पहलवान भी झुककर ही हाथ मिलाता है

निशिकांत ठाकुर

6 और 9 अगस्त, 1945 को अमेरिका द्वारा जापान पर परमाणु बम गिराने के बाद हिरोशिमा और नागाशाकी शहरों का तापमान बढ़कर 4000 सेंटीग्रेड हो गया था। इसका परिणाम यह हुआ कि शहर उबलने लगा और बड़ी-बड़ी इमारतों में आग लग गई, समुद्र का पानी खौलने लगा। जिसे नहीं मालूम था कि ऐसा क्यों हो गया, इतनी गर्मी किस कारण से बढ़ गई, उन्होंने जान बचाने के लिए समुद्र में छलांग लगा दी, लेकिन जिस उम्मीद से अपनी जान बचाने के लिए उन्होंने छलांग लगाई थी, वह उम्मीद पूरी नहीं हुई, बल्कि वे भी समुद्र में समा गए। उनके शरीर की खाल और मांस गल गए। हड्डी का ढांचा भी कुछ ही बरामद हुआ, शेष समुद्र में विलीन हो गया। यदि कोई इसकी सत्यता परखना चाहे तो हिरोशिमा के वार म्यूजियम में इस सच से रूबरू हो सकता है। इसे साकार देखने के बाद युद्ध के नाम से विरक्ति होना सामान्य बात होगी। इसलिए मैं बार-बार इस बात के पक्ष में हूं कि किसी भी प्रकार का युद्ध हितकारी नहीं होता। इसमें नुकसान ही नुकसान होता है। लाभ की उम्मीद भी बेमानी होती है।

याद रखने की बात यह है कि जिस प्रकार विश्व के कई देशों ने इस प्रकार के मारक हथियारों का निर्माण अपने यहां कर लिया है, उसका लाभ किसी को मिलने वाला नहीं है, बल्कि उससे विश्व का कितना नुकसान होने वाला है इसका उदाहरण हिरोशिमा और नागाशाकी है। जापान में हिरोशिमा स्थित वार म्यूजियम देखने गया तो उस दृश्य को देखकर मुझे चक्कर-सा आने लगा। कुछ समझ में नहीं आया कि युद्ध का इतना घातक परिणाम होते हुए भी हम या दुनियां के राजनीतिज्ञ युद्ध में अपने देश को क्यों झोंकते हैं? सच तो यह है राजनीतिज्ञ आमजन के दर्द को नहीं समझ पाते और अपनी विस्तारवादी आकांक्षाओं के कारण आमजन को युद्ध की आग में झोंकने के लिए मजबूर हो जाते हैं। क्या युद्ध को टाला नहीं जा सकता? क्या विश्व गांधी की अहिंसा वाली नीति को अपना नहीं सकता? ऐसा लगता है कि महात्मा गांधी की इस अहिंसावादी नीति का प्रचार-प्रसार ही भारतवर्ष द्वारा नहीं किया गया।

जब प्रचार का कहीं कोई महत्व नहीं था, कोई साधन नहीं था, उस काल में भी भगवान बुद्ध के उपदेशों को विश्व भर में प्रचारित किया गया और विश्व के कई देशों ने उनके उपदेशों को अपनाकर अपने को गौरवान्वित किया है। वे आज भी उनके उपदेशों के अनुसार अपने देश में रहते हैं आज उनमें से कई देश विश्व के विकसित देशों में गिने जाते हैं। क्या हम महात्मा गांधी के उन्हीं विचारों को अपनाकर एक स्थापित नायक का दर्जा उन्हें नहीं दे सकते! मुझे इस बीच महात्मा गांधी पर लिखित कई पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिला। सभी विद्वतजनों ने गांधी पर बहुत कुछ लिखा है, लेकिन जितना कुछ मैंने पढ़ा और मनन किया, उनमें विशेष लेखकों ने उनके गुणों को कम और उनकी कमी को अधिक से अधिक उजागर करने का जाने-अनजाने प्रयास किया है। वैसे बापू खुद कहा करते थे मैं पारदर्शी हूं और जो हूं, वैसा कहने और लिखने में कोई आपत्ति मुझे नहीं है। लेकिन, दुख तब होता है जब हम अपने महापुरुषों का चरित्र हरण केवल इसलिए करते हैं, क्योंकि उससे उनका नाम होगा। उनकी तथाकथित प्रगतिशील लेखनी के कारण हमारे पूर्वज का अपमान तो होता ही है, पर लेखक ऐतिहासिक हो जाएगा, उसका नाम प्रबुद्ध इतिहासकार के रूप में दर्ज हो जाएगा, उन्हें लोग एक प्रगतिशील आलोचक के रूप में जानेंगे, यह सोच प्रमुख हो जाती है।

अमेरिका और चीन आज इसलिए ही तो इठला रहा है कि दोनों के पास अपार मारक क्षमता वाले हथियार हैं। अमेरिका ने जापान पर बम वर्षा कर विश्व के समक्ष सबसे शक्तिशाली देश के रूप में अपने को स्थापित कर लिया था। आज उसी का परिणाम है कि उसके छाते के नीचे सभी आना चाहते हैं और भारत तो पूरी तरह आ ही गया है। ऐसा लगता है कि विश्व आज तीसरे विश्व युद्ध की दहलीज पर है जो कभी भी छिड़ सकता है। फिर उसके बाद विश्व में कितने लोग बचेंगे, यह बताने की जरूरत नहीं है।

कुछ समय पहले मैंने अपने लेख में लिखा था कि हमारा देश विश्व शांति का संवाहक है तो इसपर प्रतिक्रिया यह आई थी कि युद्ध के क्यों नहीं! शक्तिशाली होने की बात हम क्यों नहीं करते? उसी प्रतिक्रिया पर अपनी भावनाओं को प्रबुद्ध पाठकों के समक्ष रखना चाहता हूं। महात्मा गांधी के निकटतम कई सहयोगी थे। उनमें पं. जवाहर लाल नेहरू, सरदार बल्लभ भाई पटेल, सुभाष चंद्र बोस, जय प्रकाश नारायण, आचार्य कृपलानी, आजाद, राजेन्द्र प्रसाद और कई अन्य। सबके विचार महात्मा गांधी सुनते थे और सबको अपनी प्रतिक्रिया दिया करते थे। उनके सभी सहयोगी श्रेष्ठ कोटि के राजनीतिज्ञ थे, लेकिन उनका अपना कोई निजी स्वार्थ नहीं था और वे सारे देशहित के लिए अंग्रेज की गुलामी से भारत को आजाद कराना चाहते थे। गांधीजी अहिंसक रूप से अंग्रेजों से आजादी पाना चाहते थे, वहीं सुभाष चंद्र बोस उग्र थे। उनका कहना था कि 38 करोड़ भारतीयों पर केवल एक लाख अंग्रेज राज करे, ऐसा नहीं हो सकता। हम अंग्रेजों को भारत से भगाएंगे। उनका यह भी कहना था कि ब्रिटिश सम्राज्य के सहस्त्र खंड होने चाहिए, केवल तभी एशिया और अफ्रीका के गरीब देश मुक्ति की सांस ले पाएंगे। सभ्यता और मानवता की डींगे हांकने वाले चर्चिल सहित सभी ब्रिटिश धुरंधरों को क्या अधिकार है कि वह हमें गुलामी के कोल्हू में पेरे? हमारे देश की जनता आजादी के निमित्त संघर्ष के लिए आतुर है, परंतु आकाश के आंगन में उन्मुक्त विहार करने वाले पक्षी भी हमें छेड़ते हैं। पूछते हैं, तुम लड़ते क्यों नहीं? सुभाष चंद्र बोस की इस ज्वाला को बार-बार गांधीजी शांत करते रहे । बार-बार समझाने पर भी जब नहीं माने तो स्वयं गांधीजी को अपने हाथ से लिखकर अत्यंत दुखी और आर्त मन से उन्हें तीन वर्ष के लिए कांग्रेस से निलंबित करना पड़ा और फिर समझाया कि युद्ध किसी समस्या का निदान नहीं है, इसलिए संयम बरतें।

लेकिन, सुभाष चंद्र बोस कहां रुकने वाले थे। जर्मनी, इटली और जापान से किस प्रकार सहयोग मांगा, फिर उन्होंने आजाद हिंद फौज की स्थापना की और टोक्यो के एक सर्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए कहा था- देश बांधवो, सत्ता के मद में उन्मुक्त बंदीगृह की दीवारें धराशाई होंगी, गर्व की मीनारें ढह जाएगी। छोटे-बड़े सभी स्वर्ण कण चुनेंगे। टोकयो से सिंगापुर जाते समय विमानतल पर यूरोपीय पत्रकारों ने उनसे पूछा कि कल के हिंदुस्तान में आप किस प्रकार की शासन व्यवस्था पसंद करेंगे – लोकतंत्र अथवा तानाशाही ? नेताजी ने कहा अनुशाशनबद्ध लोकतंत्र । लेकिन, उसका परिणाम क्या हुआ, इसे बताने की जरूरत नहीं है। वहीं, महात्मा गांधी ने अहिंसा के पुजारी बनकर गुलाम भारत को अंग्रेजों की वर्षों पुरानी दासता से मुक्त कराया।

मेरा यह विचार आज इसलिए की चीन अपनी पुरानी आदत के अनुसार भारत को डराने के लिए तरह-तरह के प्रयास में लगा हुआ है और हम अपनी रक्षा के लिए आत्मसंयम बरत रहे हैं। कभी वह पाकिस्तान के रास्ते तो कभी नेपाल को बहला-फुसलाकर हमारी शांति को भंग करना चाहता है। ठीक है उसकी विस्तारवादी नीति ऐसी है , लेकिन हम अंत तक उसे यह समझने का प्रयास करते रहेंगे कि युद्ध कोई सार्थक प्रयास नहीं होता। हम कमजोर नहीं हैं यह हमें मालूम है, लेकिन पहलवान जब अखाड़े में जाता है तो वह झुककर ही हाथ मिलता है फिर जिसका दांव जितना सक्षम होता है, जीत उसी की होती है। चूंकि हम अहिंसा के पूजारी मोहनदास करमचंद गांधी के देश के हैं, इसलिए अपने विरोधियों को शांति के लिए अंत तक तो समझना ही पड़ेगा। यदि फिर भी उसकी समझ में हमारी शांति का प्रस्ताव नहीं आता है तो हमारी संस्कृति में यह भी है कि सठे शाठये समाचरेत। वह निर्णय अंतिम होगा और विश्वास मानिए… हमारी जीत अवश्य होगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *