क्यों शर्मसार है भारतीय टेनिस? पिज़्ज़ा-बर्गर वाले नहीं, झोपड़ पट्टी वाले खिलाड़ी चाहिए

राजेंद्र सजवान

ऑस्ट्रेलियन ओपन में सर्बिया के नोवाक जोकोविच की जीत से यह साबित हो गया है कि नोवाक अब वरिष्ठ दिग्गजों रोजर फेडरर और राफ़ेल नडाल जैसा करिश्मा करने के लिए तैयार हैं, जबकि महिला वर्ग में जापान की नाओमी ओसाका ने सेरेना विल्यम्स का साम्राज्य ध्वस्त कर नई पीढ़ी के दबदबे का संकेत दे दिया है।

लेकिन भारतीय टेनिस कहाँ है और भारतीय खिलाड़ियों का प्रदर्शन कैसा रहा? यह बताते हुए आम भारतीय टेनिस प्रेमी का सिर शर्म से झुक जाता है। भारत के रोहन बोप्पना, सुमित नागल, दिविज शरण और अंकिता रैना ऐसा कुछ नहीं कर पाए जिस पर गर्व किया जा सके। वैसे भी उनसे किसी करिश्मे की उम्मीद कदापि नहीं थी। यही क्या कम है कि खेलने का सौभाग्य मिला गया!

इसमें दो राय नहीं कि अग्रणी देशों की तुलना में भारतीय टेनिस बहुत पीछे रह गई है। जहां एक ओर छोटे और कम आबादी वाले देश भी दमदार खिलाड़ियों की फ़ौजें तैयार कर रहे हैं तो हमारी टेनिस जहाँ खड़ी थी वहाँ से बहुत पीछे रह गई है। या यूँ भी कह सकते हैं कि हमारे खिलाड़ी उल्टी रेस दौड़ रहे हैं।

रामनाथन कृष्णन,विजय -आनंद अमृतराज,उनके बाद रमेश कृष्णन ने जो कुछ सम्मान बटोरा उसमें लिएंडर पेस और महेश भूपति जैसे खिलाड़ियों ने इज़ाफा किया। सानिया मिर्ज़ा और सोमदेव वर्मन भी कुछ एक अवसरों पर प्रभावी रहे।

कृष्णन पिता पुत्र और विजय अमृत राज ने दुनिया के चार ग्रैंड स्लैम आयोजनों के एकल मुकाबलों में जो छाप छोड़ी उसे फिर कोई भारतीय खिलाड़ी आगे नहीं बढ़ा पाया। लिएंडर पेस का ओलंपिक कांस्य और भूपति के साथ उनका युगल प्रदर्शन यादगार रहे।

लिएंडर जीवट के खिलाड़ी रहे और उन्होने डेविस कप मुकाबलों में कई बड़े चैपियनों को भी परास्त किया लेकिन रामनाथन कृष्णन और विजय अमृतराज ने जो कीर्तिमान बनाए उन तक फिर कोई भारतीय खिलाड़ी नहीं पहुंच पाया है और आगे भी कोई उम्मीद नजर नहीं आती।

आख़िर क्यों भारतीय टेनिस अंतरराष्ट्रीय मंच पर उपहास का पात्र बन गई है और क्यों हम कोई ग्रैंड स्लैम खिताब विजेता पैदा नहीं कर पा रहे?

असंतुष्टों की मानें तो परिवारवाद के चलते ऐसा नहीं हो पाया। एक वर्ग यहभी कहता है कि भारतीय टेनिस की सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि एक पूर्व अध्यक्ष ने सबसे बड़े और प्रमुख स्टेडियम का नामकरण अपने नाम पर करवाया।

चर्चा यह भी है कि टेनिस धनाढ्यों का खेल है और ज़्यादातर ब्रेड बटर और पिज़्ज़ा-बर्गर खाने वाले बच्चे टेनिस से जुड़े हैं इसलिए अच्छे परिणाम की उम्मीद निरर्थक है, ऐसा खुद टेनिस से जुड़े अधिकारी और कोच मानते हैं। उनकी राय में जब तक झोपड़ पट्टी और ग़रीब घरों के बच्चे इस खेल से नहीं जुड़ते भारतीय टेनिस का भला नहीं होने वाला।

हालाँकि यह तर्क कुछ अटपटा सा लगता है और शायद ही कोई विश्वास करे लेकिन भारतीय खेलों पर सरसरी नज़र डालें तो तमाम खेलों के चैम्पियन ग़रीबी और ग्रामीण पृष्ठभूमि से निकल कर आए हैं।

अभिनव बिंद्रा अपवाद हो सकते हैं लेकिन सुशील कुमार, योगेश्वर, मैरिकाम, विजेंद्र, मिल्खा सिंह, पीटी उषा, सतपाल, करतार, हवा सिंह और मेजर ध्यानचन्द सहित तमाम हॉकी खिलाड़ी, एथलीट और अन्य खिलाड़ी ग़रीबी से निकल कर महान बने।

खेल एक्सपर्ट्स और मनोवैज्ञानिकों की मानें तो टेनिस जब तक रफ टफ जीवन जीने वाले बच्चों के लिए संभव नहीं हो पाता, भारत को वर्षों तक कोई चैम्पियन नहीं मिल सकता।

चूँकि टेनिस बहुत महँगा खेल है, ऊपर से देश में इस खेल का कारोबार करने वालों की नीयत में हमेशा से खोट रहा है, इसलिए किसी ग्रैंड स्लैम चैंपियन की उम्मीद नहीं की जा सकती। टेनिस संघ को घर की खेती बनाने वाले अमीरों से आज़ादी दिलाए बिना इस खेल का भला होता दिखाई नहीं पड़ता।

यह ना भूलें कि क्रिकेट को कभी राजे महाराजाओं और पैसे वालों का खेल कहा जाता था। आज क्रिकेट के दम पर ग़रीब और निम्न श्रेणी के बच्चे करोड़ों के मालिक बन रहे हैं। तो फिर भारतीय टेनिस में बदलाव क्यों नहीं हो सकता?

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं.)

 

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