आदर्श शिक्षक की जगह अब फर्जी द्रोणाचार्य
राजेन्द्र सजवान
‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े…’, संत कबीर दास की इन पंक्तियों का महत्व युगों युगों तक रहेगा। भले ही हमारे समाज में गुरु की महिमा को कमतर आंकने की होड़ ही क्यों न लगी हो। लेकिन जहां गुरु का दर्जा भगवान से पहले या समकक्ष नहीं होगा वह समाज शायद ही कभी तरक्की कर पाएगा। दुर्भाग्य वश भारतीय खेलों में आदर्श शिक्षक की जगह फर्जी द्रोणाचार्य ले रहे हैं।
शिक्षक दिवस पर अपने खेल गुरुओं की महिमा का बखान करना बनता है। उन्हें गुरु, अध्यापक, कोच, खलीफा, मास्टर कुछ भी कह लें लेकिन भारतीय खेलों में गुरु शिष्य परंपरा का निर्वाह कुछ खेलों तक ही सीमित रहा है। इसलिए क्योंकि भारतीय समाज में गुरु की महानता और शिष्यों के समर्पण भाव में लगातार गिरावट आ रही है। कारण कोई भी हो पर गुरु हनुमान, आचरेकर और नाम्बियार जैसे गुरु सालों साल बाद भी देखने को नहीं मिल पा रहे। नतीजन सतपाल, करतार, सचिन तेंदुलकर और पीटी उषा जैसी प्रतिभाएं दशकों बाद भी नहीं उभर पा रहीं।
भारतीय खेलों पर सरसरी नज़र डालें तो हमारे खिलाड़ियों की बड़ी कामयाबी के पीछे उनके अपने गुरुओं का हाथ रहा है। गुरु श्रेष्ठ गुरु हनुमान के अखाड़े बिरला व्यायामशाला से भले ही कोई ओलंपिक चैंपियन न निकला हो लेकिन सैकड़ों अंतर्रराष्ट्रीय पहलवान; राज सिंह, महा सिंह राव, जगमिंदर, सतपाल जैसे मंजे हुए गुरु इसी अखाड़े की मिट्टी में पैदा हुए। अनेकों अर्जुन अवार्डी भी बिड़ला व्यायामशाला की मिट्टी में लोट पोट कर चैंपियन बने।
पीटी उषा जैसा हीरा तराशने वाले नाम्बियार का नाम भारतीय एथलेटिक जगत में अमर हो गया है । उषा की उपलब्धियों ने अपने गुरु के गुरुत्व गुणों का परचम फहराया तो भारत रत्न सचिन के साथ हमेशा हमेशा उनके गुरु आचरेकर का नाम जुड़ा रहेगा। मुक्केबाजी में हवा सिंह और ओपी भारद्वाज का नाम भी बड़े आदर से लिया जाता है।
भारतीय फुटबाल की भले ही आज हवा निकल गई है लेकिन दो एशियाड स्वर्ण जिताने वाले और भारतीय फुटबाल को ओलंपिक खेलने लायक बनाने वाले रहीम हमेशा महान गुरु के रूप में याद किए जाते रहेंगे। भारतीय हॉकी को उसके स्वर्ण काल में कई अच्छे गुरुओं का मार्गदर्शन मिला। बैडमिंटन में प्रकाश पादुकोन और गोपी चंद ने अनेक खिलाड़ियों को पहचान दिलाई। इस खेल में मिली कामयाबी के पीछे हमारे कोचों की मेहनत का बड़ा हाथ रहा। अन्य कई खेलों में भी कई देसी गुरु सम्मान के पात्र रहे हैं।
लेकिन पिछले कुछ सालों में हमारे अपने गुरूओं और कोचों पर से विश्वास उठना चिंताजनक है। उनकी जगह विदेशी कोच ले रहे हैं। हालांकि विदेशी कोच कोई बड़ा करिश्मा नहीं कर पाए पर हमारे अपने गुरुओं पर विश्वास कम हुआ और उनके सम्मान का ग्राफ तेजी से गिरा है। अपनों की उपेक्षा और विदेशी को सिर चढ़ाने का ही नतीजा है कि श्रेष्ठ गुरुओं को दिया जाने वाला द्रोणाचार्य अवार्ड भी उपहास का पात्र बन गया है। खेल जानकर पूछते हैं कि जब अपने गुरु विफल रहे हैं तो उन्हें राष्ट्रीय सम्मान रेबड़ी की तरह क्यों बांटे जा रहे हैं?
इसमें दो राय नहीं कि द्रोणाचार्य अवार्ड ऐसों को भी मिल रहा है जिन्होंने कोई अर्जुन तैयार नहीं किया। गंदी राजनीति के चलते गुरुओं का सम्मान घट रहा है। नतीजन कबीर दास का दोहा गुरु शिष्य रिश्तों पर सटीक नहीं बैठ रहा। फिरभी हमें यदि खेलों में नाम- सम्मान कमाना है तो गुरु और कोच के संबंधों को गहराई और गंभीरता से समझने की जरूरत है। यदि विदेशी का मोह त्याग कर अपनों पर भरोसा किया जाए तो शायद एक दिन हमारे गुरु और गोविंद का कद कबीर दास के आकलन पर खरा बैठ सकता है।
(राजेंद्र सजवान वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं. इनके लेखों को आप www.sajwansports.com पर भी पढ़ सकते हैं.)