संवेदनशील अफगान मुद्दे पर राजनीति न करें महबूबा मुफ्ती

कृष्णमोहन झा

अफगानिस्तान में इस समय जो कुछ घटित हो रहा है उसने सारी दुनिया को झकझोर कर रख दिया है। निर्दोष अफगान नागरिकों  विशेषकर महिलाओं और बच्चों के साथ तालिबानी आतंकियों की बर्बरता की जो खबरें रोजाना ही सामने आ रही  हैं वे मानवता के लिए कलंक हैं और पूरी दुनिया के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। तालिबानी बर्बरता  को किसी भी सूरत में सही नहीं ठहराया जा सकता ।

अमेरिका ने  अगर अफगानिस्तान के नागरिकों को उनके हाल पर छोड़ कर वहां से पलायन करने का  फैसला किया है तो इसका मतलब यह नहीं है कि तालिबान आतंकियों को वहां निर्दोष नागरिकों, महिलाओं और मासूम बच्चों को अपनी बर्बरता का शिकार बनाने की छूट मिल गई है  परंतु जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की मुखिया महबूबा मुफ्ती ने हाल में ही इस मुद्दे पर जो विवादित  बयान दिया है उससे तो यही साबित होता है मानों वे तालिबान आतंकियों की बर्बरता का औचित्य सिद्ध कर रही हैं।

इसके बजाय अगर महबूबा मुफ्ती केंद्र सरकार से यह आग्रह करतीं कि अफगानिस्तान में तालिबानी बर्बरता का शिकार लोगों की मदद हेतु उसे हर संभव प्रयास करना चाहिए  तो उससे यह संदेश मिलता कि अफगानिस्तान में तालिबानी बर्बरता का शिकार हो रहे लोगों के साथ उन्हें सहानुभूति है परंतु इस संबंध में  हाल में  ही  उनके दिए  गए एक बयान से यही प्रतिध्वनित होता है कि वे जम्मू-कश्मीर की तुलना अफगानिस्तान से करना चाहती हैं और अफगानिस्तान के बहाने केंद्र सरकार को धमकी देना चाहती हैं।

उन्होंने हाल में ही अपने विवादित बयान में कहा है कि “तालिबान ने अफगानिस्तान में अमेरिका को भागने ‌‌पर मजबूत किया है।आप हमारे सब्र का इम्तहान मत लो। पड़ोस में देखो क्या हो रहा है। उनको भी वहां से बोरिया बिस्तर लेकर वहां से जाना पड़ा। आपके लिए मौका है अब भी।”

महबूबा मुफ्ती से पूछा जा सकता है कि राज्य के जो गुमराह युवक अब  राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल होकर अपना भविष्य संवारना चाहते हैं उनको क्या वे अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए तालिबान की राह पर चलने के उकसाना चाहती हैं। दरअसल संविधान के अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावीकरण के मोदी सरकार के फैसले ने जबसे जम्मू-कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त किया है तभी से राज्य के महबूबा मुफ्ती और फारुख अब्दुल्ला जैसे नेताओं‌ को अपनी जमीन खिसकती दिखाई देने लगी है इसीलिए वे अपने भड़काऊ बयानों के माध्यम से राज्य में फिर से अस्थिरता और अशांति का माहौल  निर्मित करने की कोशिशों में जुटे हुए हैं परंतु अब तक उन्हें असफलता ही हाथ लगी है।

जम्मू-कश्मीर को देश के दूसरे राज्यों की श्रेणी में लाकर मोदी सरकार ने न तो जम्मू कश्मीर की पहचान छीनी है ,न ही  वह राज्य के साथ कोई भेदभाव कर रही है। मोदी सरकार अगर  जम्मू-कश्मीर को तीन दशक पुराने आतंकवाद से मुक्ति दिलाकर राज्य में चहुमुखी विकास के नए युग की शुरूआत करने के लिए कृत-संकल्प है तो  केंद्र सरकार की इस  नेकनीयती के उसकी सराहना की जाना चाहिए। इससे महबूबा मुफ्ती और फारुख अब्दुल्ला जैसे क्षेत्रीय नेताओं के सब्र का बांध टूटने का सवाल कहां पैदा होता है।

महबूबा मुफ्ती अगर वास्तव में जम्मू-कश्मीर में अमन-चैन का माहौल चाहती हैं तो उन्हें ऐसे भड़काऊ बयान देने की प्रवृत्ति का परित्याग करना चाहिए । महबूबा मुफ्ती ने पहली बार ऐसा बयान नहीं दिया है।इस तरह के बयान वे पहले भी देती रही है। ऐसे ही बयान  फारुख  अब्दुल्ला सहित दूसरे नेता  भी जब तब देते रहते हैं जिनसे उनकी हताशा ही प्रगट होती है।

महबूबा मुफ्ती और फारुख अब्दुल्ला जैसे नेताओं‌ ने  हमेशा अपने देश विरोधी विवादित बयानों से ही अपनी पहचान बनाई है । उनके बयानों में  आतंकवादियों और अलगाववादी तत्वों के प्रति  सहानुभूति का जो भाव ‌‌‌‌‌‌छुपा होता है उसे समझना कठिन नहीं है लेकिन उनकी राष्ट्रविरोधी गतिविधियों की भर्त्सना करने के बजाय  हमेशा केंद्र सरकार को नसीहत देने में  वे अधिक दिलचस्पी दिखाती हैं। उन्हें  शायद यह गलतफहमी है कि वे आतंकवादियों और अलगाववादी तत्वों के प्रति अपनी सहानुभूति दिखाकर राज्य में अपना खोया हुआ जनाधार पुनः अर्जित कर सकती हैं जबकि वास्तविकता यह है कि उनकी अपनी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी  के अंदर से उनके नेतृत्व को चुनौती मिल रही है और पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने तो उनका साथ ही छोड़ दिया है। आज वे जम्मू-कश्मीर की राजनीति में जिस तरह अलग थलग पड़ चुकी हैं उसके लिए वे किसी भाजपा अथवा केंद्र की मोदी सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकती हैं।

दरअसल इस स्थिति के लिए वे स्वयं जिम्मेदार हैं। वे यह कैसे भूल सकती हैं कि भाजपा ने तो उनकी पार्टी के साथ गठबंधन करके  पहले उनके पिता स्व मुफ्ती मोहम्मद सईद और फिर उनके निधन के बाद खुद उन्हें मुख्यमंत्री पद की बागडोर संभालने का अवसर दिया था परन्तु मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर आसीन रहते हुए भी उनकी सहानुभूति सुरक्षा बलों के जवानों पर पत्थर बरसाने वाले लड़कों और आतंकियों के साथ बनी रही। गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने राज्य की जेलों‌ में बंद लगभग 9 हजार पत्थरबाजों  को माफी देकर रिहा कर दिया था।

गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीपी गठबंधन सरकार के दौरान  उनके ही अनुरोध पर रमजान के माह में केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों को आतंकियों के विरुद्ध अपने अभियान को विराम देने का निर्देश दिया था परन्तु आतंकी उस छूट में भी अपनी हरकतों से बाज नहीं आए परंतु तत्कालीन मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने इस पर चुप्पी साध ली। नतीजा यह हुआ कि भाजपा को महबूबा मुफ्ती की पार्टी से अपना गठबंधन तोड़ना पड़ा और महबूबा मुफ्ती को मुख्यमंत्री पद से हाथ धोना पड़ा‌ और तबसे वे निरंतर ऐसे बयान दे रही हैं जिनसे राज्य के अलगाववादियों और विध्वंस कारी तत्वों के प्रति उनकी सहानुभूति का परिचय मिलता है।

महबूबा मुफ्ती के बहुत से बयान ऐसे होते हैं जिन्हें सरकार कोई महत्व नहीं देती इसलिए उन्हें नजर अंदाज कर देती है परंतु अफगानिस्तान से जम्मू-कश्मीर की तुलना करना निःसंदेह घोर आपत्तिजनक है।

महबूबा मुफ्ती क्या यह नहीं जानतीं कि तालिबानी आतंकी अफगानिस्तान में महिलाओं और बच्चों के साथ किस तरह बर्बरता से पेश आ रहे हैं। महबूबा मुफ्ती आखिर यह क्यों नहीं यह समझना चाहतीं कि उन्होंने तालिबान को लेकर जिस तरह का बयान दिया है उससे  जम्मू-कश्मीर की जनता के मन में भय भी जन्म  ले सकता है। पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की मुखिया को यह भी मालूम होना चाहिए कि  हमारे देश में विध्वंस कारी और अलगाववादी तत्वों से सख्ती से निपटने के लिए केंद्र  में मजबूत सरकार है इसलिए कोई अन्य देश हमारे आंतरिक मामलों में दखलंदाजी नहीं कर सकता।और यही कारण है कि महबूबा मुफ्ती भड़काऊ बयानों से अपने मन की भड़ास निकाल रही हैं लेकिन उन्हें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि वे अब अपने राज्य में भी अपना जनाधार खो चुकी हैं।

(लेखक IFWJ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और डिज़ियाना मीडिया समूह के सलाहकार है. लेख में दिए गए विचारों से चिरौरी न्यूज़ का सहमत होना अनिवार्य नहीं है.)

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