किसानों को ज्वालामुखी नहीं बनने दे सरकार

निशिकांत ठाकुर

मैंने अपने कई लेखों में यह लिखा है और यह सच भी है। इसलिए उसे फिर से दोहरा रहा हूं कि किसी भी समस्या का समाधान युद्ध से नहीं होता है। यदि युद्ध होता है, तो विनाश निश्चित है और परिणाम वहीं लौटकर बातचीत और समझौते पर ही खत्म होता है। हम पलटकर वर्षों पहले की बात देखें, तो इतिहास और हमारे ग्रंथ यही बताते हैं कि यदि समझौते से बात बन गई होती, तो राम – रावण युद्ध नहीं हुआ होता, जिसमें राक्षस कुल का समूल नाश हो गया। यदि युद्ध के दूरगामी परिणाम को महाभारत काल में सोचा गया होता तो लाखों योद्धाओं के खून की नदियां नहीं बही होती। कुरु कुल का नाश नहीं हुआ होता। आधुनिक काल में हमने हिरोशिमा और नागासकी को करीब से देखा है। अपने जापान यात्रा के दौरान मैंने वहां विनाश लीला की दारूण कथा को करीब से देखा और समझा है।

असल में ये मात्र कुछ उदाहरण हैं। इतिहास और अपने ग्रंथों में हजारों ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं कि युद्ध से बिनाश ही होता है। किसी एक पक्ष की जो जीत होती है , वह तात्कालिक क्षणिक ही होती है। यह सारी बातें इसलिए क्योंकि किसान और सरकार के बीच जो स्थिति बनती जा रही है, वह निहायत दुर्भाग्यपूर्ण है। सरकार और किसान अपनी अपनी जिद पर अडिग हैं। कोई भी पीछे हटने के लिए तैयार नहीं । बात आगे बढ़ेगी तनातनी होगी, बात गरमाती जाएगी, फिर नुकसान किसका होगा ? निश्चित जानिए यह नुकसान देश का ही होगा हम सब का ही होगा। चिट्ठी का आदन प्रदान कब तक चलता रहेगा ? किसान पूरे देश में कब तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे और जो किसान धरने पर खुले आसमान के नीचे बैठे हैं, वह अपना प्राण कब तक त्यागते रहेंगे ? प्रश्न ढेरों है लेकिन सभी अनुत्तरित। इन सारे प्रश्नों का उत्तर कौन देगा सरकार या किसान ?

जिस प्रकार से किसान के नाम पर सियासत हो रही है, उसे मैं व्यक्तिगत रूप से सही नहीं मानता। कुछ छुटभैया और बिना पेंदी के नेता इस बात को साबित करने में लगे हैं कि यह तो किसानों का दुराग्रह है, क्योंकि इस कानून की मांग तो पिछली सरकार से ही होती आ रही है और अब यदि वर्तमान सरकार ने इसे कानून का रूप दे दिया तो इतना बवाल क्यों ? यहां तक कि प्रधानमंत्री तक इस बात को लेकर बार बार विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं और कहते हैं कि किसानों को बरगलाया जा रहा है विपक्ष उन्हे गलत सलाह देकर देश में अशांति फैलाना चाहता है जो गलत है। आखिर इस मुद्दे को इतना खींचा क्यों जा रहा है ?

दरअसल, सारे किसान गैर पढ़े लिखे नहीं है, जिन्हे कुछ देकर समझा बुझाकर वापस भेजा जा सके । वह इस कानून के तह में जाकर यह समझ चुके हैं कि इसका दूरगामी प्रभाव इनपर क्या पड़ने जा रहा है । उसपर आग में घी का काम किया ऐसे लोगों ने किया जो कभी इन्हे आतंकवादी, कभी दलाल, कभी पाकिस्तानी और चीनी साजिश बताकर इनकी भावनाओं को ठेस पहुंचाते रहे । इन किसानों के शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन को देश के खिलाफ अपराध बताकर कभी पानी की बौछार , कभी सड़क काटकर दिल्ली में नहीं घुसने को साजिश बताते रहे। इनका आंदोलन शांतिपूर्ण ढंग से चल रहा था और यदि सरकार इनके नेताओं के साथ प्रेमपूर्वक समझने और समझाने की कोशिश करती तो कोई दो राय नहीं कि एक महीने से जो यह किसान आंदोलन चला रहे हैं। निश्चित रूप से अपने अपने घर वापस लौट गए होते। काश, समय पर यह बात सरकार के समझ में आ गई होती, तो आज यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति देश को देखना नहीं पड़ता ।

अब तो इस आंदोलन की ज्वाला पूरे देश ही नहीं विश्व में फैल गई है । देश में हर अलग अलग राज्य के किसान दिल्ली की तरफ अपना रूख पूरे साजो-समान के साथ कर रहे हैं । सबका उद्देश्य दिल्ली में घेरकर इस काले कानून को वापस करवाना है। कुछ दिन पहले माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी कह दिया है कि धरना प्रदर्शन इस देश के प्रत्येक नागरिक का अधिकार है और सरकार उन्हें अपने अधिकारों से बंचित नहीं कर सकती । आखिर सरकार द्वारा जो कुछ भी किया जाता है वह तो जनता के लिए ही किया जाता है । अब बस किसानों का यह कहना है कि यदि यह कानून किसान हित के लिए इतना आवश्यक था, तो फिर इसे चुपके चुपके क्यों सांसद में पास कराया गया? किस किसान नेताओं अथवा किस एक्सपर्ट से इस कानून को बनाने के लिए राय ली गई? क्या यह इसलिए बनाया गया, क्योंकि पिछली सरकार इस कानून को लाना चाह रही थी ? इसलिए इस वर्तमान सरकार को इतनी तेजी से इस कानून को अचानक लाकर पास कराना पड़ा ।

किसान नेता तो वर्तमान सरकार पर यह भी आरोप लगा रहे हैं कि सरकार कुछ बड़े उद्योगपतियों के हाथों में खेल रही है और लोगों को अपने रसूख से मूर्ख बना रही है।

क्या जितने किसान और विपक्ष के लोग इस आंदोलन में भाग ले रहे हैं वह सारे के सारे सरकार की नजर में मूर्ख हैं ? धोखेबाज हैं, दलाल है, आतंकवादी है, चीनी – पाकिस्तानी है ? यदि सरकार ऐसा मानती है तो सब कुछ छोड़कर उसे इस बात की जांच तुरंत जरूर करानी चाहिए। खेती किसानी राज्य सरकार के अधीन आता है और यह भी ठीक है कि केंद्रीय सरकार को उसमे सुधार करने का पूरा का पूरा अधिकार है, लेकिन दबाव बनाकर, लाठी डंडों से लोकतंत्र नहीं चलता , क्योंकि यह बात आपातकाल ने साबित कर दिया है कि जनता की जबान को बंद कर देने से या उसे जेल में बंद कर देने से देश की क्रांति तत्काल दब तो जाती है, पर उसका सुलगना बंद नहीं होता। और फिर जब उसे मौका मिलता है, वह ज्वालामुखी बनकर फूटता है।

जनता को धोखे में मत रखिए, उसे गुमराह मत करिए, क्योंकि उसका लावा जिस दिन फूटेगा वह स्थिति बड़ी दुखदाई होगी। किसानों से बात करके उसकी समस्या का निराकरण करिए , उसका अपमान मत करिए। उन किसानों को जो अभी खुले आसमान के नीचे जीने मारने की कसम खाकर घर से निकले हैं, वह केवल अपने लिए ही लड़ाई नहीं लड़ रहे वह हमलोगों के लिए भी लड़ रहे हैं वह किसान के लिए लड़ रहे है। इसलिए सरकार को सबसे पहले उनकी समस्या का समाधान खोजना ही चाहिए युद्ध से नहीं मिल बैठकर प्यार से बात करके। फिर देश का भविष्य उज्जवल है और उज्जवल ही रहेगा ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

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