लेखनीय है कि पश्चिम बंगाल में थोड़े ही समय में पार्टी का मजबूत संगठन खड़ा कर देने में कैलाश विजयवर्गीय और अरविंद मेनन का मुख्य योगदान रहा है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के साथ भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा समय समय पर राज्य का दौरा कर पार्टी की चुनावी तैयारियों के लिए दिशा-निर्देश देते रहेंगे। देश के विभिन्न राज्यों में भाजपा के संगठन को मजबूत बनाने में जिन नेताओं ने अपनी अद्भुत सूझ-बूझ से केंद्रीय नेतृत्व पर अलग छाप छोड़ी है ऐसे नेताओं को प्रचार अभियान में अहम जिम्मेदारी सौंपी जावेगी।अब देखना यह है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भाजपा की इस सधी हुई रणनीति की काट निकालने में कितनी सफल हो पाती हैं।पिछले कुछ सालों में भाजपा को तृणमूल कांग्रेस के मजबूत किले में सेंध लगाने में जो कामयाबी मिली है उससे भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की चिंताओं में इजाफा कर दिया है।

कभी ममता बनर्जी के करीबी नेताओं में गिने जाने वाले वाले मुकुल रॉय और अर्जुन सिंह अब भाजपा के रणनीतिकारों की टीम में प्रमुख स्थान बना चुके हैं। मिदनापुर जिले में अच्छा खासा प्रभाव रखने वाले तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शुभेंदु अधिकारी ने जबसे ममता सरकार के मंत्री पद से इस्तीफा दिया है तभी से यह अटकलें लगाई जा रही हैं कि वे कभी भी भाजपा में शामिल होने की घोषणा कर सकते हैं। पिछले काफी समय से भाजपा से उनकी नजदीकियां बढ़ने की खबरें आ रही हैं। यद्यपि तृणमूल कांग्रेस के एक और वरिष्ठ नेता सौगत राय ने इन खबरों का खंडन किया है परंतु अगर इन खबरों में तनिक भी सच्चाई नहीं है तो फिर आगामी 7दिसंबर को पश्चिमी मिदनापुर इलाके में ममता बनर्जी की अनेक रैलियों के आयोजन का क्या प्रयोजन है। दरअसल मुख्यमंत्री की अधिनायकवादी कार्य शैली भी तृणमूल कांग्रेस के अनेक नेताओं की उनसे यह नाराजगी का एक कारण

बन गई है। भाजपा पहले ही कह चुकी है कि मुख्यमंत्री की कार्यशैली से असंतुष्ट तृणमूल कांग्रेस के लगभग 70 विधायक उसके संपर्क में हैं। जब राज्य विधानसभा सभा के चुनावों में मात्र 6 माह का समय बाकी रहा हो तब पार्टी की एक जुटता को बनाए रखने में ममता बनर्जी को कड़ी मशक्कत करनी पड़ रही है और इसमें उन्हें कितनी सफलता मिलेगी यह कोई नहीं बता सकता। मध्यप्रदेश , राजस्थान और कर्नाटक के उदाहरण उनके सामने हैं और उनकी पश्चिम बंगाल में पुनरावृत्ति की आशंकाओं से उनका चिंतित होना स्वाभाविक है।मध्यप्रदेश पिछले दो विधानसभा चुनावों में ममता बनर्जी के सामने ऐसी कोई कठिन चुनौती नहीं थीं जो उनके मुख्यमंत्री पद की राह में बाधक बन सकती थीं। आगामी विधानसभा चुनावों में उनकी राह आसान नहीं है । राजनीतिक विश्लेषक भी मानते हैं कि भाजपा ने ममता राज में व्यापक भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के मुद्दों को लेकर सरकार के विरुद्ध जो मुहिम छेड़ रखी है वह तृणमूल कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं को धूमिल कर सकती है। ममता बनर्जी भले ही इन आरोपों को सिरे से नकार दें पर वे स्वयं जानती हैं कि मुख्यमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल में वे प्रशासन पर मजबूत पकड़ बनाए रखने में असफल रही हैं।

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने में अल्प संख्यक मतदाताओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। राज्य की 10 करोड़ आबादी में लगभग 28 प्रतिशत आबादी अल्प संख्यकों की है। अपने राजनीतिक हितों के लिए ममता बनर्जी ने उनके तुष्टिकरण में कभी कोई कमी नहीं छोड़ी।2017 में तो ममता सरकार ने मुहर्रम के अवसर पर निकलने वाले ताजिया जुलूस के साथ दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन जुलूस निकालने की अनुमति देने से इंकार कर दिया था और दुर्गाप्रतिमाओं के विसर्जन जुलूस एक दिन बाद निकालने का आदेश दिया था।उनके इस आदेश की कोलकाता हाईकोर्ट ने भी आलोचना की थी। पश्चिम बंगाल में पांव जमाने की कोशिशों में जुटी भाजपा इसे ममता सरकार की अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति का परिचायक बताकर हिंदू आबादी का समर्थन जुटाने में काफी हद तक सफल रही है।

ममता बनर्जी इस मामले में अब काफी सतर्क हो चुकी हैं। ममता सरकार ने राज्य के 8000 सनातन ब्राह्मण पुजारियों के लिए प्रति माह एक हजार रुपए का मानदेय व एक घर, दुर्गा पूजा के हर सामुदायिक आयोजन के लिए 50000रु की सहायता तथा हिन्दू मंदिरों के रखरखाव और जीर्णोद्धार के लिए आर्थिक मदद की जो घोषणाएं की हैं उसके पीछे उनकी मंशा केवल यही है कि राज्य के हिंदू मतदाता‌ भाजपा के प्रति आकर्षित न होने पाएं। परंतु ममता बनर्जी स्वयं भी जानती हैं कि वे राज्य के हिंदू मतदाताओं को भाजपा के साफ्ट हिंदुत्व के प्रभाव में आने से रोकने में सफल नहीं हो पाएंगी ।उनको असदुद्दीन ओवैसी की इस घोषणा ने भी बेचैन कर दिया है कि उनकी पार्टी पश्चिम बंगाल के आगामी विधानसभा चुनावों में सदन की 294 सीटों में से 96 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करेगी। इन सभी चुनाव क्षेत्रों में मुस्लिम मतदाताओं की बहुलता है। औबेसी की इस घोषणा से ममता बनर्जी का चिंतित होना स्वाभाविक है और भाजपा को इसका फायदा मिलना तय है।

कुछ मिलाकर राज्य विधानसभा के अगले चुनावों में असली मुकाबला सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के बीच होने जा रहा है लेकिन ममता बनर्जी की राह अब पिछले दो चुनावों जैसी आसान नहीं है। भाजपा ने मात्र चार पांच सालों में यहां अपना जनाधार मजबूत करने में जो सफलता अर्जित की है उसने राजनीतिक पंडितों को भी आश्चर्यचकित कर दिया है। भाजपा राज्य विधानसभा सभा चुनावों में सत्ता के दावेदार के रूप में ममता बनर्जी को चुनौती पेश करने की ताकत अर्जित कर चुकी है। भाजपा को केवल यह तय करना है कि उसके किस नेता के पास ममता बनर्जी के समकक्ष राजनीतिक कद हासिल करने की प्रतिभा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

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