अंग्रेजों को भगाया, मानसिकता को नहीं

निशिकांत ठाकुर

सांप्रदायिक झगड़े, यानी दंगा—फसाद तब भारत में होते ही नहीं थे। सभी भारतीय, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, हर बात को समान नजर और नजरिये से देखते और सभी घटनाओं को समान ढंग से ही स्वीकारते एवं अपनाते थे। हिंदू—मुस्लिम एकता मुकम्मल तौर पर कायम रखने के लिए किसी को कुछ करने की आवश्यकता नहीं थी। दरअसल, शताब्दियों तक एकजुट रहने के कारण उनके संबंध स्थायी हो गए थे। अत्यंत महत्वपूर्ण बात यह कि उस समय सामाजिक वातावरण, यानी ताने—बाने में उत्तेजक या सांप्रदायिक टकरावों का कहीं कोई नामोनिशां ही नहीं था। कह सकते हैं कि आज की तरह हिंदू-मुस्लिम जैसी विभेदक टकराव का अस्तित्व ही नहीं था। लेकिन, अंग्रेज उस समय भी आपस में फूट डालकर शासन करने का विभाजनकारी तरीका अपना रहे थे। यह अलग बात है कि ‘गोरों’ का भी हिंदुओं की अपेक्षा मुसलमानों पर भरोसा कम ही था।

ईस्ट इंडिया कंपनी के अध्यक्ष मेंगल ने पार्लियामेंट में जो भाषण दिया था, उसमें उन्होंने साफ—साफ कहा था, ‘ईश्वर ने हमें हिंदुस्तान का विशाल राज्य इसलिए सौंपा है, क्योंकि हम वहां एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक ईशा मसीह का विजय का झंडा फहराएं। हमारा और आप सब का यह कर्तव्य है कि संपूर्ण भारत को ईसाई बनाने में अपनी पूरी ताकत लगा दें।’ इस भाषण का समर्थन करते हुए राबर्ट माउंट गुमरी ने कहा था, ‘आपके कथन के समर्थन में मैं केवल यह कहना चाहता हूं कि हम पर चाहे जितनी भी आपत्तियां आए, जब तक भारत में हमारा साम्राज्य कायम है, तब तक हमें यह नहीं भूलना है कि हमारा अब बड़ा काम समूचे भारत को ईसाई बनाना है। इस काम के लिए हमारे हाथों में जितने अधिकार और जितनी सत्ता है, उसका पूरा उपयोग करें। समूचे भारत को ईसाई बनाने के महान कार्य को ढील न देकर शक्ति भर चेष्टा करनी चाहिए।’

इसी भावना से प्रेरित होकर सन् 1836 में मैकाले ने यह गर्वोक्ति की थी कि तीस वर्षों में एक भी मूर्ति पूजक भारत में नहीं बचेगा। इसी दृष्टिकोण को लेकर तत्कालीन रेवरेंड केनेडी ने कहा था कि जब तक हमारा साम्राज्य भारत में है, हमें किसी प्रकार की अड़चनों की परवाह न करते हुए भारत में हिमालय से लंका तक ईसाई धर्म का विस्तार करना होगा, और जब तक भारत ईसाई और हिंदू—मुस्लिम धर्म की निंदा नहीं करेगा, तब तक हमें अपना काम जोर—शोर से करना चाहिए। हमें जी—जान, बल और अधिकार के इस्तेमाल से ऐसा उपाय करना चाहिए कि भारत पूरब में ईसाइयों का गढ़ बन जाए। आम लोगों की भावनाओं को ईसाई मिशनरियों ने और बढ़ा दिया। वे खुल्लम खुल्ला डींगें हांकते थे कि समूचा भारत ईसाई होने वाला है। लोग कहते थे, यह औरंगजेबी जुल्म है। क्या आज कोई शिवाजी जैसा वीर और गुरु गोविंद सिंह जैसा महापुरुष नहीं जन्म लेगा जो इन विधर्मी, अत्याचारी विदेशियों को देश से बाहर निकाले।

सोचने की बात यह है कि कितनी लंबी दूरी से घेराबंदी की गई कि ‘आपस में फूट डालो और राज्य सुख भोगो।’ मैकाले को यह जिम्मेदारी सौंपी गई कि वह भारतीय शिक्षा पद्धति को इस प्रकार बनाए कि भारत का गौरवशाली इतिहास और संस्कृति… सब कुछ बदल जाए। मैकाले ने भी उसी गर्वोक्ति से कहा था कि 30 वर्षों में शिक्षा पद्धति को वह इस प्रकार बदल देगा कि कोई भी मूर्ति पूजक भारत में देखने तक को नहीं मिलेगा। हालांकि, अंग्रेजों की यह काली मंशा फलीभूत तो नहीं हो पाई, लेकिन मैकाले ने हमेें हमारी पौराणिक और भारतीय परंपरागत शिक्षा से हमें बिल्कुल उल्टी दिशा में मोड़ अवश्य दिया। उसी का दुष्परिणाम है कि भारत सरकार के इस शिक्षा पद्धति को बदलने के कई प्रयास आज तक पूर्ण कामयाबी को हासिल नहीं कर पाए हैं। अंग्रेजों ने दूसरा फार्मूला हिंदू से कम महत्व मुसलमानों को देने का अपनाया था, ताकि दोनों समुदायों के बीच पहले मनमुटाव बढ़े, जो कालांतर में स्थायी दुश्मनी में तब्दील हो ही जाएगी। अंग्रेज जो भी काम करते थे, योजनाबद्ध तरीके से करते थे। उनकी योजना भले ही लंदन में बनती थी, लेकिन पालन भारत में बैठे उसके उच्च अधिकारियों द्वारा भारत में कराया जाता था।

अब अंग्रेजों की इस नीति को देखते हैं जिसमें उनकी योजना थी कि हिंदू-मुसलमानों को आपस में लड़ाने के लिए मुस्लिमों पर भरोसा का प्रतिशत कम करके उसकी अवहेलना शुरू की जाए। इससे दोनों में आपसी मनमुटाव बढ़ेगा और दोनों आपस में ही लड़—कटकर मर जाएंगे। अंग्रजों की योजना हर एंगल से निशाने पर लगती रही। इससे दंगे होने लगे, मार—काट होने लगी, क्योंकि दोनों के बीच रोटी—बेटी का संबंध कभी था नहीं और कभी हो भी नहीं सकता था। इसलिए उनका आपस में संबंध रखने से भी कोई लाभ नहीं होने वाला था। स्वाभाविक तौर पर अंग्रेजों की साजिश सफल होती रही, क्योंकि भारत में आपसी कत्लेआम शुरू हो चुका था। इसी नीति के कारण ही तो 38 करोड़ की विशाल आबादी पर केवल एक लाख की संख्या वाले अंग्रेज राज करते रहे। वह चाहते थे कि भारतीयों को इस कदर पंगु बना दो कि वे कभी भी शिक्षा, युद्ध कौशल और नीति—निर्माण में उनका मुकाबला ही न कर सकें। इसी वजह से तो सैकड़ों वर्षों तक भारत सहित विश्व के कई देशों को अपना गुलाम बनाकर लूटा और ‘महान अंग्रेज’ कहलाते रहे। तभी तो नेताजी सुभाष चंद्र बोस कहते थे कि केवल एक लाख विदेशी हम 38 करोड़ भारतीयों पर कैसे राज्य कर सकता है! गांधी जी से सुभाष चंद्र बोस का यही तो द्वंद्व था। नेताजी को बापू बार—बार समझाते थे कि यहां दिखने वाले एक लाख अंग्रेज ही नहीं हैं, बल्कि उनकी जड़ ब्रिटेन और अमेरिका में गड़ा है, जो पूर्ण शक्तिशाली है। भारत ही नहीं, विश्व के किसी भी देश को पराजित करने के लिए काफी है। गांधी और उनकी टीम के सदस्य कहा करते थे कि हम बातचीत से ही उन्हें परस्त कर सकते हैं।

इतनी लगन और निष्ठा से ढेरों बलिदान, सत्याग्रह आंदोलन के बाद अंग्रेजों ने आखिरकार भारत को आजाद करने का निर्णय तो लिया, लेकिन इस शर्त पर कि देश के दो टुकड़े होंगे। मुस्लिम बहुल इलाके में मुसलमान रहेंगे और हिंदू बहुल स्थान भारत का हिस्सा होगा, जो हिंदुओं का होगा। आखिर 15 अगस्त, 1947 को दो हिस्सों में बंटकर भारत आजाद हुआ। साजिशन जिस दीर्घकालिक योजना के तहत लंबे समय तक भारत पर अपना कब्जा बनाए रखने का निर्देश अंग्रजों ने दिया था, वह उनकी सफल योजना के तहत आज भी हम मैकाले शिक्षा नीति से अलग होकर अपनी नीति नहीं बना सके हैं। हमारी सभ्यता और संस्कृति को जो तोड़ा—मरोड़ा गया, उसे सही रास्ते पर लाने के राह दूर—दूर तक नजर नहीं आती है। इसी प्रकार हिंदू-मुस्लिम को लड़ाकर रखने की साजिश भी आज तक सफल है। आज भी हम साजिश के जाल से निकल नहीं पाए हैं, क्योंकि हमारे मन में गंदगी घर कर गई है कि हम दोनों नदी के दो छोर हैं, जो कभी एकसाथ नहीं आ सकते। दुर्भाग्य की बात यह कि हमारे मन में बैठी उस गंदगी को स्थायी बनाने का कुचक्र रचने का कोई मौका हमारे राजनीतिज्ञ चूकना नहीं चाहते हैं। अभी पिछले दिनों पश्चिम बंगाल में जो विधानसभा चुनाव हुए, उस दौरान यही तो कहा गया कि ममता बनर्जी चुनाव इसलिए जीतीं, क्योंकि उन्हें मुसलमान मतदाताओं का समर्थन मिला और उस समुदाय के सारे वोट तृणमूल कांग्रेस को मिले।

किसी भी देश की जनता के भाग्य—विधाता तो वहां की सरकार ही होती है। लेकिन, आज तक ऐसी कोई भी कोशिश किसी भी सरकार की ओर से की गई नजर नहीं आती जिसमें इन सामाजिक बुराइयों और खामियों को दूर करने का कभी गंभीर प्रयास किया गया हो। उल्टे ठंडी पड़ती आग में अक्सर घी डालने का काम ही सरकारें करती रही हैं। चाहे वह केंद्र सरकार रही हो या कोई राज्य सरकार। ऐसा लगता है, समस्या की जड़ में पानी के बजाय जहर डाला जाता है, ताकि उन्हें चुनावी लाभ मिल सके। इसलिए उन्हें नए—नए सपने दिखाए जाते हैं, जिसके दम पर उनका वोट साधता रहता है, वे जीतते रहे हैं और समाज में दुर्गंध को बरकरार रखने में कामयाब रहते हैं। अंग्रेजों ने दूरदर्शिता का उदाहरण दिखाते हुए जिस दीर्घकालीन कामयाबी के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई थी और उसी के साथ मैकाले ने ‘तीस वर्षों में भारत के समस्त मूर्ति पूजक स्वतः खत्म हो जाएंगे’ जैसा आत्मविश्वास दिखाया था, लगता है उसके पीछे उनका यह पक्का विश्वास था कि उनकी साजिश जरूर कामयाब होगी, क्योंकि भारत के भविष्य के नेता देशी नहीं, अंग्रेजी मानसिकता के ही गुलाम होंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।

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