क्रिकेट माँगे मोर; लेकिन बाकी खेल कब सुधरेंगे? कब स्वदेशी की कद्र जानेंगे?

राजेंद्र सजवान

भले ही अधिकांश भारतीय खेल क्रिकेट को अपनी प्रगति में बाधक मानते हैं, जोकि सच नहीं है लेकिन यह सच्चाई है कि क्रिकेट ने कभी भी आलोचनाओं की परवाह नहीं की। उसकी अपनी दुनिया है, अपने कायदे क़ानून हैं। लेकिन जब जब क्रिकेट के अपनों ने आवाज़ उठाई या सुधार के लिए कोई सुझाव दिया है, भारतीय क्रिकेट बोर्ड, आईसीसी और तमाम इकाइयों ने समय रहते कदम भी उठाए हैं।  दूसरी तरफ अन्य भारतीय खेलों में जंगल राज चल रहा है। नियम और कायदे क़ानून जैसी कोई चीज़ बची नहीं।  यही कारण है कि 57 भारतीय खेल फ़ेडेरेशनों की मान्यता ख़तरे में है और मामला कोर्ट में चल रहा है।

क्रिकेट का ताज़ा विवाद आईपीएल में भाग लेने वाली टीमों के विदेशी कोचों को लेकर सामने आया है।  दिग्गज स्पिनर और कोच अनिल कुंबले ने हाल ही में एक बयान देकर कहा कि वह आईपीएल में अधिकाधिक भारतीय कोचों को देखना चाहते हैं।  अब पूर्व कप्तान और मंजे हुए बल्लेबाज़ों में शामिल रहे दिलीप वेंगसरकर कह रहे हैं कि आईपीएल टीमों में मात्र एक को छोड़ बाकी सभी के हेड कोच विदेशी क्यों हैं? दोनों ही पूर्व चैम्पियन अधिकाधिक भारतीय कोचों को नियुक्त करने के पक्ष में हैं।

कुंबले और वेंगसरकर का सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि देश में फिलहाल आत्म निर्भरता और स्वदेशी की बात चल रही है।  हालाँकि, क्रिकेट ना तो सरकारों की गुलाम है और ना ही उसे किसी की परवाह है।  लेकिन अपने कोचों और खिलाड़ियों को प्राथमिकता देना ग़लत नहीं है।  हैरानी तब होती है कि जब तमाम भारतीय ओलंपिक खेल विदेशी कोचों की वकालात कर रहे हैं।  फुटबाल, हॉकी, बैडमिंटन, टेनिस, टेबल टेनिस, जूडो, वेट लिफ्टिंग, कुश्ती, मुक्केबाज़ी निशाने बाजी, तीरन्दाज़ी और सभी खेलों में हमारे पास विदेशी कोच हैं। और विदेशी कोचों के रहते हमारे खिलाड़ियों ने कौनसे तीर चल दिए किसी से छिपा नहीं है।

जहाँ तक आईपीएल टीमों की बात है, उनके पास पर्याप्त बज़ट है और सभी टीमें अपनी सुविधा के हिसाब से फ़ैसला लेने के लिए स्वछन्द हैं। लेकिन अन्य खेलों के लिए विदेशी कोच देश के खेल बज़ट से खरीदे जाते हैं, जोकि बहुत महँगे पड़ते हैं। हैरानी वाली बात यह है कि आईपीएल का सालाना खर्च देश के खेल बज़ट से कई गुना ज़्यादा है। ऐसा नहीं है कि ओलंपिक और एशियाड में शामिल खेलों के लिए अपने देश में अच्छे कोाचों की कमी है। लेकिन पता नहीं क्यों साई और खेल फ़ेडेरेशनों को अपने कोच फूटी आँख  नहीं भाते। कई भारतीय पूर्व खिलाड़ी और ओलंपियन पूछते हैं कि आख़िर हमारा खेल मंत्रालय और साई विदेशी कोचों पर इतने मेहरबान क्यों हैं? पिछले तीस-चालीस सालों में जब से विदेशी कोचों पर निर्भरता बढ़ी है नतीजे बद से बदतर क्यों रहे हैं?

खेल एक्सपर्ट, जानकार और खिलाड़ियों को विदेशी पर अत्यधिक निर्भरता में बड़ा घोटाला नज़र आता है, जिसकी जाँच की ज़रूरत है। असंतुष्टों के अनुसार पिछले कुछ सालों में ओलंपिक और एशियाड में मिले अधिकांश पदक जीतने वाले खिलाड़ियों के गुरु खलीफा स्वदेशी थे। विदेशी तो बस राष्ट्रीय टीमों के चीफ़ कोच बनाए जाते हैं। उन पर लाखों करोड़ों खर्च होते हैं लेकिन आज तक शायद ही कोई विदेशी कोच किसी खेल की तस्वीर बदल पाया हो। अनुबंध के चलते उसे भारतीय खिलाड़ी प्रतिभा के धनी और खेल सोया शेर लगते हैं लेकिन जाते जाते उलाहना दे जाता है कि भारतीय खिलाड़ी कभी नहीं सुधर सकते।

दूसरी तरफ क्रिकेट में भारतीय कामयाबी उसके अपने कोचों की मेहनत का फल है। गावसकर, कपिल, सचिन, धोनी, विराट, रोहित और तमाम बड़े खिलाड़ी हमारे अपने कोचों ने तैयार किए हैं। बेहतर होगा आईपीएल टीमें भी अपने कोचों को सम्मान दें। लेकिन अन्य भारतीय खेलों  को तो विदेशी कोचों से पूर्ण छुटकारा ही बेहतर रहेगा। कारण, लाखों के कोच फ्लाप साबित हुए हैं। चूँकि देश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है इसलिए स्वदेशी को महत्व देने में भलाई रहेगी।

(राजेंद्र सजवान वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक है. इनके लिखे लेख आप www.sajwansports.com पर भी देख सकते हैं.) 

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