समाज से कभी निकल पाएगा जातिवाद का जहर?

(तस्वीर को सिर्फ प्रतीक के लिए इस्तेमाल किया गया है )

प्रवीण कुमार सिंह

जातिवाद का जहर भारत की रग-रग में किस कदर घुला हुआ है, इसकी ताजा मिसाल एक बार फिर उत्तरप्रदेश से ही सामने आई है, जहां तीन दलित बहनों पर तेजाब का हमला हुआ है। बड़ी बहन 17 बरस की है और बुरी तरह झुलस गई है, जबकि छोटी बहनें 12 और 8 बरस की हैं। इन बहनों पर तेजाब क्यों फेंका, किसने फेंका, ये सब अभी जांच का विषय है। लेकिन दलितों पर लगातार होने वाले हमलों में एक शर्मनाक घटना और दर्ज हो गई है।
दरअसल जब भी कोई दलित किसी भी तरह के उत्पीड़न का शिकार होता है, तो वह भेदभाव, वह अत्याचार, वह हमला उसके साथ-साथ हमारे संविधान पर भी होता है। बाबा साहब अंबेडकर के साथ-साथ संविधान सभा के सभी लोगों ने बहुत सोच-विचार कर भारत को इस दलदल से बाहर निकलने के रास्ते तैयार किए थे, लेकिन हम भारत के लोग अब तक उस काबिल ही नहीं बन पाए हैं कि उस कीचड़ से निकल आएं। बल्कि जाति की गंदगी गर्व के साथ अपने माथे पर चिपका कर हम चलते हैं। इसमें साथ देते हैं, राजनैतिक दल, जो चुनाव जीतने की खातिर जातिवाद को जिंदा रखना चाहते हैं, इसमें साथ देते हैं प्रशासन और व्यवस्था में उच्चपदों पर बैठे लोग जिनके लिए अपने कर्तव्य से अधिक जरूरी होती है, उनकी जाति या पीड़ित की जाति।
उत्तर प्रदेश के गैंगेस्टर विकास दुबे प्रकरण ने राजनीति, प्रशासन और अपराधियों के गठजोड़ की भारत की उस ऐतिहासिक समस्या को जगजाहिर कर दिया है, जो जानते सब हैं और जो पहले भी सामने आती रही है पर जिसे तत्काल किसी न किसी तरीके से दबा-छिपा दिया जाता है। इस बार भी जितनी तेजी से घटनाक्रम बदले हैं और जैसे आनन-फानन में इस पूरे मामले को अंत परिणति तक पहुंचाने का प्रयास चल रहा है उसे देख कर ऐसा लग रहा है कि बहुत जल्दी ही यह घटना भी इतिहास बन जाएगी। लोग इसे भी वैसे ही भूल जाएंगे, जैसे पहले के गैंगवार, उनमें पुलिस की मिलीभगत, प्रशासन की लापरवाही और राजनीति की संलिप्तता को भुला दिया गया।
उत्तर प्रदेश में जो हुआ है उसके बीज बिहार और उत्तर प्रदेश सहित अनेक राज्यों की राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों में छिपे हैं। इन राज्यों में अपराधी किसी तरह से राज्य की ‘सोशल पोलिटिकल पॉवर स्ट्रक्चर’ का अनिवार्य हिस्सा बन जाते हैं। अपनी जातियों के कारण उनकी एक खास सामाजिक पहचान होती है, जिससे उनकी राजनीतिक पहचान बनती है और बतौर गैंगेस्टर उनका कद घटता-बढ़ता है। सामाजिक रूप से मजबूत और राजनीतिक रूप से सत्ता संभालने वाली जातियों के अपराधियों का फलना-फूलना एक स्थापित नियम है। बिहार में लालू प्रसाद के समय क्या हुआ या उत्तर प्रदेश में मुलायम-अखिलेश के राज में क्या हुआ और नीतीश कुमार के राज में बिहार में क्या हुआ या मायावती और भाजपा के राज में उत्तर प्रदेश में क्या हुआ यह जानने-समझने के लिए बहुत बड़ी बौद्धिकता की जरूरत नहीं है। जाट मुख्यमंत्री होने पर क्या होता है और ठाकुर मुख्यमंत्री बनता है तो क्या होता है यह हरियाणा से लेकर राजस्थान तक की राजनीति में खूब देखा गया है।
ऐसा इसलिए है क्योंकि किसी बड़े बौद्धिक, सामाजिक या राजनीतिक आईकॉन की अनुपस्थिति में जातियां अब अपनी पहचान अधिकारियों और विधायकों-सांसदों के साथ साथ गुंडों और अपराधियों से भी जोड़ने लगी हैं। बिहार के पुलिस प्रमुख गुप्तेश्वर पांडेय ने पिछले दिनों बहुत कायदे से इस बात को एक वीडियो के जरिए बताया था। उन्होंने कहा था लोग पहले अपराधियों को अपनी जाति का नेता बनाते हैं, उनसे अपनी पहचान जोड़ते हैं, उनकी जय-जयकार करते हैं और बाद में पुलिस से उम्मीद करते हैं कि वह उनके खिलाफ कार्रवाई करे। यह भारतीय समाज में मौजूदा समय की ऐसी हकीकत है, जो विकास दुबे प्रकरण में बहुत अश्लील तरीके से जाहिर हुई है। इस पूरे घटनाक्रम में जिस तरह जातीय ध्रुवीकरण की सच्ची-झूठी खबरें मीडिया और सोशल मीडिया में वायरल हुईं, उनसे नेता, अपराधी और अधिकारियों के गठजोड़ की फॉल्ट लाइन स्पष्ट दिखी।
रोहित वेमुला को इसी जातिप्रथा में सनी व्यवस्था ने अपना शिकार बनाया। उसके बाद डॉ.पायल तडवी जातिव्यवस्था का निवाला बनी। हाल ही में जबलपुर में छत्तीसगढ़ से डॉक्टरी की उच्चशिक्षा लेने गए भागवत देवांगन इसका शिकार बने। बताया जा रहा है कि निचली जाति का होने के कारण उनके सवर्ण सीनियर उन्हें प्रताड़ित-अपमानित करते थे, और इस वजह से भागवत देवांगन बहुत परेशान रहते थे। पुलिस के मुताबिक उन्होंने आत्महत्या की है, लेकिन घरवालों को इसमें संशय है। हाल ही में तमिलनाडु के कुड्डालोर जिले के थेरकू थित्ताई गांव के ग्राम पंचायत दफ्तर में हुई बैठक की तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई, जिसमें महिला ग्राम प्रधान राजेश्वरी सरवणकुमार जमीन पर बैठी हैं, जबकि उनके अधीनस्थ लोग, जो ऊंची जाति के हैं, वो कुर्सियों पर बैठे हैं।
राजेश्वरी सरवणकुमार ने बताया कि पिछले साल जब से उन्हें प्रधान चुना गया है तब से ही उन्हें और दलित समुदाय से आने वाली एक और महिला वॉर्ड सदस्य को ग्राम परिषद की बैठकों में कुर्सियां नहीं दी जाती हैं। उन्हें  गणतंत्र दिवस के मौके पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने से रोक दिया गया था।  तमिलनाडु में दलित भेदभाव की ऐसी घटनाएं काफी होती हैं, लेकिन उन पर कोई चर्चा नहीं होती। इस बार बात फैल गई, तो अब कानूनी कार्रवाई की जा रही है। लेकिन क्या उससे हालात बदलेंगे, ये बड़ा सवाल है।
दक्षिण प्रांतों के जैसा ही हाल उत्तरभारत और शेष राज्यों का है। खैरलांजी से लेकर ऊना और भीमा कोरेगांव तक तमाम घटनाएं सभ्य कहलाने वाले समाज के मुंह पर करारा तमाचा हैं, लेकिन हम शायद इतने बेगैरत हो चुके हैं, कि किसी भी किस्म के भेदभाव या अत्याचार से हमें कोई फर्क तब तक नहीं पड़ता, जब तक उसका कोई असर हम पर नहीं होता। प्रधानमंत्री के कहने पर हम कोरोना भगाने के लिए ताली-थाली बजाने या दिए जलाने तुरंत तैयार हो जाते हैं।
लेकिन कमजोरों पर सत्ता और कुर्सी की ताकत के बूते हो रहे अत्याचार को रोकने के लिए हम एकजुट नहीं हो सकते। एक अभिनेता की मौत का शोक छह महीने तक मनाया जाता है, लेकिन एक गरीब, दलित लड़की मौत के पहले बयान देती है कि उसके साथ गैंगरेप हुआ, तब भी सवाल उठाए जाते हैं कि क्या वाकई ऐसा हुआ। क्या यह ऑनर किलिंग का मामला है। क्या लड़की के परिजनों ने पैसे ऐंठने के लिए ये सब किया। उस लड़की के शव को आधी रात को परिजनों के बिना जला दिया जाता है और उस काम को सही साबित करने की चेष्टा सवर्ण मानसिकता का प्रशासन करता है। 21वीं सदी के भारत में दलितों के साथ इस तरह का व्यवहार देखकर लगता है कि आर्टिकल 15 जैसी कितनी फिल्में बनाकर सच्चाई का आईना समाज को दिखाने की कोशिश की जाए, ये समाज जातिवाद के अंधे कुएं में डूबकर ही खुश है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में हाथरस मामले की सुनवाई हुई, तो खबरों के मुताबिक इस दौरान अदालत ने रात में जबरन किए गए अंतिम संस्कार पर सरकार की निंदा की और अधिकारियों से पूछा, ‘अगर लड़की आपके परिवार की होती तो भी क्या आप इसी तरह करते?’  यह सवाल दरअसल समाज के हर उस तबके से किया जाना चाहिए जो हाथरस मामले में जाति का एंगल उठाने पर आपत्ति दर्ज करता है, जो आरक्षण को अपने विकास में बाधक मानता है, जो गर्व से अपनी जाति का ऐलान करता है, ताकि उसकी उच्चता का बोध समाज को हो, जो वैवाहिक विज्ञापनों में जाति का कॉलम जरूर रखवाता है, जो मानवाधिकारों की बात करने को बुद्धिजीवियों का शगल मानता है, जो रंग-रूप-धन-धर्म और जाति के आधार पर इंसान की औकात मापता है। इस सवाल की उपेक्षा का ही नतीजा है कि अनुसूचित जातियों के साथ अपराध के मामलों में साल 2019 में 2018 के मुकाबले 7.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
भारत की न्याय व्यवस्था में दलितों की सुरक्षा के लिए अनुसूचित जाति/ जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 मौजूद है। इसके तहत एससी और एसटी वर्ग के सदस्यों के खिलाफ किए गए अपराधों का निपटारा किया जाता है। लेकिन इस कानून का लाभ भी पूरी तरह से तभी मिल सकेगा, जब दलितों को बराबरी का दर्जा देने की नीयत हो, जब राजनीति, सत्ता और प्रशासन से दलित-विरोधी मानसिकता खत्म हो, या दलितों को महज वोट की खातिर लुभाने की परंपरा खत्म हो। दलितों के घर एक दिन भोजन करने या रात गुजारने से दलित उत्पीड़न बंद नहीं होगा, ये बात राजनैतिक दल तो बहुत अच्छे से जानते हैं, वक्त आ गया है कि दलित भी इस तरह के झांसे में आने से बचे और संविधान में दिए अपने हक का इस्तेमाल करना सीखें।

(लेखक पत्रकार और विश्लेषक हैं। चिरौरी न्यूज़ का लेखक के विचारों से सहमति आवश्यक नहीं है।)

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