खेल मंत्रालय और नाडा फेल

राजेंद्र सजवान
कनाडा के बेंजामिन सिंक्लेयर जानसन को जब 1988 के सियोल ओलंपिक में 100 मीटर की फर्राटा दौड़ जीतने के बाद अयोग्य घोषित किया गया तो कुछ आलोचकों ने इसे अमेरिकी साजिश बताया था। कारण, उस दौड़ में अमेरिका के दिग्गज कार्ल लेविस भी शामिल थे, जिन्हें जानसन की विफलता के बाद विजेता घोषित किया गया। कनाडा के धावक पर प्रतिबंधित दवा के सेवन का आरोप था और डोप टेस्ट में उसे धर दबोचा गया। तब एक जाने माने भारतीय कोच ने कटाक्ष करते हुए कहा  “काश कोई अपना एथलीट जानसन की तरह दौड़ पूरी कर पाता, फिर भले ही डोप में पकड़ लिया जाता”।

दूध के  धुले नहीं:

कोच का यह विवादास्पद बयान भले आफ रिकार्ड था लेकिन उसकी पीड़ा और भारतीय खिलाड़ियों के दयनीय प्रदर्शन का अनुमान लगाया जा सकता है। सालों से भारतीय एथलीट और खिलाड़ी ओलंपिक में भाग ले रहे हैं लेकिन 1988 तक एक भी खिलाड़ी ओलंपिक में व्यक्तिगत स्वर्ण पदक नहीं जीत पाया था। संभवतया इसी झल्लाहट में कोच साहब अपना गुस्सा दिखा रहे थे। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि भारतीय खिलाड़ी और कोच दूध के धुले हैं और ग़लत तरीके अपनाकर पदक जीतने से परहेज करते हैं। यदि ऐसा होता तो भारत उन देशों की लिस्ट में टाप पर क्यों होता, जो खिलाड़ी बार बार और लगातार डोप में धरे जा रहे हैं और प्रतिबंधित दवाओं के सेवन में लगातार रिकार्ड कायम कर रहे हैं। अर्थात हमारे खिलाड़ी सालों से प्रतिबंधित दवाएँ ले रहे हैं फिरभी कामयाब नहीं हो पाते। इस प्रकार भारतीय खेलों को दोहरी मार सहनी पड़ रही है। एक तो पदक नहीं जीत पाने का अपयश और दूसरे डोप में पकड़े जाने और सज़ा पाने पर थू थू हो रही है।

दोषी कौन?

पिछले साल वर्ल्ड डोपिंग रोधी संस्था(वाडा) ने भारत की नेशनल डोप टेस्टिंग लेबोरेटरी (एनडीटीएल) पर अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरे नहीं उतरने के चलते चार महीने का प्रतिबंधा लगा दिया था। तत्पश्चात  भारतीय खिलाड़ियों के सैंपल दोहा की लबोरेटरी को भेजे  जा रहे हैं ,जोकि बहुत ज़्यादा महँगी पड़ रही है। वाडा ने भारत की राष्ट्रीय डोपिंग रोधी संस्था(नाडा) को फिर से विफलता का सर्टिफिकेट दिया है और भारतीय टेस्टिंग लेबोरेटरी पर 17 जुलाई से छह महीने का प्रतिबंध बढ़ा दिया है। ज़ाहिर है नाडा ने वाडा के निर्देशों का सही ढंग से पालन नहीं किया, जिस कारण से देश के खेलों और खेल मंत्रालय का नाम खराब हुआ है। यूँ भी कह सकते हैं कि जो नाडा पिछले 11 महीनों से एक मान्यता प्राप्त लैब के बिना चल रहा है उसके अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लग गया है।

मंत्रालय और वाडा कटघरे में:
एक तो कोविद की मार उपर से देश के 57 खेल संघों को कोर्ट ने अमान्य करार दिया है। ज़ाहिर है भारतीय खेल चौतरफ़ा समस्याओं से घिर गए हैं। लेकिन यह नींम चढ़ा करेला है की मानता ही नहीं देश के अधिकांश खेल संघों को शायद खिलाड़ियों की कोई परवाह नहीं रह गई है। खिलाड़ी कोरोना काल में कहाँ है और क्या कर रहे हैं, जैसे गंभीर पहलुओं पर किसी का ध्यान नहीं है। भले ही खिलाड़ियों का अभ्यास बाधित है लेकिन कौन जानता है कि खुद को फिट और चुश्त दुरुश्त रखने के लिए कोई प्रतिबंधित दवा तो नहीं ले रहे। लेकिन अपनी कमज़ोरियों के चलते खेल मंत्रालय और नाडा के पाले में कुछ नहीं बचा।यदि मंत्रालय वाडा के आदेश को चुनौती देता है तो शायद कोई बात बन जाए।

खेल में फिसड्डी,नशाखोरी में अव्वल:

नशीले और प्रतिबंधित पदार्थों के सेवन के मामले में भारत का नाम इसलिए ज़्यादा खराब नहीं कहा जा सकता क्योंकि आपने यह कहावत तो सुनी होगी, “जिसका नाम होगा तो बदनाम भी वही होगा”। जी हाँ, ओलंपिक खेलों में भारत कभी भी बड़ी ताक़त के रूप में नहीं जाना पहचाना गया। सबसे बड़ी आबादी वाला दुनिया का दूसरा बड़ा देश हमेशा से फिसड्डीयों में शुमार रहा है। कभी कभार कोई पदक मिल जाता है, जिसे पाकर खेल संघों के दिमाग़ खराब हो जाते हैं और खिलाड़ियों पर से ध्यान हटा लेते हैं। नतीजा यह कि भारत में डोप में पकड़े जाने वाले खिलाड़ी साल दर साल बढ़ रहे हैं। एथलेटिक, पावर लिफ्टिंग, बॉडी बिल्डिंग, वेट लिफ्टिंग, मुक्केबाज़ी, कुश्ती, जूडो, फुटबाल, वुशु, हॉकी और तमाम खेलों में भारतीय खिलडी धरे जाते रहे हैं।

आईओए और खेल संघ दो फाड़:
इसे भारतीय खेलों का दुर्भाग्य कहेंगे कि एक तरफ तो टोक्यो ओलंपिक चुनौती बनकर खड़ा है तो दूसरी तरफ भारतीय खेल अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं। कोरोना के डर से तैयारियों  को आघात पहुँचा है। तिस पर आलम यह कि भारतीय ओलंपिक संघ की गुटबाजी ने भारतीय खेल संघों को गुटों में बाँट दिया है। मान्यता समाप्त होने के बाद खेल संघों को अपने खिलाड़ियों से जैसे कोई सरोकार नहीं रह गया। कौन क्या खा-पी रहा है कोई पूछने वाला नहीं। कुछ खिलाड़ियों से बातचीत करने पर पता चला कि विदेशी और स्वदेशी कोचों में कभी भी तालमेल नहीं रहा। ऐसे  में कुछ खिलाड़ी भटक जाते हैं और बेहतर करने की चाह में ग़लत तरीके अपना लेते हैं।

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं। ये उनका निजी विचार हैचिरौरी न्यूज का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं है।आप राजेंद्र सजवान जी के लेखों को  www.sajwansports.com पर  पढ़ सकते हैं।)

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