बंसल का गुस्सा जायज, क्रिकेट के अलावा और भी हैं खेल

राजेंद्र सजवान

द्रोणाचार्य अवार्ड से सम्मानित और भारत के जाने माने हॉकी कोच अजय बंसल की एक टिप्पणी से बहुत से मीडियाकर्मी और क्रिकेट के पिछलग्गू तिलमिलाए हुए हैं। दरअसल, उन्होंने 1983 की विश्व विजेता टीम के सदस्य और नेक इंसान यशपाल शर्मा की मृत्यु पर भारतीय मीडिया से यह पूछ लिया था कि खेलों में ऐसा भेदभाव क्यों है? क्यों सिर्फ क्रिकेट खिलाड़ियों को ही इस प्रकार का सम्मान नसीब होता है। पांच दिन पहले स्वर्ग सिधारे महान हॉकी ओलंपियन केशव दत्त को मीडिया ने ऐसा सम्मान क्यों नहीं दिया?

देखा जाए तो श्री बंसल ने कुछ भी गलत नहीं कहा। बेशक, यश पाजी हर सम्मान के हकदार थे। अच्छे खिलाड़ी के साथ साथ वह नेक इंसान के रूप में भी जाने गए। लेकिन भारतीय हॉकी पर बड़े बड़े उपदेश देने वाले, क्रिकेट की पूजा अर्चना करने वाले हमारे मीडिया को यह जानकारी नहीं थी कि केशव दत्त नाम का कोई प्राणी है और उसने दो ओलंम्पिक स्वर्ण जीतने वाली भारतीय टीम में बड़ा योगदान दिया था। देश की सरकार, उनके मुखिया, नेता सांसद तो खैर क्रिकेट के अलावा दूसरे किसी खेल को नहीं जानते।

लेकिन भारतीय खेल पत्रकारिता का लगातार पतन किसी को नजर नहीं आता। उनको भी नहीं जोकि सोशल मीडिया और बकबकिया ग्रुपों में अपना क्रिकेट ज्ञान बघारते हैं और खुद अपनी पीठ को थपकी देते हैं। ऐसी हालत में यदि बंसल और उनके जैसे चंद लोगों को गुस्सा आता है तो गलत क्या है?

लेकिन कुसूरवार सिर्फ मीडिया नहीं है। असली गुनहगार हॉकी और अन्य खेलों के माई बाप हैं, जिनके लिए खेल सिर्फ लूट खसोट और प्रसिद्धि पाने का माध्यम भर हैं। उन्हें किसी खिलाड़ी और खेल हस्ती के मरने से कोई लेना देना नहीं। दूसरी तरफ क्रिकेट बोर्ड, उसकी तमाम इकाइयां और अन्य ऐसा कोई मौका नहीं चूकते। रही सही कसर पूरी करने के लिए क्रिकेट का दुमछल्ला मीडिया है ही।

खासकर, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को क्रिकेट के अलावा बाक़ी खेलों की याद तब आती है जब कोई बड़ा हादसा हो जाए, ओलंम्पिक में कोई पदक मिल जाए या कोई खिलाड़ी किसीबड़े गुनाह या घोटाले में धर लिया जाए।

लगभग चार साल तक मौन धारण करने वाले टीवी चैनलों के फेंकू और प्रिंट मीडिया के बड़बोले ओलंम्पिक से चंद दिन पहले यकायक हरकत में आ जाते हैं। जैसा कि आजकल चल रहा है। सरकार और उसके मुखिया को खुश करने के लिए मनगढ़ंत कहानियां गढ़ी जाती हैं। 10, 20 और 50 पदकों के दावे किए जाते हैं लेकिन लौटते हैं झुनझुने बजाते हुए।

अगली बार तोप चलाने का वादा करते हैं, खेल महाशक्ति बनने का दावा करते हैं और फिर वही हाल होता है, जैसा पिछले सौ साल से हो रहा है। इसलिए चूंकि सरकार का ध्यान ओलंम्पिक खेलों की तरफ कदापि नहीं है। उसे क्रिकेट भाता है क्योंकि मंत्रियों, नेताओं और संतरियों के बेटे, नाते रिश्तेदार क्रिकेट बाजार के बड़े खिलाड़ी हैं।

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं.)

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