शांतिपूर्ण जीवन की कला: समृद्धि की राह
डॉ. बीरबल झा
क्या आप मन की सच्ची शांति और गहरी खुशी चाहते हैं? ज़्यादातर लोगों का जवाब होगा, “हाँ, बिल्कुल।” आज की तेज़ रफ्तार ज़िंदगी, लगातार शोर और बढ़ती जिम्मेदारियों के बीच हर कोई उस सुकून की तलाश में है, वह सहज आनंद, जिसमें सुबह उठते ही मन हल्का और अपराधबोध या पछतावे से मुक्त महसूस हो।
लेकिन शांति कोई खरीदी जाने वाली वस्तु नहीं, बल्कि साधना से अर्जित होने वाली कला है। यह छोटे-छोटे सजग कर्मों से शुरू होती है—जैसे किसी अनजान चेहरे पर मुस्कान बिखेर देना। अपनी मुस्कान हम आईने के बिना नहीं देख सकते, पर दूसरों की आंखों में उसकी चमक साफ झलकती है। जिस तरह हमें खीझे हुए चेहरे नहीं भाते, उसी तरह हमें भी उदासी फैलाने से बचना चाहिए। दलाई लामा कहते हैं, “सुख कोई तैयार वस्तु नहीं है, यह आपके अपने कर्मों से आता है।”
अंदर की राह
शांति के बिना जीवन अधूरा है। असली शांति अपने अंदर के संसार को साधने से आती है, चाहे बाहर कितना भी शोर-शराबा क्यों न हो। पर इसका मतलब चुप्पी साध लेना या भावनाओं को दबा देना नहीं है। हमारे संविधान ने हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी है, लेकिन इसके साथ करुणा और आत्म-संयम का संतुलन भी ज़रूरी है।
तो यह शांति कैसे मिले? शुरुआत करें नकारात्मकता को छोड़ने से—द्वेष, बदला, अपराधबोध और चिंता को त्यागें। घमंड, ईर्ष्या, लालच और अहं को अलविदा कहें। शांति की ईमानदार चाह खुद-ब-खुद खुशी का रास्ता खोलती है। बाइबल में कहा गया है, “मांगो और तुम्हें मिलेगा।” एक और वचन याद दिलाता है, “दुष्ट को शांति नहीं मिलती।” कानून भले सजा से बचा ले, मगर अंतरात्मा का न्याय सबसे बड़ा होता है। आत्म-जागरूकता और नैतिक जिम्मेदारी अनिवार्य हैं। दूसरों के साथ किया गया अन्याय दरअसल, सृष्टि की व्यवस्था के खिलाफ एक अपराध है।
परंपराओं की साझा सीख
भगवद्गीता, बाइबल और कुरान सब एक ही सच्चाई पर मिलते हैं: दूसरों के साथ वैसा ही व्यवहार करो जैसा तुम अपने लिए चाहते हो। शब्दों और कर्मों की अपार ताकत होती है। दुश्मनी को दोस्ती में बदलो। नाराज़गी की जगह शांति का प्रस्ताव दो। विवादों को बढ़ने से पहले संवाद से सुलझाओ।
जीवनयापन बेशक ज़रूरी है। जिस तरह ईंधन के बिना गाड़ी नहीं चल सकती, उसी तरह काम और जिम्मेदारी के बिना जीवन आगे नहीं बढ़ सकता। पुरानी कहावत है, “भूखे भजन होई न गोपाला” व्यावहारिक जरूरतें अहम हैं, मगर असली संतोष अंदर की समरसता से उपजता है।
गलती, क्षमा और विकास
जीवन कभी परिपूर्ण नहीं होता। गलतियाँ होना स्वाभाविक है। उन्हें स्वीकारें, क्षमा मांगें और अपनी दिशा सही करें। यही कदम शांति की राह में आने वाली बाधाओं को हटाते हैं। प्रेम, न कि घृणा, तनाव को मिटाता है। झगड़े, कटुता और दुर्भावना से बचें। दूसरों की कीमत पर सुख भोगना सिर्फ़ मृगतृष्णा है। याद रखें, असली खुशी कभी भोगवादी नहीं होती।
संघर्ष अगर समझदारी से सुलझाया जाए, तो उपयोगी और परिवर्तनकारी बन सकता है। मेल-मिलाप तनाव, पश्चाताप और नकारात्मकता को खत्म करता है। केवल समावेशी और करुणापूर्ण दृष्टिकोण ही विवादों को शांत कर सकते हैं। महात्मा गांधी ने कहा है, “कमज़ोर कभी क्षमा नहीं कर सकता, क्षमा मज़बूत का गुण है।”
व्यस्त दुनिया में शांतिपूर्ण जीवन
महात्मा गांधी ने अहिंसा और आत्मबल दोनों का अद्भुत उदाहरण पेश किया। उन्होंने साबित किया कि शांति का मतलब कायरता नहीं है। कहावत है, “अब बोलो या हमेशा के लिए चुप रहो।” यह सिद्धांत हमें प्रेरित करता है कि चुनौतियों का सामना सजगता से करें, विवादों को सहानुभूति से सुलझाएं और करुणा व विवेक से भरा जीवन जिएं।
अंदर की शांति की खोज दरअसल समृद्धि की खोज है। शांत मन ऊर्जा बिखेरता है, समझ बढ़ाता है और रिश्तों को मजबूत बनाता है। दया, सजगता और नैतिक साहस को पोषित कर हम न सिर्फ अपना जीवन शांतिमय बनाते हैं, बल्कि ऐसा संसार रचते हैं जहाँ शांति और समृद्धि साथ-साथ चलें।
इस 21 सितंबर को जब पूरी दुनिया अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस मना रही है, आइए याद करें: असली शांति अंदर से शुरू होती है। हर मुस्कान, हर दयालुता का कार्य और हर क्षमा का क्षण एक अधिक सामंजस्यपूर्ण दुनिया के बीज बोता है।
(डॉ. बीरबल झा एक प्रतिष्ठित लेखक और शिक्षाविद् हैं, जो भाषा और संस्कृति के माध्यम से लोगों को सशक्त बना रहे हैं। लेख में व्यक्त किए गए विचारों से चिरौरी न्यूज का सहमत होना अनिवार्य नहीं है)