गहलोत का निधन: कबड्डी का मसीहा नहीं रहा

राजेंद्र सजवान

भारतीय कबड्डी को मिट्टी और दलदल से फाइव स्टार तक पहुँचाने वाले और उपेक्षित खिलाड़ियों को लाखों का मालिक बनाने वाले भारतीय कबड्डी महासंघ (केएफआई) के संस्थापक अध्यक्ष जनार्दन सिंह गहलोत का निधन कबड्डी के लिए बड़ी क्षति माना जा रहा है। जो शख्स 28 साल तक किसी संस्था का अध्यक्ष रहा हो उसके निधन को किसी खेल विशेष के लिए  बड़ा आघात ही कहा जाएगा। भारतीय ओलम्पिक संघ के अध्यक्ष और सचिव राजीव मेहता, कई जाने माने कोचों और खिलाड़ियों ने स्वर्गीय गहलोत के निधन पर गहरा शोक व्यक्त किया है। वह भारतीय ओलम्पिक समिति के उपाध्यक्ष और राजस्थान ओलम्पिक समिति के अध्यक्ष भी थे।

एक जमाना था जब कबड्डी का नाम सुनते ही मीडिया और अन्य खेलों से जुड़े लोग बुरा मुँह बना लेते थे।  कबड्डी की कहीं कोई पूछ नहीं थी। उसे ग़रीब, गँवारों और ग्रामीणों का खेल माना जाता रहा। वह दौर था जब अध्यक्ष गहलोत मीडिया से अनुनय विनय करते देखे जा सकते थे। हालाँकि वह राजस्थान के मंजे हुए नेता थे और अनेकों बार भाजपा और कॉंग्रेस के शीर्ष पदों का दायित्व निभाने का मौका मिला लेकिन उनकी प्राथमिकता कबड्डी बन चुकी थी। युवक कॉंग्रेस के इस मंजे हुए नेता ने तीन बार पूर्व उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत को करौली विधान सभा सीट से हरा कर ख्याति पायी।

हालाँकि वह एक विशुद्ध राजनेता थे लेकिन लगभग चालीस साल पहले उन्होने उपेक्षित खेल कबड्डी को गोद लिया और तमाम आरोप प्रत्यारोपों के बावजूद कदम पीछे नहीं हटाया। वह अक्सर कहा करते थे कि कबड्डी को एशियाड  और ओलम्पिक खेल बनाना उनकी पहली प्राथमिकता है। अनेक अवसरों पर पत्रकारों ने उनका  और कबड्डी का उपहास भी उड़ाया लेकिन जब कबड्डी को 1990 के एशियाड में खेल का दर्जा मिला और भारत ने स्वर्ण पदक जीता तो उनके आलोचकों ने उन्हें गंभीरता से लेना शुरू कर दिया। यह उनके अथक प्रयासों का ही फल था कि भारतीय कबड्डी टीम ने लगातार सात बार एशिययाई खेलोंका स्वर्ण पदक जीता और विश्व विजेता भी बनी।

लेकिन उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि प्रो कबड्डी लीग का आयोजन रही। स्टार स्पोर्ट्स के साथ मिल कर उन्होने अपने खेल के लिए प्लेटफार्म तैयार किया और फिर एक दिन वह भी आया जब कबड्डी खिलाड़ियों की बोलियाँ लगनी शुरू हुईं और क्रिकेट के बाद कबड्डी टीवी रेटिंग में अव्वल नंबर पर आँकी गई। प्रो. लीग ने गाँव के खिलाड़ियों को लखपती बना दिया तो शहरों के स्कूल कालेजों में भी खेल के लिए माहौल बना।

बेशक, कबड्डी का मसीहा नहीं रहा। अब उनके उत्तराधिकारियों पर निर्भर करता है कि वे कैसे अपने खेल को सँवांरते हैं। जिस दिन कबड्डी ओलम्पिक खेल का दर्जा पा लेगी उस दिन स्वर्गीय गहलोत का सपना भी पूरा होगा। यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि भी होगी।

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