समझना है, तो पढना होगा

 

निशिकांत ठाकुर

पिछले कुछ दिनों से लगातार देश में घटित घटनाओं पर अपनी राय अपने मित्रों के लिए रखता रहा। दरअसल , जो पढ़ता हूं, आगे पीछे सुनता हूं, उसी पर अपना विचार आपके समक्ष रखकर आपसे राय लेने का प्रयास करता रहा हूं। इसलिए इस बार कुछ अलग लीक से हटकर देने जा रहा हूं। वह यह कि बचपन से ही सुनता आ रहा हूं कि कुबेर के भंडार को यदि बंद करके नहीं रखेंगे, तो वह शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा। लेकिन, यदि आप ज्ञान के भंडार अर्थात सरस्वती को बंद कर देंगे, तो आप कहीं के नहीं रहेंगे। इसलिए उस भंडार को खुला छोड़ दीजिए। आपकी कांति, आपकी आभा बढ़ती जाएगी। वह इसलिए कि मस्तिष्क ऐसा कंप्यूटर है, जो कभी भरता नहीं है और समय आने पर उसका अहसास आपको होने लगेगा। ऐसा मैं इसलिए आपसे साझा कर रहा हूं क्योंकि जब पहले ही दिन मेरा सामना दैनिक जागरण के पूर्व प्रधान संपादक स्वर्गीय श्री नरेंद्र मोहन जी से हुआ था, तो उसी दिन उन्होंने कहा था कि यदि मेरे साथ काम करना है, तो इस लाइब्रेरी को पढ़ जाओ। एक दिन में तो नहीं, लेकिन हां, वर्षों तक उनके साथ जुड़े रहने के कारण निश्चित रूप से मेरा ज्ञानवर्धन हुआ। किताबी और व्यवहारिक। दोनों ज्ञान की अभिवृद्धि हुई। अनुभव से बहुत कुछ सीखा और समझा। जब तक कार्यरत था, तो वहीं काम और पिछले कुछ वर्षों से जब कार्यालय की जिम्मेदारी से खाली हुआ, तो एक यही काम, यही उद्देश्य रह गया कि खूब पढूं और स्वयं का और ज्ञानवर्धन करूं। संजोग कहिए अथवा अनुभव हर तरह की किताबों को गंभीरता से पढ़ने का मौका मिला।
पहले भी पढ़ता रहता था और नियमित कुछ ना कुछ लिखता भी रहा। पहले दैनिक जागरण में नियमित कालम लिखता था। फिर सन स्टार का समूह संपादक बना, तो उसमें यह सिलसिला चला। अपनी पत्रिका शुक्लपक्ष में भी कालम नियमित रखा। यह मेरे लिया सौभाग्य की बात है कि इतने वर्षों तक लोगों ने मुझे पढा।अब, फेसबुक पर नियमित लिख रहा हूं। अपनी लम्बी पारी में बहुत खोया भी और पाया भी। बहुत अपने बने, कई साथ छोड़ गए। जीवन अपनी रफ्तार से चलता रहा और जहां से अपनी जिन्दगी शुरू हुई थी, वह बहुत पीछे छूट गया। चाहकर भी उनके पास नहीं पहुंच पाता हूं। हां, याद आती है। स्मृति में पूरी संजीदगी के साथ आज भी ताजा है। शायद आपने भी पढा होगा कि ऊपर चढ़ने के लिए भार काम रखना उचित है। पर्वतारोही को कभी आपने भी देखा होगा। खैर, इस बीच पुस्तकों को पढ़ता रहा और उस पर अपनी प्रतिक्रिया स्वरूप समय समय पर कुछ न कुछ लिखता भी रहा। कुछ को अच्छा लगा और कुछ तो इतना बुरा मान गए कि वह सार्वजनिक रूप से गाली तक देने लगे। कई लोग संज्ञा और सर्वनाम के साथ विशेषण लगाने लगे। मुझे इस बात का कभी कष्ट नहीं होता कि कुछ लोग कई प्रकार की उपाधियों से विभूषित करने लगते हैं। इसे मैं सोशल मीडिया का एक साइड इफेक्ट भी मानता हूं। कुछ लोग इस मंच पर भी अन-सोशल होते हैं। उनका न तो मैं और न ही आप, कुछ कर सकते हैं। बेहतर है कि उनकी सुनकर उन्हें अनसुना कर दें। तभी चित्त स्थिर रहेगा।
ऐसा इसलिए लिख रहा हूं कि इस बीच एक अच्छी किताब पढ़ने को मिला, जिसका नाम है – कहानी कम्युनिस्टों की। इसके लेखक हैं संदीप देव। पेशे से पत्रकार हैं। दैनिक जागरण में संदीप मेरे साथ जुड़ा रहा है। वह जब कोई कार्यक्रम करता था, तो मुझे याद करता था। अखबारों में उसकी किताबो की समीक्षा भी पढ़ता रहता था। वह इतना किताब लिखने के लिए अनुसंधान करेगा, यह नहीं सोच पाया था। अब जब उसकी किताब सामने है, तो अच्छा लग रहा है। जब अपना आगे बढता है, तो खुशी मिलती है। आज उसके लिए लिख रहा हूं। बहुत ही जबरदस्त रिसर्च के बाद अच्छी किताब लिखने का उसने बीड़ा उठाया। कुलदीप नैयर ने अपनी जीवनी – एक जिंदगी काफी नहीं – में लिखा है कि उनके (पंडित नेहरू) डॉ0 के एल बिग ने खास निर्देश दे रखे थे कि उन्हे अकेला ना छोड़ा जाए। फिर भी जब वे स्नान गृह में गए, तो उनके पास कोई नहीं था। डॉ0 बिग ने उन्हें बताया कि स्नानगृह में गिरने से ज्यादा देर तक उसी अवस्था में पड़े रहे थे, यह सरासर लापरवाही थी। लोगों को पता था कि वे बीमार थे, लेकिन किसी को भी उनके इतनी जल्दी निधन कि उम्मीद नहीं थी। ( संदीप देव के इसी पुस्तक से साभार )। लेखक ने देश की आजादी में नेहरू के योगदान, कम्युनिस्टों द्वारा समय-समय पर उन्हें मदद देना अथवा उनकी मदद के नियम कायदे कानून लागू करना, इसकी सत्यता को कसौटी पर कसते हुए प्रमाणित तथ्यों के आधार पर नेहरू के प्रति कई रहस्यमय पहलू को उठाने का प्रयास किया है। यदि इस पुस्तक को नहीं पढ़ता, तो देश में हुए कई महत्वपूर्ण पहलुओं को नहीं जान पाता। पुस्तक को अंत तक एक सांस में पढ़ने का मन होने लगता है, ऐसा इसलिए महसूस होता है क्योंकि लगता है कि लेखक ने घटनाक्रम को सामने चल चित्र की भांति चला दिया है ।
अब इस बात पर भी चर्चा कर लेते हैं कि ऐसा हो रहा है किं पंडित जवाहर लाल नेहरु के प्रति अपने देश में इतनी भिन्न राय लोग क्यों रखते हैं, तो सच यही है कि जो मुखिया होता है उसे ही जीत हार के लिए दोषी ठहराया जाता है अथवा उसकी तारीफ की जाती है और पीठ थपथपाते हैं । जो करेगा वही इसका अधिकारी होगा। जहां तक मेरी समझ है, भारतवर्ष में पंडित नेहरू से अधिक किसी के विषय में इतना पढ़ा या लिखा गया हो। ऐसा नहीं है कि आजादी से पहले या आजादी के बाद, उनके प्रधानमंत्री रहते और बाद में भी उनपर खूब लिखा गया। 21वीं सदी में भी वे प्रासंगिक हैं। तभी तो सत्ता हासिल करने के लिए जब भी चुनाव होता है, उनका जिक्र होता ही है। जाहिर है उन्होंने देश की आजादी के लिए काम किया था और महात्मा गांधी के उत्तराधिकारी के रूप में देश के कार्यभार को संभाला। फिर यश अपयश का भागीदार होना कोई अचरज की बात नहीं है । कहा तो यह भी जा रहा है कि महात्मा गांधी भी मोतीलाल नेहरू के दबाव में थे और यदि गांधी ऐसा नहीं करते, तो दल टूट जाता। फिर देश की आजादी को पाने में बाधा आती(इसी पुस्तक से)। हम सब तो आजादी के बाद आजाद मुल्क में पैदा होने वाले लोग है, इसलिए आज की तारीख में उस काल के कम ही जीवित लोग होंगे, जो गहराई तक जाकर यह बता सके कि आज के लोग जो लिख और पढ़ रहे हैं, उसमें क्या सच है और क्या नहीं ? सच तो यह भी है कि अब तो हम केवल लकीर ही पीट रहे हैं। और यदि लकीर नहीं पीटेंगे, तो फिर हमारा इतिहास हमे कौन बताएगा ? हम उसे कैसे जान पाएंगे? इसलिए तथ्यों के साथ लोगों को जानकारी देना बहुत बड़ी बात है।
संदीप देव ने उसके लिए कड़ा प्रयास किया है।
मैनेजमेंट गुरु राजीव खुराना ने अलिखित आदेश को इस तरह समझाया कि चार लोगों को अलग अलग दूरी पर खड़ा करके और चारों को एक से चार तक के नंबर दे दिए गए। पहले नंबर एक व्यक्ति को पांच सेकेंड का संदेश दिया गया और कहा गया कि यह संदेश आपको नंबर दो को देना है। इसी प्रकार दो के बाद तीन और चौथे व्यक्ति तक संदेश को पहुंचाया गया । फिर पहले व्यक्ति से लेकर चौथे व्यक्ति से संदेश के बारे में अलग अलग पूछा गया तो पहले संदेशवाहक से चौथे संदेशवाहक तक संदेश पहुंचने में मूल संदेश का 75 प्रतिशत संदेश गायब था। मुझे ऐसा लगता है कि हो सकता है कि इतिहास लेखन में भी शायद ऐसा होता हो, लेकिन स्थापित इतिहासकार बिना प्रमाण कुछ नहीं लिखते और दुनियां उनके शोध पर विश्वास करती है । फिर भी पाठक गंभीरता से इस पर विचार स्वयं करें, क्योंकि मैं इस पर टिप्पणी नहीं कर सकता ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतक विश्लेषक हैं)।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *