हॉकी में पदक का दावा जोखिम भरा

राजेंद्र सजवान
जैसे जैसे स्थगित टोक्यो ओलंपिक की तिथियाँ नज़दीक आ रही हैं, भारतीय हॉकी के लिए दुआ करने वाले मुखर होते जा रहे हैं। हमेशा की तरह एक बार फिर से हॉकी से उम्मीद करने वालों ने दावे करना और उपदेश झाड़ना शुरू कर दिया है। लेकिन जो वर्तमान टीम से जुड़े हैं या भारतीय हॉकी को करीब से जानते पहचानते हैं बेकार की दावेदारी करने से बच रहे हैं। इसमें दो राय नहीं कि हर भारतवासी चाहता है कि आठ ओलंपिक स्वर्ण जीतने वाली भारतीय हॉकी एक बार फिर से देश का नाम रोशन करे। लेकिन सिर्फ़ दावे करने या मनगढ़ंत कहानियाँ गढ़ने से तो ओलंपिक पदक नहीं मिलने वाला।  देखना यह होगा कि विश्व हॉकी में हम कहाँ खड़े हैं और हाल के वर्षों में हमारे खिलाड़ियों का प्रदर्शन कैसा रहा है।

कोच को भरोसा:
यह सही है कि टीम के कोच से बेहतर अपने खिलाड़ियों को और कोई नहीं जान सकता ।  उसे पता होता है कि उसके खिलाड़ियों का मज़बूत पहलू कौनसा है और कहाँ उनकी टीम कमजोर पड़ती है। कोच ग्राहम रीड के अनुसार उनके खिलाड़ियों ने कोविद से पहले जैसा प्रदर्शन किया यदि उसे बनाए रख पाते हैं तो भारत को पदक मिल सकता है। वह मानते हैं कि शारीरिक-मानसिक स्तर पर अधिकांश खिलाड़ी फिट हैं और किसी भी टीम को टक्कर देने में सक्षम हैं। लेकिन बाकी टीमों को वह कमजोर नहीं आंक रहे।

एक और गोरा कोच:
रीड जो कुछ कह रहे हैं, यही सब तमाम विदेशी कोच भी कहते आए हैं। गेरार्ड राक, माइकल नॉब्स और रोलांट अल्तमस नें भी काफ़ी कुछ बयानबाज़ी की लेकिन अधिकांश के दावे निपट  कोरे निकले। 1984 के लासएंजेल्स खेलों से भारतीय हॉकी का पतन शुरू हुआ।  बाल किशन, एमपी गणेश, सेड्रिक डिसूज़ा और भास्करन की विफलता के बाद विदेशी कोचों पर भरोसा किया गया लेकिन यह बदलाव भी कारगर साबित नहीं हो पाया। 2012 के लंदन ओलंपिक में माइकल नॉब्स के कोच रहते भारत को 12 वाँ और अंतिम स्थान मिला। फिरभी भारतीय हॉकी ने विदेशी का मोह नहीं छोड़ा।

टोक्यो में इतिहास दोहराने का मौका:
1964 के टोक्यो ओलंपिक में जिस भारतीय टीम ने स्वर्ण पदक जीता था, जाने माने सेंटर फारवर्ड और हॉकी इंडिया के सलाहकार हरविंदर सिंह चिमनी उस टीम के सदस्य थे। हरविंदर  को विश्वास है कि भारत इतिहास दोहरा सकता है। हालाँकि वह वर्तमान टीम की तैयारी से संतुष्ट  हैं लेकिन भूल रहे हैं कि उनकी चैम्पियन टीम में कप्तान चरण जीत सिंह, शंकर लक्ष्मण, गुरबक्स सिंह, प्रिथी पाल सिंह, हरीपाल कौशिक, बलबीर सिंह जैसे दिग्गज शामिल थे। 1975 की विश्व विजेता हॉकी टीम के स्टार खिलाड़ी अशोक ध्यान चन्द और असलम शेर ख़ान बेवजह बयान देने से बचते हुए कहते हैं कि पदक जीतना आसान नहीं है। उन्हें मुकाबला काँटे का नज़र आता है।  हालाँकि पुरुष और महिला टीमों के कप्तान मनप्रीत और रानी रामपाल आत्म विश्वास से लबालब हैं लेकिन खिताब जीतने को लेकर कोई दावा नहीं करना चाहते।  महिला हॉकी के विशेषज्ञ कोच बलदेव सिंह की राय में महिला टीम को पदक कोई चमत्कार ही दिल सकता है  और पुरुष टीम पहली चार-पाँच में स्थान बना ले तो गनीमत होगी।

 दावे नहीं प्रदर्शन चाहिए:
देश के जाने माने पूर्व खिलाड़ी, हॉकी ओलंपियन और हॉकी प्रेमी चाहते हैं कि भारतीय खिलाड़ी अपना श्रेष्ठ प्रदर्शन करें और ऐसा खेलें जिससे उनकी हॉकी बादशाहत झलके। सिर्फ़ दावे करने से कोई फ़ायदा  नहीं । हर ओलंपिक में जाते हैं और खाली हाथ लौट आते हैं। यह ना भूलें कि उनके दावों की पोल पिछले एशियाड में खुल गई थी, जहाँ जापान और मलेशिया जैसी टीमें भारत पर भारी पड़ी और एशियाई खेलों में कांस्य पदक से संतोष करना पड़ा था। अब भला एशियाड की फ्लाप टीम ओलंपिक में गोल्ड की दावेदार तो कही नहीं जा सकती। हाँ, खिलाड़ी खेल पर ध्यान दें और टीम प्रबंधन उन्हें लगातार प्रोत्साहन दे तो कुछ भी संभव है। लेकिन बेकार के दावों पर ऊर्जा खर्च करने से कोई फायदा नहीं होने वाला।

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं। ये उनका निजी विचार हैचिरौरी न्यूज का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं है।आप राजेंद्र सजवान जी के लेखों को  www.sajwansports.com पर  पढ़ सकते हैं।)

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