किसानों की आत्महत्या पर आरटीआई से खुला सच: यूपीए की तुलना में एनडीए शासन के दौरान किसान आत्महत्या में 50 प्रतिशत की कमी आई

RTI reveals the truth on farmers' suicide: Farmer suicides decreased by 50 percent during NDA rule compared to UPAचिरौरी न्यूज

नई दिल्ली: ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दशकों से भारत की राजनीति और राष्ट्रभक्ति का प्रतीक रहा है, लेकिन खेतों में हालात कुछ और ही कहानी कहते हैं। पुणे के व्यवसायी प्रफुल शारदा द्वारा दाखिल एक आरटीआई से सामने आया है कि 2004 से 2022 के बीच भारत में 2.58 लाख किसानों ने आत्महत्या की। इसमें यूपीए शासनकाल (2004-2014) में 1,70,505 किसानों ने आत्महत्या की, जबकि एनडीए शासन (2015-2022) में यह संख्या 88,117 रही। हालांकि एनडीए काल में आत्महत्या के मामलों में लगभग 50% की गिरावट दर्ज हुई, लेकिन संख्या अब भी चिंताजनक बनी हुई है।

महाराष्ट्र इस संकट का केंद्र बना रहा, जहां यूपीए काल में 40,852 और एनडीए काल में 31,492 किसानों ने जान दी। इसके बाद कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश जैसे राज्य हैं, जहां हजारों आत्महत्याएं दर्ज की गईं। वहीं बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में एनडीए शासन के दौरान शून्य आत्महत्याएं दर्ज होने का दावा किया गया है, जिसने कृषि नीति और रिपोर्टिंग मानकों में क्षेत्रीय असमानता के सवाल खड़े कर दिए हैं।

प्रफुल सारडा का कहना है कि यह आंकड़े सिर्फ संख्या नहीं, बल्कि एक पूरे तंत्र की विफलता को उजागर करते हैं। किसान आज भी कर्ज, लागत, बाजार और मौसम की मार से जूझ रहे हैं। सरकारें बदलीं, भाषण बदले, मगर किसानों की हालत नहीं बदली। पीएम-किसान, फसल बीमा योजना, सॉयल हेल्थ कार्ड और नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट जैसी योजनाओं के बावजूद किसानों की बड़ी आबादी आज भी इनका लाभ नहीं उठा पा रही है।

आत्महत्याओं के कारण वही पुराने हैं: कर्ज का बोझ, न्यूनतम समर्थन मूल्य की अनिश्चितता, मौसम की मार, फसल बर्बादी और तकनीकी संसाधनों की कमी। सरकार ने आरटीआई के जवाब में कई योजनाओं का जिक्र किया, लेकिन ज़मीनी हकीकत इससे बिल्कुल अलग है। ये योजनाएं कागजों पर भले ही सशक्त दिखें, मगर इनका लाभ ज़रूरतमंद किसानों तक नहीं पहुंच रहा।

विशेषज्ञों ने चेताया है कि देश एक “कृषि आपातकाल” की ओर बढ़ रहा है। यह केवल नीतियों की विफलता नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम के चरमराने का संकेत है। महाराष्ट्र सरकार को अब लाडका भाऊ और लाडकी बहिनी जैसी लोकलुभावन योजनाओं से आगे बढ़कर ‘किसान बचाओ’ जैसी ठोस पहल करनी होगी, जो वास्तविक रूप से किसानों को राहत पहुंचाए।

अगर सरकार वाकई में ग्रामीण भारत की रीढ़ को मजबूत करना चाहती है, तो उसे घोषणाओं से आगे बढ़कर हर योजना को किसान केंद्रित, पारदर्शी और प्रभावी बनाना होगा। जब तक नीति और कार्यान्वयन के बीच की खाई नहीं पाटी जाती, तब तक यह त्रासदी जारी रहेगी। आरटीआई से सामने आई ये संख्या सिर्फ डेटा नहीं, बल्कि हजारों बिखरी जिंदगियों की चीख है। जब तक किसानों की पीड़ा को ईमानदारी और संवेदनशीलता से नहीं सुना जाएगा, तब तक ‘जय किसान’ सिर्फ एक खोखला नारा बनकर रह जाएगा।

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