कहीं राजनीतिक अस्थिरता की मार न झेले बिहार

निशिकांत ठाकुर

बिहार में इसी महीने के अंत में तीन चरणों वाले विधानसभा चुनाव के लिए मतदान शुरू हो जाएगा। खास बात यह है कि इस बार भी कोई भी दल अकेले अपने दम पर 243 सीटों के लिए चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाया है। सबने अपने—अपने तरीके से बैसाखी के रूप में गठबंधन कर लिया है। अर्थ स्पष्ट है कि किसी भी दल को अपनी पार्टी पर अथवा अपने द्वारा किए गए कार्यों पर कतई भरोसा ही नहीं है। यही वजह है कि हर सियासी दल आड़े—तिरछे मिल—जुलकर सरकार बनाने के लिए जुगत लगा रहा है। इसका अर्थ यह भी निकाला जा सकता है कि एक बार फिर जनता को गुमराह कर अपना उल्लू सीधा करने के लिए चाहे तरीका कोई भी हो, उसे अपनाकर सत्ता की कुर्सी हासिल करने की खुराफात में जुटा हुआ है। दरअसल, इन दलों की यही सोच है कि एक बार सत्ता में आ गए, तो फिर पांच साल कौन किसे पूछने आता है! या यूं कहिए कि किसकी इतनी हिम्मत है जो यह पूछ ले कि आपने जो चुनाव के समय वादे किए थे, क्या वे पूरे हो गए! और यदि नहीं हुए तो उसके क्या कारण रहे।

दरअसल, आज अपने देश की स्थिति यह हो गई है कि किसी की यह मजाल नहीं कि वह सत्तारूढ़ दल से इस तरह का प्रश्न पूछ ले। चाहे वह नेता केंद्रीय सत्तारूढ़ दल का हो या स्थानीय सत्तारूढ़ दल का। प्रश्न चाहे जनजीवन से जुड़ा ही क्यों न हो, पूछने वालों को हो सकता है देशद्रोहियों की कतार में खड़ा न कर दिया जाए। बिहार में पंद्रह वर्षों तक नीतीश कुमार की सरकार रही, उससे पहले मुख्यमंत्री लालू प्रसाद थे और दोनों ने ही कुल जमा राज्य का क्या और कैसा विकास किया, सब देश के सामने ही है। लालू प्रसाद ने केंद्र में रहते हुए कम से काम दो रेल कारखाने तो दिए, लेकिन नीतीश कुमार ने?

बिहार इतना कुख्यात हो चुका है कि देश की तो बात ही छोड़िए, विदेशों में भी यदि बिहार की बात होती है तो उनका चेहरा देखने लायक है। अब राजनीतिज्ञों ने यह कहना सीख लिया है कि बिहार की इस दशा का दुष्प्रचार मीडिया के कारण ही है और इसीलिए बिहार के नाम पर वहां कोई बाहरी उद्योगपति पूंजी लगाने, यानी अपना उद्योग लगाने नहीं आता है। तो क्या अब यह मान लिया जाए कि जो नई सरकार आएगी, वह बिहार में उद्योगों की झड़ी लगा देगी? काश, ऐसा ही हो और बिहार से पलायन बंद हो और उन्हें अपने राज्य में ही जीने की स्थिति पैदा हो। देश के कुछ ही राज्य ऐसे हैं जहां की स्थिति लगभग ऐसी है। बिहार के मजदूरों के साथ क्या हश्र होता है, इसे देश ही नहीं, विश्व ने देखा कि किस प्रकार भूखे नंगे पुरुष और महिला बच्चों सहित खाली पैर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने घर पहुंचने के लिए व्याकुल थे। इसी व्याकुलता और पेट की ज्वाला में न जाने कितने लोग असमय काल के गाल में समा गए।

अभी भारतीय संसद में इस अकाल मृत्यु को लेकर खूब हंगामा हुआ, लेकिन सरकार को यह तक नहीं मालूम कि इसमें कितने मजदूर कहां—कहां मरे। जैसा कि कोरोना के पहले फेज में देखा गया था कि झुंड के झुंड सैकड़ों की संख्या में मजदूर किस प्रकार अंधाधुंध भागे जा रहे थे। न उनके लिए कहीं उचित खाने का प्रबंध किया गया था, न ही उन्हें घर भेजने का समुचित इंतजाम। ऐसी स्थिति में कुछ रेल से कटकर, कुछ ट्रक से दबकर और कुछ भूख से तड़पकर रास्ते में ही दम तोड़ रहे थे। अप्रत्याशित रूप से हुए लॉकडाउन ने देश को हिलाकर रख दिया, विशेषकर बिहार के मजदूरों को। यदि इस पर गंभीरता से आकलन किया जाए तो बिहार की दुर्दशा की जिम्मेदारी राजनीतिज्ञों के अतिरिक्त किसी पर नहीं डाला जा सकता, क्योंकि हर राज्य के विकास की जिम्मेदारी वहां के स्थानीय सरकार पर होती है, लेकिन यदि स्थानीय सरकार के मन में राज्य के विकास के लिए कोई जज्बा ही नहीं हो तो विकास कैसे हो सकता है! यही हाल अब तक बिहार का होता रहा है।

आजादी के कुछ वर्षों तक बिहार के विकास के लिए निश्चित रूप से कदम उठाए गए, लेकिन जैसे—जैसे समय गुजरता गया, सत्तारूढ़ लापरवाह हो गए। उनका जोश, उनका जज्बा राज्य के विकास के लिए कम होता गया और जनता भी उसी अविकसित राज्य में रहने को आदि हो गई। आज यदि बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में आप जाएं तो आपको ढूंढने से भी कोई नहीं मिलेगा। ऐसा नहीं है कि वह पास के शहर में अपने रोज़गार के लिए गया हो। वह दूर—दराज के राज्यों में अपने रोजी—रोटी की तलाश में गया होगा। ऐसा नहीं है कि देश के किसी राज्य में किसी को जाने पर रोक है। कोई भी रोजी—रोटी कमाने के लिए किसी भी राज्य में आ—जा सकता है। यह उसका संवैधानिक अधिकार भी है। लेकिन, बिहार की बात ही जुदा है, क्योंकि दूसरे राज्य के लोग रोजी—रोटी के लिए बिहार कभी क्यों नहीं आते। कारण स्पष्ट है बिहार कोई क्यों आएगा! वहां अब तक कोई उद्योग लगाया ही नहीं गया। जब रोजगार की उम्मीद ही न हो, दूसरे राज्य के लोग वहां आएंगे क्यों?

बिहार के सामान्य लोग निहायत ईमानदार, भोले—भाले और निर्मल हृदय के होते हैं। वह उलझन में नहीं पड़ना चाहते हैं। वह छोटी—छोटी बातों से ही खुश हो जाते हैं। इसीलिए तो हर जगह ठगी के शिकार होते हैं। अभी एक पढ़े—लिखे व्यक्ति ने बिहार के विकास पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि बिहार में बिजली अब करीब बीस घंटे उपलब्ध रहती है, अच्छी सड़कें बन गई हैं, लोग बिना डरे रात में भी सफर कर लेते हैं, लेकिन वह यह नहीं समझा पा रहे थे कि क्या भूखे पेट रहकर आपको बिजली पसंद आती है! पास में पैसा नहीं रहने पर रात में ऑटो से सफर आप क्यों करते हैं! यदि आप ऐसा करते हैं तो आप बिहार से बाहर रहते हैं और वहां हाड़तोड़ मेहनत के बाद उसका सदुपयोग आप बिहार आकर करते हैं। लेकिन, क्या आपके जिले में अथवा आसपास के किसी शहर में रोज़गार का कोई इंतजाम है? यदि नहीं तो जीवन—यापन के लिए आपको बिहार से बाहर क्यों जाना पड़ता है। मेरी सोच यह है कि राज्य के विकास का मानदंड यह होता है कि वह राज्य पर्याप्त मात्रा में अपनी जनता को सुरक्षा, रोजी—रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात की अच्छी व्यवस्था करे। आज सबकुछ अकूत मात्रा में होते हुए भी बिहार के लोग देश में ही प्रवासी कहे जाते हैं और दर—दर की ठोकरें खाकर जीवन गुजारते हैं। बिहार की जमीन उपजाऊ है, प्रचुर मात्रा में पानी है, जमीन की कोई कमी नहीं है, लेकिन वह आज भी प्रवासी हैं। अब देखना यह होगा कि कई दलों के मेल से बनने वाली नई सरकार इन सारी कमियों को दूर करने के लिए क्या कोई कदम उठाकर जानता के दुख—दर्द को दूर करती है या नहीं। इंतजार करिए दस नवंबर का और खुली आंखों से पांच वर्ष विकास का स्वप्न देखिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।

 

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