उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ का इस्तीफा: सत्ता, विवाद और ‘लक्ष्मण रेखा’ की कहानी

Vice President Jagdeep Dhankhar's resignation: A story of power, controversy and 'Laxman Rekha'चिरौरी न्यूज

नई दिल्ली: देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सोमवार रात अपने पद से अचानक इस्तीफा दे दिया, एक ऐसा घटनाक्रम जिसने राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी। तीन वर्षों के उनके कार्यकाल में कई विवाद, सत्ताधारी दल से टकराव, और ‘लक्ष्मण रेखा’ पार करने के आरोप लगे। अंततः एक छोटा सा पत्र — “मैं इस्तीफा देता हूं” — राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को संबोधित कर, सोशल मीडिया पर साझा किया गया और एक युग का अंत हो गया।

अचानक क्यों दिया इस्तीफा?

सूत्रों के अनुसार, इस्तीफे की मुख्य वजह रही न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव को राज्यसभा में स्वीकार करना, जबकि एक समान प्रस्ताव पहले से ही लोकसभा में सत्तारूढ़ भाजपा द्वारा प्रस्तुत किया जा चुका था। विपक्ष समर्थित प्रस्ताव को मंज़ूरी देना और भाजपा को इसकी जानकारी तक न देना सरकार के लिए असहनीय साबित हुआ।

यह वही जगदीप धनखड़ हैं, जिन्होंने विपक्ष के साथ अपने तीखे टकराव के लिए सुर्खियां बटोरीं — चाहे वह पश्चिम बंगाल के राज्यपाल रहते हुए रहा हो या उपराष्ट्रपति के रूप में। ऐसे में विपक्षी प्रस्ताव को स्वीकार करना भाजपा के लिए चौंकाने वाला था।

विवादों की फेहरिस्त लंबी है…

राघव चड्ढा प्रकरण: दो बार सरकार के निशाने पर

दिसंबर 2023 में, आम आदमी पार्टी के सांसद राघव चड्ढा को राज्यसभा की विशेषाधिकार समिति ने दोषी ठहराया, जब उन्होंने सदन की अनुमति के बिना चार सांसदों के नाम एक सिलेक्ट कमेटी के लिए दे दिए थे। इसके बाद चड्ढा को निलंबित कर दिया गया था।
हालांकि, उपराष्ट्रपति धनखड़ ने खुद इस निलंबन को “पर्याप्त सज़ा” बताते हुए समाप्त कर दिया, जिससे सरकार नाखुश रही।

दूसरी बार, जब राघव चड्ढा को पहली बार सांसद होते हुए भी दिल्ली में उच्च श्रेणी का बंगला दिया गया और कोर्ट से राहत लेकर उन्होंने उसे खाली करने से इनकार कर दिया, तब भी उपराष्ट्रपति के कार्यालय द्वारा की गई प्रक्रियाएं सरकार को असहज कर गईं।

विपक्ष को मिली जगह, भाजपा असहज

विपक्ष द्वारा भाजपा सरकार की आलोचना के मौके मिलना सत्ता पक्ष को खटकने लगा था। हाल ही में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे को खुलकर सरकार पर हमला करने की अनुमति देना एक और उदाहरण था।

जहां सरकार इस मुद्दे पर औपचारिक बहस के लिए तैयार थी, वहीं धनखड़ ने खड़गे को निरंतर बोलने की इजाज़त दी — और यही बात भाजपा को नागवार गुज़री। सूत्रों के मुताबिक, इस पर उपराष्ट्रपति द्वारा सभी दलों से बातचीत की बात कहना भी भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को इतनी बुरी लगी कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से इसका खंडन किया।

कृषक पृष्ठभूमि से उपजा असंतोष

धनखड़, जो खुद एक कृषक परिवार से आते हैं, ने किसानों के मुद्दों पर खुलकर सरकार को घेरा। उन्होंने दिसंबर में एक सार्वजनिक मंच पर कृषि मंत्री शिवराज चौहान से तीखे सवाल पूछे — “किसान से क्या वादा किया गया था? वह पूरा क्यों नहीं हुआ?”
उन्होंने खाद्य सब्सिडी को सीधे नकद में देने और सांसदों की तरह किसानों को भी महंगाई के आधार पर आर्थिक सहायता देने की बात कही।

न्यायपालिका पर तीखे तीर

धनखड़ और न्यायपालिका के बीच संबंध भी तनावपूर्ण रहे। हाल ही में उन्होंने न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा से जुड़े मामले में न्यायपालिका की भूमिका पर सवाल उठाते हुए ‘आइड्स ऑफ मार्च’ जैसे शेक्सपियरियन चेतावनी के साथ तीखे शब्दों का प्रयोग किया और आपराधिक जांच की मांग की।

क्या यह असहमति का अंत था?

जानकारों का मानना है कि सरकार को उपराष्ट्रपति के कामकाज में आए बदलाव — जिसमें विपक्ष को अधिक स्वतंत्रता और सरकार को प्रत्यक्ष आलोचना — ने असहज कर दिया था। एक समय पर जो सत्तारूढ़ दल के विश्वासपात्र माने जाते थे, वे अब ‘लक्ष्मण रेखा’ पार करने के आरोपों का सामना कर रहे थे।

आगे क्या?

जगदीप धनखड़ के इस्तीफे से यह साफ है कि सरकार अब पूरी तरह से नियंत्रित और “सहयोगी” संवैधानिक पदों पर नियंत्रण चाहती है। अब नजरें राष्ट्रपति के अगले कदम और नए उपराष्ट्रपति की नियुक्ति पर टिक गई हैं।

लेकिन एक बात तय है — धनखड़ का कार्यकाल न केवल सत्ता और विपक्ष की राजनीति के लिए, बल्कि संवैधानिक मर्यादाओं की परिभाषा के लिए भी एक गहरा अध्याय छोड़ गया है।

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