पहले रायता फैलाया फिर पंगत से उठ गए सिद्धू

कृष्णमोहन झा

पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू की राजनीति के मैदान में भी हमेशा चौके छक्के मारने की महत्वाकांक्षा ने पूरी कांग्रेस पार्टी को मुसीबत में डाल दिया है। उनके साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि  राजनीतिक पिच पर  उन्हें  किसी के साथ पार्टनरशिप  पसंद नहीं है। कांग्रेस हाईकमान कमान ने उन्हें पंजाब प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष  की कुर्सी पर बिठा कर उनकी एक  महत्वाकांक्षा पूरी कर दी तो भी वे  चैन से नहीं बैठे। उन्होंने प्रदेश में संगठन को मजबूत करने के प्रयासों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय  मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के खिलाफ मुहिम छेड़ दी और उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटवा कर ही दम लिया।

कांग्रेस हाईकमान ने उनकी यह मांग भी ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌पूरी कर दी तो सिद्धू अपनी पसंद का मुख्य मंत्री बनवाने के लिए अड गए। मुख्यमंत्री के चयन में भी काफी हद सिद्धू की मर्जी चली और जब दलित सिख नेता चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री पद की बागडोर सौंपी गई तो सिद्धू ने जिस तरह खुशी का इजहार किया उससे इन आशंकाओं को भी बल मिला कि सिद्धू मंत्रिमंडल गठन में भी हस्तक्षेप किए बिना नहीं मानेंगे। सिद्धू ने इन आशंकाओं को सच साबित करने में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी। वे चाहते थे कि सभी सारे मंत्री उनकी पसंद के बनाए जाएं और उन्हें विभागों का वितरण वितरण भी उनकी मर्जी से ही किया जाए लेकिन जब ऐसा नहींहुआ सिद्धू तो सिद्धू ने पंजाब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया।

पंजाब की नवगठित चन्नी सरकार और कांग्रेस  के संगठन को अपनी जेब में रखने की सिद्धू की महत्वाकांक्षा ने अब पूरी पार्टी को मुसीबत में डाल दिया है। सिद्धू ने प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के साथ ही यह भी कहा है कि वे कांग्रेस पार्टी की सेवा करते रहेंगे परंतु  सवाल यह उठता है कि पंजाब में साढ़े चार साल पहले कांग्रेस सरकार गठित ‌होने के बाद से ‌‌‌‌‌‌‌‌सिद्धू जिस तरह पार्टी की” सेवा “कर रहे हैं उससे पंजाब में कांग्रेस पार्टी काकितना भला हुआ है।पार्टी के प्रति सिद्धू की “सेवा भावना”अब पार्टी को बहुत महंगी पड़ने लगी है और  सिद्धू शायद  खुद भी यह  नहीं जानते कि  इसकी कितनी बड़ी कीमत पार्टी को आगामी विधानसभा चुनावों में चुकानी पड़ेगी।तीन महीने के अंदर ही पंजाब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर भविष्य में सामान्य कार्यकर्ता की भांति पार्टी की सेवा करते  रहने का सिद्धू ने जो वचन दिया है उस पर वे कितने अडिग रह पाएंगे यह तो भविष्य ही बताएगा परंतु उनसे यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है कि अगर सत्ता अथवा संगठन में उन्हें किसी महत्वपूर्ण पद की चाह नहीं थी तो फिर उन्होंने प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष पद हासिल करने करने के एड़ी चोटी का जोर क्यों लगा दिया था। दरअसल सिद्धू  तो पंजाब के मुख्य मंत्री पद  की हसरत मन में पाले हुए थे परंतु जब उन्हें यह आभास हुआ कि  मुख्यमंत्री की कुर्सी  तक पहुंचने के लिए उन्हें अगले विधानसभा चुनावों तक प्रतीक्षा करनी होगी तो उन्होंने प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष पद हासिल करने की रणनीति अपनाई और पार्टी हाईकमान को इस बात के लिए राजी किया कि राज्य विधानसभा के अगले साल होने वाले चुनावों में वे ही पार्टी का चेहरा होंगे। सिद्धू यह मान रहे थे कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भले ही चरणजीत सिंह चन्नी आसीन हों परन्तु सरकार में उनकी हैसियत  सुपर चीफ मिनिस्टर की होगी।

इसीलिए वे मंत्रिमंडल गठन में भी अपनी अहमियत कायम रखना चाहते थे और जब ऐसा नहीं हो पाया तो गुस्से में आकर उन्होंने प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। वास्तव में सिद्धू ने कांग्रेस हाईकमान के सामने असमंजस की स्थिति निर्मित कर दी है । सिद्धू के  समर्थन में केबिनेट मंत्री रजिया सुल्ताना और प्रदेश कांग्रेस के महासचिव और कोषाध्यक्ष ने अपने पदों से इस्तीफा दिया है । कांग्रेस महासचिव के सी वेणुगोपाल ने  इन इस्तीफों को सिद्धू की भावनात्मक प्रतिक्रिया बताते हुए कहा है कि प्रियंका गांधी वाड्रा सिद्धू से बात कर मामले को सुलझा सकती हैं परंतु सवाल यह उठता है कि सिद्धू को मनाने में हाईकमान को सफलता मिलेगी। सिद्धू  के बारे में यह सर्वविदित है कि वे अपनी मर्जी के मालिक हैं। इसका प्रमाण भी उस दिन मिल गया था जब पार्टी में चौतरफा विरोध के बावजूद वे पाकिस्तान जाकर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान और सेनाध्यक्ष जनरल बाजवा से  गले मिल आए थे। सिद्धू के उस  पाकिस्तान – प्रवास को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह आज भी उन पर निशाना साधते से  नहीं चूकते। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने तो यहां तक कह दिया है कि सिद्धू  राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा हैं इसलिए वे सिद्धू को मुख्यमंत्री बनने से रोकने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे। गौरतलब है कि सिद्धू अमरिंदर सिंह सरकार में थे तब भी उन्होंने क ई बार विवादित बयान दिए । उन्होंने तो एक बार यहां तक कह दिया था कि उनके कैप्टन तो राहुल गांधी हैं।वे किसी और को अपना कैप्टन नहीं मानते। वैसे सिद्धू का विवादों से चोली दामन का रिश्ता रहा है।

दरअसल कांग्रेस हाईकमान ने जिस तरह  सिद्धू के दबाव में आकर  कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के लिए विवश किया उससे अमरिंदर सिंह खुद को बेहै अपमानित महसूस कर रहे हैं। उनका कहना है कि कुछ माह पूर्व जब उन्होंने खुद ही मुख्यमंत्री पद छोड़ने की पेशकश की थी तब पार्टी हाईकमान ने उन्हें पद पर बने रहने की सलाह दी थी लेकिन बाद में सिद्धू के दबाव में आकर हाईकमान ने उन्हें अपमानित कर मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। यह सचमुच आश्चर्य  की बात है कि  कांग्रेस हाईकमान ने सिद्धू को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष  पद से नवाजने के बाद उन्हें यह निर्देश क्यों नहीं दिए कि वे अब अपनी  सारी ताकत को संगठन को  मजबूत करने में लगाएं। अगर सिद्धू के दबाव में मुख्यमंत्री  की कुर्सी से कैप्टन अमरिंदर सिंह को नहीं हटाया गया होता तो शायद पंजाब में कांग्रेस अपनी किरकिरी से बच सकती थी। सिद्धू की महत्वाकांक्षा ने पंजाब में कांग्रेस को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है कि आगामी विधानसभा चुनावों के बाद  दुबारा सत्तारूढ होने का अपना सुनहरा स्वप्न  बिखर जाने की आशंका उसे अभी से सताने लगी है। अगर कांग्रेस हाईकमान जल्द ही पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की नाराजी दूर करने के लिए कोई ठोस पहल नहीं करती तो वे अपनी घोषणा के अनुसार कोई “बड़ा कदम ” उठाने में संकोच नहीं करेंगे। अपने न ई दिल्ली प्रवास के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा से उनकी मुलाकातों ने न ई राजनीतिक अटकलों को जन्म दिया है।

यहां यह विशेष उल्लेखनीय है कि विगत दिनों भारतीय जनता पार्टी ने भी उत्तराखंड, गुजरात और कर्नाटक में अपने मुख्यमंत्री बदले थे । उत्तराखंड में तो उसने जल्दी-जल्दी दो मुख्यमंत्री बदल दिए परंतु भाजपा ने तीनों राज्यों में मुख्यमंत्री बदलने की प्रक्रिया को इतनी कुशलता से अंजाम दिया कि कहीं कोई शोरगुल सुनाई नहीं दिया। गुजरात में तो नए मुख्यमंत्री ने  सारे मंत्री बदल दिए परंतु भाजपा का वह अभिनव प्रयोग भी किसी तरह के असंतोष का कारण नहीं बन सका । सब कुछ इतनी शांति से निपट गया कि विरोधी दलों को भी टीका टिप्पणी करने का मौका नहीं मिला जबकि कांग्रेस को तो केवल एक राज्य में मुख्यमंत्री बदलने का फैसला इतना भारी पड़ गया है कि पार्टी हाईकमान भी किंकर्तव्यविमूढ़ हो उठा है। भाजपा और दूसरे राजनीतिक दलों में  यही फर्क है जो देश में उसके जनाधार को लगातार विस्तारित कर रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि दूसरे राजनीतिक दलों को और विशेषकर कांग्रेस पार्टी  को भाजपा से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है।

(लेखक भारती श्रमजीवी पत्रकार संघ के राष्ट्रीय संयोजक है)

 

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