बंगाल विधानसभा चुनाव: एक तटस्थ विवेचन

निशिकांत ठाकुर

बंगाल चुनाव के संभावित जय पराजय पर लोगों में बहस छिड़ी हुई है। आधिकारिक नतीजे तो 2 मई को आने वाले हैं, लेकिन कई लोगों ने बहुत पहले से ही बिना किसी आधार के अपनी ओर से नतीजे घोषित करने शुरू कर दिए हैं। मतदान का अर्थ होता है अपने मंतव्य का दान करना और वह भी गुप्त तरीके से। कहते हैं कि जो दान किया जाता है, उसको कभी किसी के समक्ष प्रकट नहीं करना चाहिए। हाँ, एक अनुमान के आधार पर कयास लगाया जाता है। इसलिए आज बंगाल के लिए जो नतीजे घोषित कर रहे हैं, वह वही हैं। प्रचार देखकर कुछ लोग दिग्भ्रमित होते हैं और इसी के सहारे पूर्वानुमान के कुछ नतीजे भी संयोग से सही निकल आते हैं। यह सही है की अभी स्थिति साफ होने में समय लगेगा क्योंकि मतदाताओं का रुझान अभी आना शुरू ही नहीं हुआ है। अभी जो उठापटक हो रही है उसे देखकर तो यही लगता है कि जब तक चुनाव संपन्न नहीं हो जाते तब तक न मालूम कितना खूनखराबा बंगाल में हो जाएगा। वैसे तो पाँच राज्यों में विधान सभा चुनाव हो रहे हैं, लेकिन इसका उबाल जितना बंगाल में है उतना किसी अन्य चारों राज्यों में नहीं है।

वैसे बंगाल का चुनावी इतिहास ही इसी तरह का रहा है। वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी 30 वर्षों से सत्ता की कुर्सी पर काबिज कॉम्युनिस्टों को इसी तरह उखाड़ कर फेंक दिया था। आज ममता बनर्जी के सामने कम्युनिस्ट नहीं, विश्व की सबसे बड़ी पार्टी तथा केंद्र और देश के कई राज्यों में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी है। जिसका उद्देश्य पूरे देश पर एकछत्र राज्य कायम करना है। कोई भी पार्टी हो जब वह चुनावी रणभूमि में किसी से आमना सामना करती है तो उसका एकमात्र उद्देश्य होता है जीतकर येन केन प्रकारेण सत्ता हासिल करना। फिर वह किसी से पीछे क्यों रहे। अभी इसी चुनाव में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा पर हमला हुआ। जाँच भी हुई लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात। फिर अभी वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर हमला हुआ, इस पर उनकी हँसी उड़ाई गई और अब वह व्हीलचेयर पर बैठकर चुनाव प्रचार अभियान में भाग ले रही हैं।

जब चुनावी बिगुल बजता है तो मौकापरस्त नेताओं का अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए एक दल छोड़ दूसरे दल में जाना कोई नई बात नहीं है। पहले तो यह होता था कि ऐसे दल बदलू और मौकापरस्त को मतदाता सबक सिखा देते थे, लेकिन अब मतदाता भी लोकतंत्र की महिमा और शीर्ष नेतृत्व की आवश्यकता को अच्छी तरह समझने लगे हैं। बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के करीबी रहे कई नेताओं ने अब उनकी सरकार पर तरह-तरह के आरोप लगाकर पार्टी से पलायन करके भाजपा का दामन थाम रहे हैं। सरकार में जिस काम में उनकी भागीदारी होती थी, अब उन कामों को नकारते हुए मजबूरी में अपने द्वारा किए गए कार्य को जनता में साबित करना चाहते हैं। कांग्रेस का तो ऐसा लगता है जैसे उसका नाम लेने वाला कोई नहीं रहा है। कांग्रेस के वे दिन भी याद आते हैं जब सिद्धार्थ शंकर रे मुख्यमंत्री होते थे और चुन-चुन कर नक्सलवादियों का सफाया करते थे। उसके बाद तो पता नहीं कहाँ कांग्रेस विलुप्त हो गई। जहाँ कांग्रेस की तूती बजती , थीं आज विधानसभा में उनकी संख्या कम्युनिस्टों के साथ मिलकर 2016 में चुनाव लडने पर भी केवल 44 पर सिमट कर नगण्य हो गई है। भाजपा को कुल तीन सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था। 295 (294 सीटों पर चुनाव होते हैं एक सीट पर मनोनयन होता है) सीटों के बंगाल विधानसभा में तृणमूल कांग्रेस को 211 स्थानों पर जीत हासिल हुई थी। इस बार भाजपा के प्रति रुझान कुछ तथाकथित रूप अधिक कहा जा रहा है। इसलिए क्या होगा, इस पर अभी से कुछ कहना ठीक नहीं होगा।

असत्य और झूठ के बुनियाद पर सुदृढ़ समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता, लेकिन आज कल बंगाल में ऐसे ही वायदों की बौछार है । भाजपा वही अपने 1914 वाले वायदे को दोहरा कर जनता का विश्वास जीतने में जुटा है और तृणमूल कांग्रेस की तो बात ही अलग है । देश में बुद्धिजीवियों का गढ़ माने जाने वाले बंगाल के एक साधारण मतदाता को उसकी समझ में नहीं आ रहा है की वह क्या करे । भारतीय जनता पार्टी के सबसे ताकतवर और चाणक्य माने जाने वाले केंद्रीय गृह मंत्री का कहना यह है की उनकी पार्टी दो सौ सीट जीतकर बंगाल में अपनी सरकार बना रही है । हो सकता है उनका कहना सही हो, लेकिन ऐसा किस आधार पर नेतागण कहते हैं यह बात समझ में नहीं आती । बड़े बड़े पेड़ों में सहस्त्र छेद करने वाला भौरा कमलपत्र में छेद नहीं कर पाता है – क्योंकि कहीं कहीं अपवाद होता है और वह बंगाल है । जिस तरह से कई राज्यसभा और लोकसभा सांसदों तथा केंद्रीय मंत्री को भाजपा ने विधान सभा चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित किया गया है यह तो एक अच्छा संकेत है , लेकिन क्या जिससे सीधा मुकाबला है उसकी तरफ से इसका कोई तोड़ नहीं निकाला जाएगा ? लेकिन, एक बात तो समझ में आ रही हैं की भाजपा ने जिस तरह से लोकसभा में अपना परचम लहराया वह इस बात को ही तो बल देता है की इस बार बंगाल का चुनाव देखने और परिणाम सुनने लायक होगा । जो भी हो यह सारी बातें एक अनुमान ही है सच्चाई तो 2 मई को हो सार्वजनिक हो पाएगी ।

1952 से अब तक बंगाल में विधानसभा के 16 चुनाव हो चुके हैं और 2021 का यह चुनाव 17वीं विधानसभा के लिए है। इस बार तृणमूल कांग्रेस और भाजपा का सीधा मुकाबला है। दोनों तरफ के दावे बिल्कुल एक जैसे हैं। बयानों के नाम पर केवल आरोप-प्रत्यारोप सामने आ रहे हैं। भाजपा नेताओं का कहना है की उनकी पार्टी इस बार बंगाल में अपनी सरकार बनाने जा रही है। इसी क्रम में उसने तृणमूल कांग्रेस से कई बड़े चेहरों को अपने साथ मिला लिया है तथा मिथुन चक्रवर्ती जैसे सुपरिचित चेहरे को अपने साथ जोड़ लिया है। वहीं तृणमूल कांग्रेस के समर्थक यह दावा कर रहे हैं कि भाजपा बंगाल में अपनी सरकार किसी भी दशा में नहीं बना सकेगी। सरकार उसी की बनेगी। मिथुन चक्रवर्ती तीन वर्ष तक तृणमूल कांग्रेस से राज्यसभा सदस्य रहे हैं। तृणमूल का कहना है कि उनका बंगाल में कोई राजनीतिक अस्तित्व ही नहीं है। इसलिए उनके चलते तृणमूल कांग्रेस पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।

ममता बनर्जी दस साल से बंगाल पर काबिज हैं। 2016 के चुनाव में ममता ने 211 सीटें जीती थीं। 2016 के विधानसभा चुनाव छह चरणों में हुए थे। इस बार आठ चरणों में चुनाव होंगे। ममता बनर्जी की टीएमसी 293 सीटों पर चुनाव लड़ी थी, जिनमें से 211 सीटें जीतने में वह कामयाब रही। वहीं, बीजेपी और गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने मिलकर चुनाव लड़ा था। बीजेपी ने 291 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे, जिनमें से उसे महज तीन सीटों पर ही जीत मिली थी जबकि गोरखा जनमुक्ति मोर्चा तीन सीटों पर चुनाव लड़ी और तीनों ही सीटें जीतने में कामयाब रही। हालांकि, इस बार दोनों अलग-अलग चुनाव मैदान में हैं।

सत्ता पाने के लिए यह लड़ाई इसलिए क्योंकि जब मनुष्य के हाथ में सत्ता आ जाती है तो कभी कभी या यह भी कह सकते हैं की उसे अपने पर अभिमान हो जाता है, वह निरंकुश हो जाता है और उसकी सोच यह हो जाती है कि उसके द्वारा किया गया प्रत्येक न्याय /निर्णय उचित है । फिर ऐसी स्थिति में उसके द्वारा अपने अनुचित न्याय/निर्णय भी उचित ही लगते हैं । बंगाल में प्रमुख रूप से टीएमसी और बीजेपी के बीच सीधा मुकाबला माना जा रहा है, लेकिन कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियाँ मिलकर मुकाबले को त्रिकोणीय बनाने में जुटी हैं। इस बार बीजेपी की सहयोगी गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ममता बनर्जी की टीएमसी के साथ चुनाव लड़ रही है। इसके अलावा बसपा, जेडीयू, AIMIM, आरजेडी सहित तमाम क्षेत्रीय पार्टियाँ भी चुनावी मैदान में उतरने के लिए कमर कसी हुई हैं। ऐसे में देखना है कि इस बार सत्ता की चाबी किसे मिलती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।

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