श्रम कानून में सुधार के खतरनाक साइड इफेक्ट

निशिकांत ठाकुर

लॉकडाउन तीन अभी पूरी तरह खत्म भी नहीं हुआ कि खबर आने लगी कि फैक्ट्रियों को फिर से चालू करने की प्रक्रिया जल्द शुरू होने जा रही है। गिरती-लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को संभालने एवं बढ़ती बेरोजगारी को दूर करने के लिए सरकार के पास इससे बेहतर संभवतः कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था। इसी वजह से शराब की दुकानों को भी खोलने कर निर्णय लिया गया, ताकि सरकार के पास राजस्व आए। लेकिन, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उद्योगों में कार्य करने वाले लोग अभी कोरोना रूपी वैश्विक महामारी से उबरे भी नहीं है। उससे भी बड़ा सच यह है कि उनके ‘कोरोना वाहक’ होने की आशंका भी जताई जा रही है। यही वजह है कि कोरोना रूपी ज्वालामुखी के मुहाने पर उद्योगों को खोलकर उनमें रोजगार देने के बहाने जले-झुलसे लोगों के दुख-दर्द पर नमक ही छिड़कने का प्रयास किया जा रहा है।
दरअसल, जिन जगहों को ग्रीन और ऑरेंज जोन माना गया है उन जगहों के उद्योगपतियों को यदि उनका उद्योग आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन करने की इकाई की श्रेणी में आता है तो उसे फिर से चलाने की छूट सरकार द्वारा दे दी गई है। लेकिन, अब यहां एक बहुत बड़ी समस्या का सामना करना पड़ रहा है और वह यह कि उन उद्योगों में पहले काम करने वाले मजदूर अपने घर के लिए पलायन कर चुके हैं। अब इस समस्या का हल कैसे हो, इस पर गहन विचार की जरूरत है। पलायन का आलम यह है कि देश के कोने-कोने से मजदूर जान जोखिम में डालकर पैदल ही चलकर अपने घर जाने के लिए कई तरह की समस्याओं का सामना कर रहे हैं। समझ में नहीं आता कि ऐसी विकट स्थिति आने ही क्यों दी गई, क्या सरकार में इतनी भी दूरदर्शिता बिल्कुल नहीं रही कि लॉकडाउन के बाद आने वाली समस्याओं का हल कैसे होगा? सच तो यह है कि इसका खामियाजा देश को कितने दिन तक उठाना पड़ेगा, यह कोई नहीं जानता।
मजदूरों के पलायन का यह हाल है कि जंगल, नदी, रेलवे ट्रैक सब को रास्ता मानकर वे झुंड के झुंड बनाकर चले जा रहे हैं। परिणाम यह होता है कि रेल की पटरियों पर चल कर अपनी जान गंवा बैठते हैं, ट्रकों पर सारी कमाई देकर अपने घर पहुंचने को व्याकुल मजदूर अपनी जान से हाथ धो डालते हैं। रह-रह कर यह प्रश्न बार-बार उठता है कि यह स्थिति आई ही क्यों? शायद कोविड-19 के कारण विश्व को हुए नुकसान का सर्वाधिक कहर श्रमिकों पर टूटा है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश सहित कई राज्यों ने श्रम कानून में सुधार के नाम पर उन्हें कई अधिकारों से वंचित कर दिया है। कोविड-19 का असर तो समाज देश के हर वर्ग पर पड़ा ही है, चाहे वह उद्योगपति हो, मजदूर हो, सब पर पड़ा है। उद्योगपतियों के पास पैसा नहीं है कि वह अपने उद्योगों को व्यवस्थित ढंग से आर्थिक कमी के अपने यहां कार्यरत मजदूरों कर्मचारियों को वेतन दे सके, बंद कारखाने को चला सके, क्योंकि अब ऐसी स्थिति आ गई है कि जो श्रमिक हैं तथा जो अपने घर निकल चुके हैं, उन्हें वापस कैसे बुलाया जाए? इसके बाद भी जब इन श्नमिकों को यह मालूम होगा कि उनके श्रम संबंधी सारे कानूनी अधिकार सरकार ने छीन लिए हैं तो क्या तब भी वह अपने काम पर लौट आएंगे। हां, जिन उद्योगपतियों ने आपातकाल में उनकी मदद की, उन्हें सहारा दिया, उनके रहने-खाने की सुविधा दी, इस तरह के उद्योग में काम करने सभी आएंगे और उनका उत्पादन जरूर शुरू होगा। लेकिन, जिन उद्योगों में कामगारों को ऐसी सुविधा नहीं मिली, जिन उद्यमियों ने अपने यहां कार्यरत श्रमिकों को उपेक्षित और अपमानित किया, ऐसे उद्योगों में श्रमिकों का दुबारा लौटना और फिर उनसे काम शुरू कराना मुश्किल लग रहा है।
कुछ राज्यों ने अपने यहां श्रम कानून को समाप्त करने की सिफारिश केंद्रीय सरकार से कर दी है। यदि वह मंजूर हो गया तो फिर वही होगा, जो साउथ अफ्रीका में भारतीय गिरमिटिया मजदूरों के साथ हुआ करता था। जिन राज्यों ने अपने यहां श्रम कानून को स्थगित करने की सिफारिश केंद्र सरकार से की है, उनमें उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश सहित कई राज्य हैं। इन्होंने श्रमिकों के हितों की रक्षा तो नहीं की, उल्टे उनके अधिकार को समाप्त करने का निर्णय ले लिया है। मोहनदास करमचंद गांधी बैरिस्टर बनकर जब हिंदुस्तान वापस आए तो उन्होंने राजकोट और बंबई हाई कोर्ट में वकालत शुरू की, लेकिन कुछ ही दिन बाद साउथ अफ्रीका के दादा अब्दुल्ला भाई अपने एक विवाद में मदद के लिए मोहनदास को एक वर्ष के एग्रीमेंट पर साउथ अफ्रीका ले गए। वहां उन्होंने हिंदुस्तानियों के प्रति जो अमानवीय व्यवहार, भेदभाव, अपमान और शोषणकारी काले-गोरे में भेद देखा, ऐसा उन्होंने सोचा भी नहीं था। वहां हर हिंदुस्तानी कुली था और मोहनदास करमचंद गांधी भी वहां गिरमिटिया बैरिस्टर कुली के रूप में ही पहचाने जाने लगे। कई बार जगह-जगह उन्हें अपमानित होना पड़ा, कई बार उनको पीटा गया, यहां तक कि फर्स्ट क्लास का टिकट होते हुए भी बर्फीली रात में ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया। वहां कुली हिंदुस्तानियों के लिए कोई कानून नहीं था। वह कुली चाहे गोरां के खेत में काम कर रहा हो, चाहे किसी फैक्ट्री में, उन्हें कोई छुट्टी नहीं मिलती थी। यानी, उनके लिए न कोई नियम था, न कानून। ऐसा उदाहरण इसलिए देना पड़ रहा है, क्योंकि जो स्थिति भारत में श्रम कानून को स्थगित करके सरकार करने जा रही है, उससे यही लगता है कि सरकार ने जाने-अनजाने में भारतीय श्रमिक को उसी युग में धकेलने का प्रयास किया है जहां सभी हिंदुस्तानी कुली के रूप में संबोधित किए जाते थे।
वैसे जिस वैश्विक महामारी के संकट की स्थिति से देश गुजर रहा है उसमें इस प्रकार की बातों के लिए कोई स्थान नहीं है, लेकिन जो समस्या आगे अभी आने वाली है उसकी जानकारी आमजन को देना कतई गलत नहीं है। अब हम गोरों के अधीन नहीं हैं और हमारा देश विद्वानों द्वारा बनाया गया एक बेहतरीन संविधान से चलता है। इसलिए इसका अर्थ यह नहीं कि जब चाहा, उसे बदल दिया या उसमें अपने हिसाब से बदलाव या संशोधन कर लिया। यह अनुचित है। वैश्विक महामारी के संकट की इस घड़ी में पूरा देश सरकार के साथ खड़ा है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि देश की सबसे कमजोर कड़ी को ही काट कर फेंक दिया जाए, जबकि संविधान ने उसे भी जीने का वही अधिकार दिया जो आम भारतीय नागरिक को प्राप्त है। इसलिए इस कानून पर गहन सर्वहितकारी विचार की जरूरत है। सरकार में बैठे नेतागण हमारे प्रतिनिधि हैं, उन्हें उस हितकारी निर्णय पर विचार करना चाहिए, अन्यथा जनता का उबाल समुद्र में आए ज्वार-भाटे से अधिक खतरनाक होता है। शायद सरकार ने अभी उन मजदूरों का वह आक्रोश नहीं देखा जो हजारों मील का सफर जान जोखिम में डालकर बाल-बच्चों के साथ अनंत यात्रा पर अपने लक्ष्य के लिए निकल पड़े हैं।


(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक हैं।)

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