बिहार: विकास की डगमगाती नैया और विधानसभा चुनाव

निशिकांत ठाकुर

बमुश्किल दस दिन पहले बिहार से लौटा हूं। बाढ़ में डूबे गावों को देखा, उस भयंकर चुनौतियों से जूझते ग्रामीण महिलाओं को नाव चलाते देखा, राष्ट्रीय राजमार्ग के बीचों बीच झोप़पट्टियों को देखा, जिनमें बाढ़ पीड़ित और मवेशी साथ-साथ बड़े प्रेम-भाव से रह रहे थे। हां, यह अलग बात है कि मवेशी सूखी घास चबा रहे थे और इंसान रूखी-सूखी रोटी बनाने में व्यस्त थे। नंग-धड़ंग बच्चे भी उनके आसपास भोजन के इंतजार में घूम रहे थे और हाईवे से सनसनाती गाडियां उनके करीब से गुजर रही थीं। उस दृश्य का एक खाका ही खींचा जा सकता है, उसे साकार करना किसी के वश में नहीं है।

कल्पना कीजिए उस बिहार की, जो देश के अन्य राज्यों की तरह 15 अगस्त, 1947 को ही आजाद हुआ और भारत के 31 राज्यों में 24वें नंबर पर आज भी मजबूती से जमा हुआ है। जहां की 12 करोड़ जनता 40 सांसदों को चुनकर लोकसभा भेजती है, वहीं 16 सदस्य बिहार की आवाज उठाने के लिए राज्यसभा में भेजे जाते हैं। उसी बिहार राज्य के विधानसभा में 243 और विधान परिषद के लिए 75 सदस्यों की संख्या निर्धारित है। संविधान निर्माताओं ने यह अद्भुत विधान इसलिए बनाया क्योंकि कोई भी राज्य पिछड़ा न रहे और बिहार जैसे राज्य की आवाज को संसद और विधानसभा में बुलंदी से उठाकर केंद्र और राज्य में उसकी जड़ को मजबूत किया जा सके, ताकि राज्य का सर्वांगीण विकास हो। लेकिन, आज भी उस राज्य का नाम आते ही वहां के लोगों के प्रति एक ओछापन का भाव दिखाई देने लगता है। ऐसा क्यों हुआ है? बिहार इतना पिछड़ा क्यों और कैसे हो गया? जबकि वहां के लोग मानसिक रूप से बेहद उर्वरक, विचारवान, व्यवहार कुशल, होते हैं। सवाल तो यह भी है कि चाणक्य जैसे राजनीतिज्ञ, अशोक जैसे सम्राट, भगवान गुरु गोविंदसिंह साहेब जैसे महान गुरु, भगवान महावीर और गौतम बुद्ध की ज्ञानस्थली देने के साथ देश को सबसे अधिक प्रशासनिक अधिकारी देनेवाला राज्य आज इतना बेहाल क्यों है?

देश के सभी राज्यों ने आजादी के बाद अपना अपेक्षित विकास किया। इसमें सत्तासीन राजनीतिज्ञों की तो भागीदारी रही ही, सबसे बड़ा योगदान जिन्होंने दिया वह है वहां की जनता। लगभग सभी राज्यों ने जाति-बिरादरी से ऊपर उठकर अपने नेताओं का चयन उनकी योग्यता के आधार पर किया। इसका परिणाम यह हुआ कि वह जहां भी जिस भी पद पर रहे, वहां से उन्होंने अपने राज्य, अपने चुनाव क्षेत्र को ध्यान में रखकर ही काम किया, जिससे लगातार विकास होता रहा। अब रही बिहार की बात कि वहां का विकास उस गति से क्यों नहीं हुआ, तो निश्चित रूप से वहां के राजनीतिज्ञों के साथ-साथ जनता भी बराबर की जिम्मेदार है। बिहार के बहुत कम ऐसे राजनीतिक दल के नेता होंगे जिन्होंने योग्यता के आधार पर चुनाव लड़ा हो और उसमें वह सफल भी हुए हों।

बिहार के पिछड़ेपन का मुख्य कारण वहां के लोगों का घोर जातिवादी होना है, जिसके आधार पर उन्हें चुनाव लड़ने के लिए टिकट दिया जाता है और फिर उसी जाति के आधार पर वह चुनाव जीत भी जाते हैं। जब किसी के मन में यह डर हो ही नहीं कि वह काम नहीं करेगा, विकास नहीं करेगा तो वही जनता उन्हें आगामी चुनाव में कान पकड़कर कुर्सी से नीचे उतार देगी, तो वह राज्य के विकास की ओर रुचि क्यों दिखाएगा। उन्हें तो इस बात की चिंता होती ही नहीं है कि जनता कभी उनके साथ कुछ गलत कर भी सकती है। स्वाभाविक रूप से ऐसे में वह केवल अपना विकास करने पर ध्यान लगाते हैं। वह यह जानते हैं कि हम चुनाव अपनी जातिवाद की कृपा के नाम पर जीतकर आए हैं। ऐसे में वह जनता के दुख-दर्द को क्यों साझा करेंगे। जब वह उनके दुख-दर्द को साझा नहीं करेंगे तो फिर हर वर्ष वही हाल होगा, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है।बिहार के पिछड़ेपन के कई कारणों में सबसे बड़ा कारण वहां के राजनेताओं की ही नहीं, वहां की जनता की जातिवादी मानसिकता होना है। राजनीतिज्ञां की सोच यही होती है कि उनकी हर कमी को उनका जातिवादी पक्ष सहजता से फिर स्वीकार कर लेगा, और ऐसा ही देखने को मिलता भी रहा है।

दुर्दशा में डूबते-उतराते बेहाल बिहार में इसी साल विधानसभा का चुनाव भी होना है। कल्पना कीजिए जिस बिहार के कुछ क्षेत्रों में एक घर से दूसरे घर जाने के लिए नाव का सहारा लेना पड़ता हो, वहां पोलिंग स्टेशन बनाए जाएंगे और जनता वोट डालने जाएगी। कैसे होगा यह सब? वैसे विपक्ष के कई नेताओं ने वहां फिलहाल चुनाव न करने की अपील की है, कई दलों ने धरना-प्रदर्शन भी शुरू कर दिया है, लेकिन सत्तारूढ़ दल को इससे कोई फर्क पड़ता नजर नहीं आ रहा है, क्योंकि उनके पर्यवेक्षक महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस पटना पहुंच चुके हैं। बिहार में भाजपा, लोजपा तथा जदयू में चुनावी समझौता है, लेकिन पता नहीं यह समझौता कब तक रहेगा, क्योंकि नीतीश कुमार समझौते से कब मुकर जाएं और दूसरे दलों के साथ अपना हाथ मिला लें, कोई नहीं जानता। उनका राजनीतिक इतिहास तो ऐसा ही रहा है, लेकिन उनका चरित्र, उनकी छवि साफ है, इसलिए लोग अभी भी उन्हें पसंद करते हैं। भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने भावी मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार के नाम की घोषणा करते हुए कहा है कि हम नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही चुनाव लडे़ंगे।

नीतीश कुमार पंद्रह वर्षों से बिहार के मुख्यमंत्री हैं। निश्चित रूप से उनका पहला कार्यकाल प्रशंसनीय रहा है, लेकिन दूसरा और तीसरा कार्यकाल कतई प्रभावशाली नहीं रहा। न तो राज्य में कोई उद्योग लगे, न ही रोजगार के लिए युवाओं का पलायन ही रुका। कोई भी उद्योगपति बिहार में कैसे उद्योग लगाएगा! यदि कोई अपना धन खर्च करके उद्योग लगता है तो उसे सबसे पहले सुरक्षा, यातायात का सही इंतजाम, बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित होना चाहिए। पिछले दिनों तो ऐसा कुछ हुआ नहीं, अब आगे कुछ होगा, इस पर कैसे यकीन किया जा सकता है। बिहार के युवा क्या इसी प्रकार रोजगार के लिए देशभर में मुंह मारते फिरेंगे अथवा कभी उन्हें अपने राज्य में भी कोई ठौर-ठिकाना मिलेगा! जो सरकार इस प्रकार का झूठा वादा करे, युवाओं को और बिहार के समस्त मतदाताओं को उनको एक बार जरूर आजमाना चाहिए। वैसे, बिहार की जनता इतनी बार ठगी जा चुकी हैं कि किसी पर उसका विश्वास रह ही नहीं गया है। इस बार देखिए उनका निर्णय क्या होता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।

 

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