POCSO मामले में अद्वितीय फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने नहीं दी सजा, ‘व्यवस्था ने पीड़िता को कई स्तरों पर असफल किया’
चिरौरी न्यूज
नई दिल्ली, 23 मई 2025: सुप्रीम कोर्ट ने एक अभूतपूर्व फैसले में POCSO एक्ट के तहत दोषी ठहराए गए एक युवक को सजा न देने का निर्णय लिया है। जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस उज्ज्वल भुइयां की पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेष अधिकारों का प्रयोग करते हुए यह फैसला सुनाया।
यह मामला उस समय सामने आया जब 24 वर्षीय युवक को एक नाबालिग लड़की से संबंध बनाने के आरोप में दोषी ठहराया गया था। बाद में जब लड़की बालिग हुई, तो दोनों ने शादी कर ली और अब एक बच्चे के साथ साथ रह रहे हैं।
“कानूनी अपराध नहीं, बल्कि उसके बाद की प्रक्रिया ने पीड़िता को आघात पहुंचाया”
कोर्ट ने कहा, “यह कानून की नजर में अपराध था, लेकिन पीड़िता ने इसे अपराध के रूप में नहीं देखा। उसे जो पीड़ा हुई, वह कानूनी प्रक्रिया, पुलिस और बार-बार आरोपी को सजा से बचाने की लड़ाई के कारण हुई। समाज ने उसे जज किया, न्याय प्रणाली ने उसे निराश किया, और परिवार ने उसे छोड़ दिया।”
पीड़िता की वर्तमान स्थिति और मानसिक स्वास्थ्य का आकलन करने के लिए मनोवैज्ञानिकों और सामाजिक वैज्ञानिकों की एक विशेषज्ञ समिति गठित की गई थी। समिति की रिपोर्ट ने फैसले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
कलकत्ता हाईकोर्ट की टिप्पणियों पर भी सुप्रीम कोर्ट ने ली थी संज्ञान
यह मामला पहले कलकत्ता हाईकोर्ट गया था, जहां 2023 में युवक की 20 साल की सजा को पलटते हुए हाईकोर्ट ने आपत्तिजनक टिप्पणियां की थीं। कोर्ट ने कहा था कि किशोर लड़कियों को “यौन इच्छाओं पर नियंत्रण” रखना चाहिए, और समाज उन्हें “हारने वाली” के रूप में देखता है। इस पर तीव्र आलोचना हुई, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया।
सुप्रीम कोर्ट ने 20 अगस्त 2024 को हाईकोर्ट का फैसला रद्द कर युवक की दोषसिद्धि बहाल कर दी, लेकिन तत्काल सजा नहीं सुनाई। इसके बजाय कोर्ट ने पीड़िता की स्थिति की जांच के लिए तथ्यात्मक रिपोर्ट तैयार कराने का आदेश दिया।
विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट और कोर्ट की टिप्पणी
पश्चिम बंगाल सरकार को निर्देश दिया गया था कि NIMHANS या TISS जैसे संस्थानों के विशेषज्ञों और एक बाल कल्याण अधिकारी की सहायता से समिति का गठन करे। रिपोर्ट में पाया गया कि पीड़िता आरोपी से भावनात्मक रूप से जुड़ी हुई है और अपने छोटे परिवार को लेकर बेहद संवेदनशील है।
रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट को सौंपी गई। 3 अप्रैल 2025 को, रिपोर्ट और पीड़िता से बातचीत के बाद कोर्ट ने देखा कि उसे वित्तीय सहायता की आवश्यकता है। उसे 10वीं की परीक्षा पूरी करने के बाद व्यावसायिक प्रशिक्षण या पार्ट-टाइम रोजगार की सलाह दी गई।
“यह मामला सभी के लिए एक आंख खोलने वाला है” — सुप्रीम कोर्ट
कोर्ट ने कहा, “उसे पहले जानकारीपूर्ण विकल्प लेने का मौका नहीं मिला। यह मामला दिखाता है कि किस प्रकार हमारी प्रणाली ने उसे कई स्तरों पर असफल किया।”
इस फैसले के साथ सुप्रीम कोर्ट ने न केवल न्याय की अवधारणा को मानवीय दृष्टिकोण से देखा, बल्कि अनुच्छेद 142 के तहत “पूर्ण न्याय” की अवधारणा को भी एक नए संदर्भ में परिभाषित किया है।