पुष्कर पुष्प: एक सफर रोशनी के पहाड़ से अनंत की ओर

राजेश शर्मा

मूर्धन्य पत्रकार और लीक से हटकर अलग तरह के कथाकार पुष्कर पुष्प को भी कोरोना ने लील लिया। सामान्य दिनों में पत्तों के खड़कने पर भी खबरें बनती हैं, लेकिन आपदा काल में बड़े-बड़े किले ढह जाते हैं और कहीं सरसराहट भी सुनाई नहीं देती। दुर्भाग्य से यही खामोशी पुष्कर पुष्प जैसे पत्रकारिता के वटवृक्ष के धराशायी होने की घटना पर भी हावी हो गयी। दुर्भाग्य की हदें यह भी हैं कि न्यूज चैनलों पर टीआरपी के पैमाने पर लोकप्रियता की हदें तोड़ने वाले सनसनी, सावधान इंडिया, क्राइम पेट्रोल, कोड रेड और दस्तक जैसे सीरियलों और कार्यक्रमों की परिकल्पना और उनका साकार होना जिस विचारधारा और पत्रकारीय प्रस्तुतिकरण की भूमि पर संभव हुआ, उस विचारधारा और पत्रकारीय प्रस्तुतिकरण के जनक पुष्कर पुष्प को याद करने में मीडिया ने अपना एक पल भी नहीं लगाया।
यह पत्रकारिता का बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि अपने आप को पत्रकारों से बड़ा मानने की रणनीति के चलते कोई भी मीडिया संस्थान किसी भी पत्रकार की उपलब्धियों और कृत्रित्व का क्रेडिट पत्रकार को देने में कभी आगे नहीं आते। यही वजह है कि आर, के, करंजिया, राजेंद्र माथुर, खुशवंत सिंह और प्रभाष जोशी जैसे लब्धप्रतिष्ठित नाम भुला दिये गये हैं। आश्चर्य नहीं कि कल पुष्कर जी का नाम भी पत्रकारों की अगली पीढ़ी भुलाकर एक अदद हिट खबर की तलाश में भागते-भागते खत्म हो जाये।
पुष्कर जी जिस स्ट्रीम के पत्रकार थे, वह स्ट्रीम सीधे समाज के लोगों और उनके घरों तक जाती थी। यह वो पत्रकारिता नहीं थी, जो नेताओं के साथ बैठकर उन्हीं का दिया खाना और नाश्ता खाकर उनके द्वारा कहे गये बोल वचनों को जनता तक पहुंचाती है या विपक्षी नेताओं से पोषण प्राप्त कर उनके अनुरूप कथित राजनीतिक विश्लेषण की आड़ में उन्हीं का काम करती है।
हालांकि मुरादाबाद से प्रकाशित युगबंधु से पुष्कर जी का सफर भी सामान्य पत्रकार के रूप में ही शुरू हुआ था, लेकिन खबर के नाम पर पत्रकारीय लिप्सा और विज्ञापन बटोरने की बाध्यता पुष्कर जी को रास नहीं आयी। वैसे भी खबरों के लेखन में उनकी शैली और शब्द विन्यास समाचार पत्रों जैसा चालू नहीं था। भविष्य की योजनाओं में भी उनका लक्ष्य दिल्ली नहीं, बल्कि इलाहाबाद था, जहां से इलस्ट्रेटेड वीकली के बाद देश की सबसे ज्यादा बिकने वाली मनोहर कहानियां और नूतन कहानियां नामक पत्रिकाएं प्रकाशित होती थीं। मनोहर कहानियां का कलेवर, प्रस्तुतिकरण और विषय चयन नूतन कहानियां की तुलना में उच्च कोटि का था जो गंभीर प्रकृति के पाठकों की रुचि के अनुसार तैयार किया जाता था। हिंदी साहित्य की कई नामचीन हस्तियां अपनी मुफलिसी और संघर्ष के दिनों में मनोहर कहानियां में अपनी सेवाएं दे चुकी थीं। प्रिंट मीडिया के उस स्वर्णिम दौर मे हर मीडिया हाउस अच्छे लेखकों और पत्रकारों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए रणनीति बनाकर चलते थे। मनोहर कहानियां की बड़ी सख्त नीति थी कि जिस भी लेखक या पत्रकार की रचना एक बार भी नूतन कहानियां में छप गयी, उसे आजीवन मनोहर कहानियां में अवसर नहीं मिल सकता था। यही वजह थी कि संघर्षों और कष्टों के उस लम्बे दौर में नूतन कहानियां के अनेक आकर्षक प्रलोभनों के बावजूद पुष्कर जी ने नूतन कहानियां का कोई ऑफर स्वीकार नहीं किया। यह सब्र, संतोष और एकाग्रता एक दिन रंग लाई और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुछ घटनाओं को कवर कर उन पर कथाएं लिखने का अवसर पुष्कर जी को मिला। पुष्कर जी का लेखन मनोहर कहानियां के अनुरूप था, इसलिए वे सभी रचनाएं प्रकाशित तो हुईं, लेकिन मित्र प्रकाशन के लखनऊ ब्यूरों कार्यालय ने पूरे प्रदेश पर अपना एकाधिकार बताते हुए पुष्कर जी के लिए बाधाएं खड़ी कर दीं।
हालांकि मनोहर कहानियां के मुख्य संपादक स्व. आलोक मित्र थे, लेकिन संपादन का समस्त उत्तरदायित्व स्व. देव कुमार सिंह संभालते थे। देव कुमार जी का व्यक्तित्व गजब का था। पहली नजर में वे गांव से पहली बार शहर पहुंचे किसी किसान जैसे दिखते थे। उनकी विधिवत शिक्षा मात्र आठवीं तक ही हुई थी। परंतु वे भाषा और व्याकरण के न केवल उद्भट विद्वान थे, बल्कि व्याकरण की शुचिता को लेकर इतने कट्टर भी थे कि एक नामी लेखक को इसलिए गंवार और अनपढ़ बताकर आजीवन मनोहर कहानियां में अवसर नहीं दिया था कि उसने पंजाब शब्द लिखते समय ‘प’ अक्षर पर लगाई जाने वाली बिंदी का ‘जा’ अक्षर पर लगा दिया था। इन्हीं देवकुमार सिंह के साथ पुष्कर जी रिश्ता अनायास ही अत्यंत भावनात्मक बन गया था, जो जीवन पर्यंत रहा।
बहरहाल लखनऊ ब्यूरो की आपत्ति के बाद देवकुमार जी की सम्मति से पुष्कर जी को मनोहर कहानियां के दिल्ली कार्यालय से संबंधित कर उन्हें दिल्ली भेज दिया गया। उस समय तक मित्र प्रकाशन की लगभग सभी पत्रिकाओं मनोहर कहानियां, माया, मनोरमा और सत्यकथा आादि का ब्यूरो चीफ एक ही होता था। मनोहर कहानियां में दिल्ली की कथाओं को ज्यादा स्थान भी उस समय तक नहीं मिल पाता था। लेकिन दिल्ली में मनोहर कहानियां में आने के बाद पुष्कर जी ऐसी पाताल तोड़ मेहनत की कि न केवल दिल्ली की कथाओं को मनोहर कहानियां में अधिक स्थान मिलने लगा, बल्कि पत्रिका की बिक्री और सर्कुलेशन के मामले में देश के अन्य शहरों की तुलना में दिल्ली बहुत आगे निकल गयी। काम के विस्तार के साथ ही मित्र प्रकाशन ने दिल्ली में अपने सभी प्रकाशनों के ब्यूरो चीफ अलग-अलग कर दिये। दिल्ली ब्यूरो को संभालते हुए पुष्कर जी हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान तक मनोहर कहानियां के लिए एक से बढ़कर एक रोचक और अलग-अलग कथाएं एकत्र की। पुष्कर जी की लेखन शैली में अपार विविधता थी। मनोहर कहानियां में ऐतिहासिक कथाओं, सामाजिक उपलब्ध्यिों और व्यक्तित्व आधारित कथाओं के प्रकाशन की शुरूआत का श्रेय पुष्कर जी को ही जाता है। सन् 1990 के आस-पास के अनेक वर्षों तक मनोहर कहानियां का सर्कुलेशन 6 लाख प्रतियों से अधिक पहुंच गया था। पुष्कर जी और मनोहर कहानियां का स्वर्णिम दौर था। गांव की पृष्ठभूमि से निकलकर दिल्ली महानगर में इतने रुतबे तक पहुंचे पुष्कर जी भावुक इंसान थे। अपने कैरियर के चरम उत्कर्ष के उस दौर में जहां उनके अनेक सहयोगी और सहकर्मी दिल्ली में अपने-अपने मकान और सम्पत्तियां बना रहे थे, वहीं पुष्कर जी अपने भाई बहनों के कैरियर और शादियों में लगंे हूए थे। समय का पंछी आने वाले कुछ सालों मंे हाथ से निकल गया और वह स्वर्णिम दौर लौटकर नहीं आ सका। सन् 2000 में पारिवारिक क्लेशों के कारण मित्र प्रकाशन बंद हो गया। मित्र प्रकाशन से जुड़े सैकड़ों कर्मचारी बेकार हो गये। उस कठिन दौर में पुष्कर जी के मन में मनोहर कहानियां को नये रूप में पुनर्जीवित करने का विचार आया और यह विचार मनोनीत कहानियां के रूप में पाठकों के सामने आया। मनोनीत कहानियां के प्रकाशन के लिए पुष्कर जी ने अपनी पैतृक जमीन बेच दी। कुछ पार्टनर भी जोड़़े गये। मनोहर कहानियां के लगभग काफी लोग साथ आ गये थे। सपना यही था कि सफलता झक मारकर आयेगी। लेकिन इतने लोगों में एक भी आदमी व्यवसायी मानसिकता का नहीं था। पत्रिका प्रकाशन जैसे नोटों में आग लगाऊ धंधे के लिए धन कहां से और कैसे आयेगा? किसी को पता ही नहीं था। नतीजे भयावह रहे, सर्कुलेशन एजेंट और विज्ञापन एजेंसियां अपने अपने हिस्से के धन को लूट कर आंखें दिखा गयीं। आखिरकार डेढ़ साल के प्रकाशन के बाद भारी घाटे के बाद मनोनीत कहानियां का प्रकाशन बंद हो गया। हम सब बुरी तरह बरबाद हो गये। दिल्ली छूट गयी। सब बिछड़ गये। जीवन कैसे चलेगा? यह संकट भयावह था। लेकिन तभी पता चला कि मनोहर कहानियां को दिल्ली प्रेस ने खरीद लिया है। आखिरकार पुष्कर जी को संपादन के लिए नियुक्त कर लिया गया और उनका जीवन आहिस्ता आहिस्ता ही सही पटरी पर आ गया। मनोनीत कहानियां के हादसे ने जीवन से जीवट छीन लिया था। अब तो जैसे-तैसे जीवन यापन ही लक्ष्य रह गया था।
पुष्कर जी का कथा लेखन और प्रस्तुतिकरण अद्भुत था। इसी वजह से कई फिल्मी हस्तियां उनके सम्पर्क में आयीं और उन्हें फिल्मों के लिए लेखन के लिए प्रेरित किया, लेकिन फिल्मी दुनिया में व्याप्त नीचता और गलाकाट प्रतिस्पर्धा इस आदमी को रास नहीं आयी और वह दरवाजा उनके लिए नहीं खुल सका। यहां तक कि समाचार चैनलों को उन्होंने अपराध घटनाओं के प्रस्तुतिकरण के लिए जो आइडिया दिये, उन पर सनसनी, दस्तक, कोड रेड और सावधान इंडिया जैसे लोकप्रिय सीरियल बने, लेकिन इन सीरियलों के वैचारिक जनक को इनमें जगह न मिल सकी। इलेक्ट्रोनिक माध्यमों ने पहले ही लोगों की रीडिंग हैबिट्स खत्म कर दी थीं। बची-खुची कमी सोशल मीडिया ने पूरी कर दी। बड़े-बड़े मीडिया हाउस धड़ाम से नीचे आ गिरे। बहुतों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। दिल्ली प्रेस किसी प्रकार अपने प्रकाशनों को थामे हुए है। सो अपने अंतिम समय तक पुष्कर जी अपनी रचनाधर्मिता को निभा रहे थे। कोविड ने उन्हें भी असमय ही लील लिया। लेखन की जिस विधा में पुष्कर जी थे, वे स्वयं में एक विश्वविद्यालय थे। यह अलग बात है कि स्वार्थों और भ्रष्टाचारों में लिपटी हमारी सरकारें मीडिया को गंभीरता से नहीं लेतीं। यही वजह हैं कि पत्रकारिता के वट वृक्ष गिर जाते हैं और कहीं सरसराहट भी महसूस नहीं होती। अगले ही पल से मीडिया हाउस भी अपनी राह चल देते हैं। भविष्य की हर परिस्थिति और हालात का सामना करने के लिए पत्रकार का परिवार नितांत अकेला रह जाता है। पत्रकारिता का भूतकाल भी यही था, वर्तमान भी यही है और भविष्य में भी बार-बार ऐसा ही होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।)

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