भारतीय खेलों का नासूर: बेलगाम खेल संघ!

राजेन्द्र सजवान
ओलंपिक खेलों में भारतीय भागीदारी सौ साल से ज्यादा पुरानी हो चुकी है। लेकिन पदकों के लिहाज से भारत आज भी दुनिया के सबसे पिछड़े खेल राष्ट्रों में है। यदि हॉकी के आठ स्वर्ण पदकों को छोड़ दिया जाए तो भारतीय प्रदर्शन बेहद दयनीय रह जाता है। और यदि 2012 के लंदन खेलों में जीते छह पदकों को भी एक तरफ कर दें तो भारतीय खेलों की ऐसी तस्वीर ही बच जाती है जिसे देख कर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को शर्मनाक होना पड़ेगा।

तारीफ की बात यह है जिस देश ने दूसरी बड़ी आबादी के बावजूद औसतन सबसे कमजोर प्रदर्शन किया उसके खेल आका कह रहे हैं कि भारत टोक्यो ओलंपिक में दर्जन भर पदक जीत सकता है। खेल मंत्रालय, भारतीय ओलंपिक संघ, साई और खेल संघों के वरिष्ठ अधिकारी डंके की चोट पर यह दावा भी कर रहे हैं कि भारत 2028 में ओलंपिक पदक तालिका में पहले 10 देशों में स्थान बना लेगा।

यदि दावा करने वालों से पूछा जाए की किन किन खेलों में पदक मिलने की उम्मीद है तो उनसे कोई जवाब देते नहीं बनेगा। खासकर, खेल संघ तो जवाब देने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसा इसलिए चूंकि भारतीय खेल संघों ने खेलों, खिलाड़ियों और देश की खेल प्रतिष्ठा को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। वरना क्या कारण है कि कुछ एक खेलों को छोड़ बाकी में हमारा प्रदर्शन बेहद शर्मनाक रहा है। खेल संघों को नियंत्रित करने वाले संघ मसलन एसजीएफई, वाईएसएफ, एसएफआई भी सिर्फ कागजों पर चल रहे हैं।

इसमें दो राय नहीं कि देश के अधिकांश खेल संघ और उनके पदाधिकारी अपना काम ईमानदारी से अंजाम नहीं दे रहे। अब इसे सरकार या खेल मंत्रालय का लचर रवैया माने या अधिकारियों का नकारापन पर ज्यादातर खेल बस राम भरोसे चल रहे हैं। यदि ऐसा नहीं होता तो क्यों न्यायालय द्वारा 57 खेलों की मान्यता रद्द की जाती। ज़ाहिर है बड़ा गड़बड़झाला चल रहा है। खेल संघ सरकार द्वारा दी जा रही लाखों की ग्रांट का सुखभोग तो कर रहे हैं पर बदले में देश को क्या दे रहे हैं? हॉकी, कुश्ती, मुक्केबाजी, बैडमिंटन, टेनिस, निशानेबाजी, वेट लिफ्टिंग में जीते ओलंपिक पदकों पर गर्व करने वाले भारतीय यह क्यों नहीं पूछते कि बाकी खेलों में हालत खराब क्यों है? कम से कम दो दर्जन खेल ऐसे हैं जिनमे भारत सिर्फ भाग लेने की खानापूरी कर रहा है। अफसोस कि बात यह है कि जो फुटबाल दुनिया का सबसे लोकप्रिय खेल है उसमें ओलयम्पिक में भारतीय भागीदारी शायद कई दशकों तक भी सम्भव नहीं हो पाएगी।

सबसे ज्यादा पदक एथलेटिक, तैराकी और जिम्नास्टिक में दांव पर रहते हैं और इन तीन खेलों को ही खेलों का आधार माना जाता है। दुर्भाग्यवश, इन खेलों को संचालित करने वाले अधिकारी कदापि गंभीर नहीं हैं। उन्हें पूछने वाला भी कोई नहीं है। इसलिए क्योंकि भारतीय खेलों को नियंत्रित करने वाला खेल मंत्रालय भी कदापि गंभीर नहीं है। फिर भला खेल संघ और उनके बिगड़ैल अधिकारी क्यों सुधरने लगे? खराब प्रदर्शन के लिए कोई भी जवाबदेह नहीं , किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं। एशियाड, ओलंपिक और बड़े खेल आयोजनों से खाली हाथ लौटने वालों को सरकार भी इसलिए कोई सजा नहीं सुनाती क्योंकि उनके मुंह लगे मंत्री, अधिकारी और अन्य कुसूरवार फसाद की जड़ से जुड़े होते हैं।

जिस चीन, अमेरिका, जापान, रूस, जर्मनी और अन्य बड़े देशों को टक्कर देने के दावे किए जाते हैं उनकी व्यवस्था में लूट खसोट और कर्तब्यहीनता के लिए कोई जगह नहीं है। खेलों के साथ धोखा करने वालों को जेल और मौत की सजा का प्रावधान है। ऐसी व्यवस्था का अनुसरण करने पर ही भारतीय खेल तरक्की कर सकते हैं। देशवासी भी यही चाहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय खेल मानचित्र पर देश को धोखा देने वाले और देशवासियों के खून पसीने की कमाई लूटने वालों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। यदि टोक्यो ओलंपिक के नतीजों को पहले प्रयोग के रूप में लिया जाए तो बेहतर रहेगा, ऐसा देश के खेल जानकर चाहते हैं।

बेशक, खेल संघों में व्याप्त भ्र्ष्टाचार खेलों को पनपने नहीं दे रहा। खेल संघों के पास कोई योजना नहीं है । बस खानापूरी हो रही है। खेल मंत्रालय और साई ने यदि गंभीरता नहीं दिखाई तो खेल पूरी तरह बिगड़ सकता है।

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं. इनके लेखों को आप www.sajwansports.com पर भी पढ़ सकते हैं)

 

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