डॉलर करो दरकिनार: द्विपक्षीय मुद्रा व्यापार से भारत बनेगा वैश्विक अर्थव्यवस्था का नेतृत्वकर्ता

Put aside the dollar: India will become the leader of the global economy through bilateral currency tradeरीना एन सिंह, अधिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय

अब समय आ गया है कि भारत वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में एक आश्रित उपभोक्ता के बजाय एक सशक्त निर्णायक की भूमिका निभाए। डॉलर-आधारित व्यापार प्रणाली में भारत की बढ़ती भागीदारी न केवल हमारी मुद्रा पर दबाव बनाती है, बल्कि हमारे आर्थिक निर्णयों की स्वतंत्रता को भी सीमित करती है। जबकि रुपया-रूबल व्यापार मॉडल ने दिखा दिया है कि रणनीतिक सोच और राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ भारत सस्ता तेल, अनुकूल व्यापार संतुलन और डॉलर की सीमाओं से मुक्त हो सकता है।

यही मॉडल यदि ईरान, चीन, ब्राज़ील, सऊदी अरब, यूएई व अफ्रीकी देशों जैसे साझेदारों के साथ लागू किया जाए, तो यह केवल भारत के लिए ही नहीं, बल्कि एक बहुध्रुवीय वैश्विक आर्थिक व्यवस्था के निर्माण के लिए भी क्रांतिकारी साबित हो सकता है।वर्ष 2024-25 में भारत का व्यापार घाटा 240 अरब डॉलर और विदेशी कर्ज 663 अरब डॉलर से अधिक हो जाना इस बात का स्पष्ट संकेत है कि हमारी मौद्रिक नीति को पुनःसंरचित करने की आवश्यकता है। आयात महंगा हो रहा है, महंगाई बढ़ रही है, और रुपये पर निरंतर दबाव बना हुआ है।

इन सबका मूल कारण डॉलर की बढ़ती मांग और वैश्विक व्यापार में हमारी मुद्रा की भूमिका का नगण्य होना है। यदि भारत अपने कुल व्यापार का केवल 40% भी रुपये या द्विपक्षीय मुद्रा स्वैप में करता है, तो विदेशी मुद्रा भंडार में स्थिरता, रुपये की मजबूती और घरेलू उत्पादों की वैश्विक प्रतिस्पर्धा में अप्रत्याशित वृद्धि हो सकती है।भारत के पास न केवल 1.4 अरब उपभोक्ताओं वाला विशाल बाज़ार है, बल्कि इसके पास वह नैतिक और आर्थिक शक्ति भी है, जिससे वह व्यापार की शर्तें तय कर सकता है। आवश्यकता केवल इस आत्मविश्वास को नीति में बदलने की है। “मेक इन इंडिया”, “ODOP” और “लोकल टू ग्लोबल” जैसी पहलों को यदि हम अंतरराष्ट्रीय मुद्रा रणनीति से जोड़ें, तो भारतीय उत्पाद वैश्विक मंच पर रुपये की मान्यता के वाहक बन सकते हैं। भारत को अपनी मुद्रा में व्यापार करने के लिए विशिष्ट व्यापार ब्लॉकों का निर्माण करना चाहिए, जिससे विदेशी कंपनियाँ भारतीय बाजार में प्रवेश के लिए रुपये को स्वीकारने के लिए बाध्य हो जाएँ।अमेरिका द्वारा भारत पर टैरिफ दबाव डालना इस बात का प्रमाण है कि विकसित राष्ट्र केवल तभी झुकते हैं, जब सामने वाला देश आत्मनिर्भर और नीतिगत रूप से आक्रामक हो।

भारत को न केवल अमेरिकी टैरिफ धमकियों का कूटनीतिक उत्तर देना चाहिए, बल्कि आवश्यकतानुसार अमेरिकी उत्पादों पर जवाबी प्रतिबंध की नीति भी तैयार रखनी चाहिए। परंतु भारत की सबसे बड़ी कमजोरी उसकी तकनीकी परनिर्भरता है—गूगल, माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियाँ हमारे डिजिटल आधारभूत ढांचे को नियंत्रित करती हैं। इसका मूल कारण भारत की कमजोर, अनुसंधानविहीन और औपनिवेशिक मानसिकता वाली शिक्षा प्रणाली है।आर्थिक स्वतंत्रता का दूसरा आंदोलन तभी सफल होगा जब भारत नवाचार और अनुसंधान को प्राथमिकता देगा। नीति आयोग, आरबीआई और विदेश व्यापार मंत्रालय को मिलकर वैकल्पिक मुद्रा व्यापार रणनीति पर ठोस और दीर्घकालिक रोडमैप बनाना चाहिए। “करेंसी स्वैप रिसर्च इंस्टिट्यूट” की स्थापना एक अत्यंत आवश्यक कदम है, जो BRICS, SCO, अफ्रीकी संघ और ASEAN देशों के साथ मुद्रा-आधारित व्यापार पर डेटा विश्लेषण, जोखिम प्रबंधन और व्यवहार्यता अध्ययन करे। साथ ही, यह संस्थान घरेलू व विदेशी बैंकों के बीच तकनीकी इंटरफेस विकसित करे जिससे मौद्रिक लेन-देन सरल, सुरक्षित और पारदर्शी हो सके।भारत को डिजिटल रुपया, ब्लॉकचेन, और CBDC जैसी तकनीकों को वैश्विक व्यापार का हिस्सा बनाना होगा। यह केवल तकनीकी नवाचार नहीं, बल्कि सामरिक आर्थिक स्वतंत्रता का माध्यम है।

यदि भारत CBDC को अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए एक प्रभावशाली विकल्प के रूप में प्रस्तुत करता है, तो यह रुपया को वैश्विक मुद्रा बनाने की दिशा में बड़ा कदम होगा। इसके लिए नियामकीय ढाँचे, तकनीकी सुरक्षा और वैश्विक साझेदारी—तीनों क्षेत्रों में तेज़ी से कार्य करना होगा।प्रधानमंत्री की अफ्रीकी और छोटे देशों की यात्राएँ केवल कूटनीति नहीं, बल्कि आर्थिक रणनीति हैं। इन यात्राओं से भारत की वैश्विक साख, आर्थिक प्रभाव क्षेत्र और रुपये में व्यापार की संभावनाएँ बढ़ती हैं। भारत को “Global South” के देशों के लिए एक आर्थिक नेतृत्वकर्ता के रूप में उभरना चाहिए, जो डॉलर-आधारित शोषणकारी व्यवस्था के विरुद्ध एक न्यायपूर्ण और सहभागितापूर्ण वैश्विक आर्थिक ढाँचा प्रस्तुत कर सके।

अंततः, यदि भारत रुपया-आधारित व्यापार, तकनीकी आत्मनिर्भरता और वैश्विक मुद्रा नीति में सशक्त भूमिका निभाता है, तो आने वाले दशक में वह उपभोक्ता से नियम निर्माता (rule-maker) में परिवर्तित हो जाएगा। यह केवल आर्थिक परिवर्तन नहीं, बल्कि एक सभ्यतागत पुनर्जागरण होगा जहाँ भारत फिर से वैश्विक मार्गदर्शक बनेगा, और रुपया न केवल एक मुद्रा, बल्कि एक वैकल्पिक वैश्विक व्यवस्था का प्रतीक बन जाएगा।

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