कांग्रेस में खुली जंग का संकेत

निशिकांत ठाकुर

बिना कष्ट उठाए सहजता से प्राप्त होने वाली वस्तु का मूल्य समझ में नहीं आता। अभी 23 वरिष्ठ नेताओं ने शांति के बहाने कांग्रेस से खुली जंग का जो संकेत दिया है वह देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल के लिए तो दुर्भाग्यपूर्ण है ही, देश के लिए भी दूरगामी नजरिए से अच्छा नहीं है। ऐसा लगता है जैसे पार्टी के नेताओं ने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारकर सत्तारूढ़ दल को आगे आने के निमंत्रण देने का बीड़ा उठा लिया है। उस पर आनंद शर्मा का यह कहना की हमलोगो से ही पार्टी की पहचान हैं, मैं समझता हूं उनकी यह सोच गलत है और अहंकार भी क्योंकि, मुख्य धारा से कटकर, कुछ अपवादों को छोड़कर, कोई सफल नहीं हुआ और संस्थान से बड़ा कोई नहीं होता। ऐसा इसलिए क्योंकि यदि कांग्रेस डूबती गई तो एक दिन एक दल की सरकार हो जाने पर उसके कार्यकर्ता निरंकुश तो हो ही जाएंगे और निरंकुश होने का अर्थ यहां बताने की जरूरत नहीं है। ऐसा विश्व में कई बार देखा जा चुका है और कुछ देशों में ऐसा हो भी रहा है। तथाकथित बागियों के कई नेताओं ने अपने-अपने बयान दिए हैं और अपनी ही पार्टी की आलोचना भी अधिक की है। जो त्याग दिया उसकी आलोचना करने की अपेक्षा उसका बखान करना ही उनके लिए अधिक उपयोगी होता है। इस बात को लगभग सारे नेतागण जानते हैं, लेकिन जब किसी का अंत होने वाला होता है तो वह इस यथार्थ को भूल कर सपनों में जीने के आदी हो जाता है। ऐसा ही कांग्रेस के साथ भी होता जा रहा है। वैसे जो नेता बगावत के मूड में हैं उन सबने निश्चित रूप से कुछ न कुछ त्याग किया है। लेकिन, उन्होंने उनके त्याग को नहीं देखा, याद नहीं रखा जिन्होंने आजादी को पाने के लिए वर्षों संघर्ष किया था और जब भारत आजाद हुआ उस काल तक वह या तो जेल में सड़कर मर गए थे या फांसी पर लटका दिए गए थे। इसलिए जिन्होंने पार्टी से बगावत करने का मन बना लिया है, उनके लिए तो सहजता से मिली सत्ता है जिसका सदुपयोग या दुरुपयोग वह करते आ रहे थे।

कांग्रेस की स्थापना ब्रिटिश राज में 28 दिसंबर 1885 को हुई थी। इसके संस्थापकों में से ए ओ ह्यूम (ब्रिटिश सरकार के सेवानिवृत आईसीएस अधिकारी, स्कॉटलैंड के रहने वाले थे) दादा भाई नौरोजी और दिनशा वाचा शामिल थे। भारत की आजादी तक कांग्रेस सबसे बड़ी और प्रमुख संस्था मानी जाती थी, जिसका स्वतंत्रता आंदोलन में केंद्रीय और निर्णायक प्रभाव था। अब विचारणीय प्रश्न यह उठता है कि अंग्रेजों से देश को आजाद कराने के लिए ब्रिटिश सरकार के ही सेवानिवृत अधिकारी की मदद क्यों ली गई? इसके लिए कहा जाता है कि न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानाडे, दादाभाई नौरोजी, फिरोजशाह मेहता, जी सुब्रमण्यम और सुरेंद्र नाथ बनर्जी शुरुआत में ही ब्रिटिश सरकार से उलझना नहीं चाहते थे और चाहते थे कि किसी रिटायर्ड आईसीएस को इसका अगुआ बनाया जाए। इस पर ब्रिटिश सरकार को कोई शक भी नहीं होगा और पार्टी को मजबूत बनाने में मदद मिलेगी। वहीं यह भी कहा जाता है कि गवर्नर जनरल लार्ड डफरिन के इशारे पर ए ओ ह्यूम की अध्यक्षता में 28 दिसंबर 1885 को 72 कार्यकर्ताओं के साथ 1857 की क्रांति के बाद भारतीयों में फैले असंतोष को दूर करने के लिए इसकी स्थापना की गई थी। जो भी हो इस दल के अब तक 60 अध्यक्ष हो चुके हैं और वर्तमान में राहुल गांधी के बाद इसका कोई अध्यक्ष नहीं है और श्रीमती सोनिया गांधी कार्यकारी अध्यक्ष हैं और पूर्णकालिक अध्यक्ष अभी कोई नहीं है ।

आजादी के पहले और आजादी के बाद कांग्रेस की धुरी नेहरू परिवार के इर्द-गिर्द घूमती रही। आज भी वही स्थिति बनी हुई है। यदि इन बागी नेताओं की बात करें तो इनमें से यदि कोई ऐसे होते जो नेहरू परिवार से यह कह सके होते कि हम देश संभाल लेंगे अब आपकी कोई जरूरत नहीं है। इसके बाद भी वह परिवार यदि दावा करता कि ऐसा नहीं हो सकता तो फिर यह कहा जा सकता था कि परिवार निरंकुश हो गया है। कांग्रेस के लिए विद्रोह कोई नई बात नहीं है। यह पार्टी बार-बार टूटती-फूटती रही है लेकिन वह फिर से उठकर खड़ी हो जाती रही है। इस बार भी पिछले दिनों गुलाम नबी आजाद सांसद जो रिटायर हो रहे थे उनके भाषण से यह अर्थ निकाला गया कि भविष्य में कुछ भारी फेर बदल कांग्रेस में होने जा रहा है। यही नहीं, प्रधानमंत्री का भावुक हो जाना यह साबित कर रहा था कि वह एक राज्य विशेष के नेता को इस तरह अपने हाथ से बाहर नहीं जाने देंगे। फिलहाल जो स्थिति बन गई है उससे तो यही लगता है कि उनकी योजना कुछ बड़ा करने की है। शांति सम्मेलन के बहाने जम्मू में आजाद ने प्रधानमंत्री की प्रशंसा करते हुए जो कहा वह इसी बात की पुष्टि होती है कि निश्चित रूप से इसके मूल में कोई नियत योजना है। क्योंकि आज की तारीख में कांग्रेस में ऐसा कोई नेता नहीं है जो अपने दल की बागडोर संभाल सके और उसे नेतृत्व दे सके। यदि ऐसा किसी ने किया होता तो फिर अब तक कांग्रेस का समूल नाश हो गया होता या फिर हिम्मत दिखाने वाला व्यक्ति फिर से अपनी पार्टी को एकत्रित करके एक मजबूत विपक्ष या सत्तारूढ़ दल की भूमिका निभा रहा होता। क्योंकि नेतृत्व देने वाला कोई तो हो जो समाज और देश को बता सके कि कांग्रेस फिर से संभल गई है और वह देश को नेतृत्व और दिशा देने में सक्षम है। अब तो ऐसा लगता है कि यह सोचना भी भारतीय आम जनता के लिए बेमानी है।

पिछले दिनों हुए कुछ राज्यों के विधानसभा चुनाव से कुछ उम्मीद बनी थी कि शायद इस दल ने फिर से देश की जनता के मन में अपनी पुरानी जगह बनाने का प्रयास करना शुरू कर दिया है। शायद कांग्रेस फिर से जीवित हो रही है, लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात वाली बात होने लगी। पार्टी में टूट-फूट शुरू हुई और आंतरिक कलह की वजह से ऊब कर सभी राज्यों के नेताओं ने पलायन शुरू कर दिया। सत्तारूढ़ दल पर हॉर्स ट्रेडिंग के आरोप लगते रहे, लेकिन इससे क्या होने वाला है। जब लोग बिकने के लिए तैयार हों, समाज सेवा से ऊपर निज विकास सामने हो तो खरीददार को दोषी कैसे ठहराया जा सकता है। अभी पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव कराने की घोषणा चुनाव आयोग द्वारा कर दी गई है। केंद्रीय सत्तारूढ़ दल को कुछ राज्यों में सत्ता पर काबिज होने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ेगा, लेकिन कुछ राज्यों में वह सहजता से अपनी सरकार बना लेगा। अब रही देश की 136 वर्ष पुरानी पार्टी कांग्रेस की स्थिति क्या और कैसी रहेगी यह अभी से कह पाना मुश्किल है। क्योंकि, जो स्थिति कांग्रेस की बन गई है उसमें तो उसका ग्राफ नीचे गिरता ही दिखाई दे रहा है, लेकिन अभी से कुछ कहना अनुचित होगा, रिजल्ट तो 2 मई को आएगा और तब तक तो हमें प्रतीक्षा करनी ही पड़ेगी। जनता के मनोविज्ञान को समझ पाना इतना आसान नहीं है। इस स्थिति में यह बात समझ में नहीं आ रही है कि क्या इन चुनावों में कांग्रेस का खात्मा होने जा रहा है या उसके जीवित होने की आशा अभी बनी रहेगी।

It is impossible to eradicate hunger without understanding the pain of hunger.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।

 

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