मध्यम वर्ग का दम घोटती आर्थिक मंदी

रीना सिंह, अधिवक्ता

भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, यानी 70% ग्रामीण आबादी वाले देश के सम्पूर्ण विकास का जब भी संदर्भ आएगा, गाँवों को प्राथमिकता मिलनी ही चाहिये, सीधे अर्थ में कहूँ तो आत्मनिर्भर और शहरी सुविधाओं से पूर्ण गाँवों की उपस्थिति ही सम्पूर्ण विकास की द्योतक हो सकती है। साथ ही, शहरों में उभरते मध्यम वर्ग की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति भी विकसित भारत का एक आवश्यकअंग होना चाहिये। यह सर्वविदित है कि आँकड़ों में अभी भारत विश्व की सबसे तेज़ी से वृद्धि करने वाली अर्थव्यवस्था बन चुका है।

भारत की आजादी के बाद की यात्रा एक मामूली कृषि प्रधान देश के रूप में हुई थी, एक लम्बी यात्रा के बाद भारत की अर्थव्यवस्था ने दो आंकिये वृद्धि दर को भी छुआ । आर्थिक वृद्धि का अर्थ है वास्तविक सकल घरेलु उत्पाद में वृद्धि तथा प्रभावी रूप से इसका मतलब है राष्ट्रीय आय, राष्ट्रीय उत्पादन और कुल व्यय में वृद्धि । आर्थिक विकास होने से जीवन स्तर में वृद्धि होती है और वस्तुओ तथा सेवाओं की अधिक खपत होती है ।

परिणामस्वरूप आर्थिक विकास गरीबी में कमी, बेरोजगारी में कमी, सार्वजानिक सेवाओं में सुधार तथा जीडीपी अनुपातों की तुलना अपेक्षाकृत कम ऋण आदि विभिन आर्थिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में मदद कर सकता है । वही दूसरी ओर धन की कमी विकास की गति को धीमा कर देती है जिसे हम आर्थिक मंदी कहते है । भारत की आबादी में इस समय नौजवानो की संख्या सब से ज़्यादा है । अर्थशास्त्र की भाषा में इसे ‘डेमोग्राफिक डिविडेंड कहा जाता है, लेकिन यह आबादी की एक ऐसी स्थिति है, जो किसी भी देश को बहुत बड़ा लाभ पंहुचा सकती है, क्योंकि आपके पास उत्पादक श्रम-शक्ति का अनुपात सबसे ज़्यादा है ।

लेकिन हम इसका लाभ नहीं उठा पा रहे, क्योंकि हमारे पास इस श्रम-शक्ति को देने के लिये पर्याप्तत काम ही नहीं है… रोजगार के अवसर ही नहीं है । यह काम बड़े पैमाने पर निवेश से ही हो सकता है और अर्थशास्त्रियो का कहना है कि इतने बड़े पैमाने पर निवेश देश में तभी आएगा, जब श्रम सुधार कि ये जायेंगे, यानी श्रम कानूनों को बदला जायेगा । लगभग वैसे ही, जैसे चीन ने किया । हमारे देश में श्रम सुधार एक जटिल व सवेंदनशील मामला माना जाता है, इसीलिए हमारे यहाँ यह विमर्श कभी शुरू ही नहीं हो सका कि भारत जैसे श्रम- बहुल देश में श्रम सुधारो कि जरुरत है । रोजगार उपलब्ध कराने में सब से अधिक योगदान विनिर्माण क्षेत्र का होता है, जो काफी समय से सुस्त चल रहाहै।

बेरोजगारी दूर करने के लिये चीन कि तरह हमे भी श्रमप्रधान उद्योगों को बढ़ावा देना होगा और कुछ ऐसा करना होगा कि इनमे उद्योगपतियों कि खास दिलचस्पी पैदा हो । व्यापार एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ भारत को स्वाभाविक बढ़त हासिल है । चीन में बढ़ती मजदूरी को देखते हुए हमारे लिये निर्यात बढ़ाना मुश्किल नहीं होना चाहिये था । इससे रोजगार पैदा होते और कृषि पर भी इसका असर होता । लेकिन निर्यात में बढ़ोतरी केवल श्रम सस्ता होने से नहीं हो जाती और निर्यात में आ रही कमी ने समस्या को और बढ़ाया है । जब सकल घरेलू उत्पाद के आकार की बजाय आम लोगों के जीवन यापन के स्तर को देखा जाता है तो देश की स्थिति कुछ और ही नज़र आती है। बिना सामाजिक स्तर पर बेहतर प्रदर्शन किये हम कैसे विकास का दावा कर सकते हैं? इसी प्रकार, अगर सिर्फ प्रति व्यक्ति आय या राष्ट्रीय आय को एक पैमाना मान लें तो खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्था में विरोधाभास मिलता है, जो सामाजिक और मानवीय रूप से निचले राष्ट्रों में गिने जाते हैं।

गरीबी पर देश के विकास का अभाव सिर्फ आँकड़ों में दिखाई देता है। गरीबी मुक्त भारत का सपना अभी सपना ही है क्योंकि आज़ादी के 80 साल होने को हैं और अभी भी 30-35% आबादी गरीब है। गरीबी में भी क्षेत्रीय विषमता है। बिहार, बंगाल, ओडिशा, झारखण्ड, राजस्थान  जैसे राज्य में गरीबों की मौजूदगी ज़्यादा है। बेरोज़गारी भी गरीबी के समान ही जी.डी.पी. वृद्धि के बावजूद देश के विभिन्न भागों में मौजूद है, कहीं कम तो कहीं ज़्यादा। जी.डी.पी. वृद्धि में भी असमानता है- गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली जैसे अगड़े राज्य जी.डी.पी. में ज़्यादा योगदान देते हैं तो वहाँ विकास के लक्षण (खास कर बेहतर सड़क, स्वास्थ्य सुविधा, शिक्षा, बिजली-पानी की उलब्धता इत्यादि) दिखाई पड़ते हैं क्योंकि बेहतर निवेश के कारण वहाँ पूंजीगत खर्च जनता के लिये सरकार और निजी संस्थाओं द्वारा किये जाते हैं, जिसका लाभ जनता को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मिल ही जाता है।

परंतु जी.डी.पी. वृद्धि दिखाने वाले राज्यों में भी सुविधाओं की उपलब्धता में असमानता है। साथ ही, जिन राज्यों में जी.डी.पी. वृद्धि एवं निवेश कम होता है, वहाँ विकास के अवसर सिर्फ शहरों के कुछ हिस्सों तक सीमित हो जाते हैं। अतः यह कहना कि देश की जी.डी.पी. वृद्धि समानता बढ़ाती है, ऐसा भी नहीं है। जी.डी.पी. वृद्धि के बावजूद हमारा मानव विकास सूचकांक वैश्विक स्तर पर अत्यंत दयनीय है। अगर हम अपने नागरिकों को बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, आवास, पानी, हवा नहीं दे पा रहे हैं तो जी.डी.पी. वृद्धि का कोई औचित्य नहीं रह जाता। जी.डी.पी. वृद्धि का निर्धारण मुख्यतः तीन क्षेत्रों- कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्र के विकास के आधार पर तय होता है। पिछले कुछ वर्षों में जी.डी.पी. में जो भी वृद्धि हुई वो वस्तुतः सेवा क्षेत्र के प्रगति पर टिकी हुई मानी जाएगी क्योंकि कृषि और उद्योग क्षेत्र में प्रायः प्रगति कम रही है।  कृषि में तो वृद्धि कुछ नकदी फसलों के उत्पादन पर निर्भर हो चुकी है। तो फिर क्या सिर्फ सेवा क्षेत्र की प्रगति को देश का संतुलित विकास कहा जा सकता है?

उदाहरण के लिये,  गुडगाँव, जो कि सेवा क्षेत्र का एक प्रमुख केंद्र बन चुका है, यहाँ की प्रगति सिर्फ गुडगाँव (अब गुरुग्राम) के विकसित सेक्टरों और आस-पास के क्षेत्रों में दिखाई पड़ती है, न कि आस-पास के गाँवों और पड़ोस के ज़िलों में। वस्तुतः यह छद्म विकास है। देश के मध्यम और उच्च वर्ग को ध्यान में रख कर निवेश अवसरों की उपलब्धता, उद्योगों का उत्पादन और कृषक फसलों का चयन भी देश के संतुलित विकास पर प्रश्न चिह्न लगाते हैं। जी .डी.पी. वृद्धि हो रही है, फिर भी कोर्पोरेट जगत सरकारी कर्ज़ों को दबाए बैठा है। बैक के निवेश गैर-निष्पादन कारी परिसंपत्तियों (Non Performing Assets – NPAs) में बदल रहे हैं। एक तरफ देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, तो दूसरी तरफ देश की 75% आबादी 20 रुपएया कम में गुज़ारा कर रही है, हर चौथा भारतीय भूखा है , किसान कर्ज़ के दबाव में आत्महत्या कर रहे हैं। हमारी वित्तीय प्रणाली जो आधार धन को जमा धन में परिवर्तित करती है सुचारु रूप से काम नहीं कर रही है । औपचारिक अर्थव्यवस्था का अधिकांश धन लेने देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन बैंको में जमा धन जो प्रचलित मुद्रा का 8 गुना है उसे बाजार में आने का रास्ता नहीं मिल पा रहा है । जब बैंक ऋण देते हैतो वे पैसा बनाते है, लेकिन जब वित्तीय प्रणाली प्रभावी ढंग से काम नहीं करती तो धन सृजन की यह प्रक्रियाधीमी हो जाती है ,जिसे धन गुणक भी कहा जाता है,का अनुपात गिर जाता है । मौजूदा समय में सभी सरकारी एवं निजी बैंक घाटे में है जिसका कारण बढ़ता NPA तथा सिमटता सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग है ।

बैंको के बड़े फ्रॉड भी किसी से छुपे नहीं है । जहा सरकार बैंको के विकट संकट के समय में आम नागरिक से डिजिटल इकॉनमी से जुड़ने पर जोर देर ही है, जबकि सरकार की नीतिया PMC जैसे बैंक घोटालो को रोकने में नाकामयाब रही है । बीते दो वर्षो में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लगभग 50  लाख लोगो ने अपना रोजगार खो दिया है, रिपोर्ट के अनुसार, नौकरी खोने वालों में ज़्यादातर कम शिक्षित है । अगला प्रश्न यह उठता है कि अर्थव्यवस्था में निवेश कि क्या स्थिति है? यदि सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी कि माने तो अप्रैल से जून 2019 के बीच मूल्य के हिसाब से नई निवेश परियोजनाओ की घोषणाओं में पिछले साल के मुकाबले करीब 80 प्रतिशत की गिरावट आई है । इसके आलावा निवेश परियोजनाओ के पूरे होने में भी 48 प्रतिशत की गिरावट आई है । इससे स्पष्ट है कि कारोबारियों को वास्तव में भारत के आर्थिक भविष्य पर भरोसा नहीं है, चाहे वे सार्वजनिक रूप से इस बात को माने या नमाने । ये सारे आर्थिक सूचक आर्थिक मंदी का संकेत कर रहे है ।

ऐसे समय में सरकार क्या कर सकती है ? बेहतर यह होगा कि सरकार ये पैसा उपभोक्ताओ के हाथो में दे और उन्हें खर्चा करने दे । यह कैसे होगा ? इसके लिये जरुरी है कि इन कम टैक्स की दरें इस साल के लिये कम की जाएं । दूसरा वस्तु एवं सेवा कर की दरों में भी कुछ संशोधन किया जाए । इससे उपभोक्ताओ के हाथों में कुछ पैसा आएगा और चीज़ो के दाम भी गिरेंगे । इससे फिर उपभोक्ताओ द्वारा अधिक उपभोग की संभावना बढ़ेगी । इसके साथ यहभी जरुरी है कि सरकार बीएसएनएल, MTNL और एयरइंडिया जैसी खस्ता हालत कंपनियों पर पैसा न गवाएं । सार्वजनिक क्षेत्रों के उद्योमो के पास जो जमीने है उन्हें भी बेचने की कोशिश होनी चाहिए । इससे सरकार के पास पैसा आएगा और उधार लेने की जरुरत कम होगी । सरकार अगर कम उधार लेगी तो ब्याज दरें भी कम होगी । इन सब चीज़ो के अलावा सरकार को यह भी कोशिश करनी पड़ेगी कि व्यापारियों के लिये चीज़ो को मुश्किल न बनाया जाए ।

एक सर्वेक्षण के मुताबिक, हमारे देश के सबसे अमीर व्यक्ति मुकेश अम्बानी की आय विश्व के 19 देशों से अधिक है, वहीं तस्वीर का दूसरा पहलू ये है कि देश की 30-35 % आबादी गरीबी रेखा के नीचे गुज़र-बसर कर रही है, वहीं 30% आबादी कुपोषण से पीड़ित है और 35% लोग अभी तक निरक्षर हैं। क्या इस स्थिति को देश का सम्पूर्ण विकास कहा जा सकता है? किसी देश के लोगों की खुश हाली से जी.डी.पी. का कोई रिश्ता नहीं है। खुशहाली सूचकांक मेंहम नीचे हैं। यूएनडीपी की ताजा रिपोर्ट बताती है कि क्यूबा जैसे देश का जी.डी.पी. नीचा हैं परंतु उसका मानव विकास सूचकांक बहुत ऊँचा है। इसके अलावा, कुछ ऐसे भी देश हैं जैसे अमेरिका और मेक्सिको जिनका जी.डी.पी. तो ऊँचा है पर मानव विकास सूचकांक बहुतअच्छा नहीं है। वर्तमान में पूंजीवाद पूरे विकास मॉडल पर छाया हुआ है।

सम्पत्ति और संसाधन कुछ हाथों में सिमटते जा रहे हैं और बहुसंख्यक आबादी का सीमान्तीकरण हो गया है। जी.डी.पी. वृद्धि विकास का एक सम्पूर्ण पैमाना नहीं हो सकता, पर विकास के लिये जी.डी.पी. वृद्धि ज़रूरी है।अब सवाल यह उठाता है कि पिछले दो दशकों में हुई जी.डी.पी. वृद्धि या भविष्य में होने वाली अपेक्षित तीव्र वृद्धि सम्पूर्ण भारत के विकसित स्वरूप को बयाँ करती है या फिर इससे सिर्फ इंडिया” ही लाभान्वित हो रहा है और इसके मुकाबले भारत कहीं पीछे छूट गया है।

(लेखिका सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं। चिरौरी न्यूज़ का लेख में दिए गए विचारों से सहमत होना अनिवार्य नहीं है।)

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