हे नियंता, जनता आपको जवाब देगी

निशिकांत ठाकुर

कोरोना काल से लेकर कुछ दिन तक पहले तक दिल्ली एनसीआर में रहा। अपने घर की चाहरदीवारी और सोसायटी के अंदर। हाल के दिनों में लगातार यात्रा में रहा। अपनी माटी में। गांव में। कोशी के कछेर में। रेणु जी की धरती में। मैला आंचल वाले रेणु जी। लिहाजा, भागम-भाग में रहने के कारण आप सब के सामने अपना कोई विचार रख नहीं पाया। कोई लेख नहीं लिख पाया । ऐसा नहीं कि विचार नहीं आया हो। इस बीच कई बातों की तरफ विचार गया था कि इस पर कुछ लिखूं , लेकिन समय नहीं मिल पाया और बात आई और चली गई ।

बता दूं कि फणीश्वरनाथ रेणु, मुंशी प्रेमचंद के बाद के काल के सबसे प्रमुख रचनाकार हैं। मैला आंचल, परति परिकथा सहित कई उपन्यासों के रचनाकार रेणु रिपोर्ताज भी लिखते थे। उनके प्रसिद्ध रिपोर्ताज में बाढ़ पर ‘जै गंगे’ (1947), ‘डायन कोसी’ (1948), ‘अकाल पर हड्डियों का पुल’ तथा ‘हिल रहा हिमालय’ आदि प्रमुख हैं। ‘डायन कोसी’ इनमें सर्वाधिक चर्चित माना गया है। इसका कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। लगभग 73 साल पहले लिखा गया रेणु का ‘डायन कोसी’ रिपोर्ताज बाढ़ और कोसी के कई अनसुलझे पहलुओं को समझने में मदद करता है।

इधर कुछ दिनों के लिए बिहार गया था। उत्तरी बिहार की दुर्दशा देखकर एक बार फिर मन व्याकुल हो गया। ऐसा लगने लगा कि जितनी जल्दी हो सके वापस अपनी मंजिल पर पहुंचो। युवावस्था के दौर में ऐसे ही उचाट आया था। गांव छोडकर निकल गया था। वैसे बारिश तो अभी रुकी हुई थी, लेकिन चारों ओर पानी ही पानी को देख किसी का भी दिल दहल सकता है । जिस रास्ते से गुजरता था वहां यह सोच कर हृदय धड़क उठता था कि इन विषम परिस्थितियों में किस प्रकार लोग अपना जीवन जी रहे हैं ।
रात के सन्नाटे में छिन्नमस्ता कोसी अपने असली रूप में गरजती हुई आती हैं। आ गई…. मैया आ गई। जय, कोसी महारानी की जय…. विक्षुब्ध उत्ताल तरंगों और लहरों का तांडव नृत्य…, मैया की जय-जयकार हाहाकार में बदल जाती है। इंसान, पशु, पक्षियों का सह रुदन। कोसी की गड़गड़ाहट, डूबते और बहते हुए प्राणियों की दर्द भरी पुकार रफ्ता-रफ्ता तेज होती जाती है मगर आसमान बच्चों का बैलून नहीं जो यूं ही बात-बात में फट जाए। सुबह को पुराने पीपल की फुनगी पर बैठा हुआ ‘राजगिद्ध’ अपनी व्यापक दृष्टि से देखता है और पैमाइश करता है। पानी… पानी… पानी. और इस बार तो सबसे ऊँचा गांव बलुआटोली भी डूब गया। उंह. पीपल की फुनगी पर बैठ कर जल के फैलाव का अंदाज लगाना असंभव। राजगिद्ध पंखों को तौल कर उड़ता है। चक्कर काटता हुआ आसमान में बहुत दूर चला जाता है, फिर चक्कर काटने लगता है, मानो कोई रिपोर्टर कोसी की विभीषिका का आँखों देखा हाल ब्रॉडकास्ट करने के लिए हवाई जहाज में उड़ रहा है। पानी… पानी…. जहां तक निगाहें जाती हैं, पानी ही पानी। हम अभी सहरसा जिले के उत्तरी छोर पर उड़ रहे हैं।

चाहे मनुष्य हो अथवा पशु सब पानी में डूबे एक साथ रह रहे हैं । उसी पानी में खाना रहना, अपना नित्यकर्म करना , खुद का खाना और अपने मवेशियों के लिए चारा का इंतजाम करना । ऐसा कैसे करते होंगे । क्या सरकार इतनी सक्षम है कि वह इन पीड़ितो के लिए राशन पानी और मवेशियों के लिए चारा का इंतजाम कर रही है । राष्ट्रीय राजमार्ग पर झोपड़ पट्टी बनाकर रहना वहीं खाना पीना , अपने मवेशियों को अपने साथ रखना और उनके लिए पशु आहार का इंतजाम करना कैसे संभव होता होगा । जो आंखों से देखा वह सत्य है और यह भी सत्य है कि ऐसा बिहार में पहली बार नहीं, वर्षों से होता आया है । चाहे किसी की भी सरकार आजादी के बाद से अब तक रही हो सभी सरकारों का सामना इन समस्यों से होता रहा है, लेकिन कोई भी इन निरीह प्राणी और पशुओं के लिए अब तक पक्का इंतजाम नहीं किया ।

इन सारी समस्याओं का समाधान हम आप नहीं कर सकते , हम आप तो केवल सलाह ही दे सकते हैं। काम और विकास तो केवल सरकार ही कर सकती है । पर, सच मानिए इस राज्य पर न तो केंद्रीय सरकार ने ध्यान दिया और राज्य सरकार की तो बात ही छोड़ दीजिए । आजकल तो यह प्रवृत्ति सरकार की हो गई है, जिसका कहना यह होता है यह मेरी नहीं , पिछली सरकार की देन है । ऐसी जज्बातों का मतलब अब हर कोई समझता है। बिहार के लोग वैचारिक स्तर पर अधिकाधिक सजग हैं।

अब सोचने की और समझने की बात यह है कि बिहार की इन समस्याओं के लिए पिछले तीस वर्षों में लालू यादव की सरकार रही और अब पिछले पंद्रह वर्षों में नीतीश बाबू की सरकार है । अब इस बात को जानते समझते हुए कौन किस पर अंगुली उठाएगा । कौन किसको टोपी पहनता है । कुछ भी हो किसी की भी सरकार रही हो किसी ने बिहार के विकास के लिए कोई कार्य नहीं किया । इन बरसात के दिनों में उत्तरी बिहार डूब जाया करता था क्योंकि नेपाल का सारा पानी कोसी नदी के द्वारा उत्तरी बिहार में आकर उत्तरी बिहार को डूबो दिया करता था । भला हो पूर्व प्रधानमंत्री स्व० जवाहर लाल नेहरू का जिन्होंने बीरपुर में उस पानी के बहाव को रोकने के लिए विशाल 56 फाटकों के डेम का निर्माण कराया । उसके लाखो जीवन में आशा की लौ दिखाई देने लगी , लेकिन उसके बाद जिन्हें भगीरथ प्रयास करना चाहिए था। वह अपने उद्दार का प्रयास करते रहे जनहित के उद्गार की बात तो दिल से वह सोचते नहीं । और शायद यही कारण है कि बिहार आज देश के 24 वें नंबर का राज्य बनकर रह गया है ।

एक बड़ी पुरानी कहावत है कि चेहरे को ही देखकर हम भिखारी को भी भीख देते है , लेकिन यदि आपका रुदन लोगों को प्रभावित नहीं कर रहा है तो आप उसकी ट्रेनिंग क्यों नहीं लें लेते । आज तो हर छोटे बड़े कमो की ट्रेनिंग दी जाती है । यदि हम पहले से ही अपने को दरिद्र , निरीह कहकर लोगांे को प्रभावित करना चाहेंगे तो वह आपकी हंसी उड़ाएंगे , उपहास करेंगे । मैंने अपनी आंखो से देखा है और कानों से सुना है कि हमारे राज्य के नेता देश के नेता से बात कर रहे हों अथवा किसी दूसरे राज्य के नेताओं से वह यही रोते हैं की मै तो गरीब राज्य का नेता हूं ।आचरण और भाव भंगिमाओं से ऐसा नहीं लगते, लेकिन कुंठित मानसिकता के ऐसे नेता अपनी तो खिल्ली उड़ाते ही हैं अपने राज्य की जनता को उनकी नजर में छोटा और दरिद्र बना देते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि जब वहां के कामगार बाहर काम करने जाते हैं तो उन्हें प्रवासी कहा जाता है उसके साथ दोयम दर्जे के नागरिक जैसा बर्ताव किया जाता है ।

यही तो हुआ इस कोविड 19 के लॉकडाउन में जब देश भर के लाखों मजदूर अपने अपने घर लौट रहे थे तो उस काल में सबसे अधिक जलालतो का सामना बिहार के इन कामगारों को ही तो उठाना पड़ा है । सैकड़ों ही नहीं हजारों मिल का सफर अपने कंधो पर अपनी गृहस्थी का बोझ उठाए और बगल में अबोध शिशु दबाए इस सफर को अंतिम समय तक पूरा करने का प्रयास किया । कुछ तो इसे पूरा कर अपने घर पहुंच गए कुछ चलते चलते या तो दुर्घटनाग्रस्त होकर काल के गाल में समा गए अथवा अन्न पानी के बिना दम तोड़ दिया । इसका उल्लेख इसलिए कर रहा हूं क्योंकि यदि हमारे राज्य में जीने का कोई साधन होता तो हम इस दुरूह संकट में पड़कर अपना प्राण त्यागने के लिए विवश क्यों होते ।
अब यदि कोई सरकार से पूछे कि आपने कितने रोजगार अपने राज्य के बेरोजगार युवाओं को दिया , तो मुझे नहीं लगता कि इसका कोई समुचित उत्तर आपको मिले क्योंकि सरकार के द्वारा ऐसा कोई प्रयास ही नहीं किया गया वहीं सिफर , शून्य । इस भयंकर स्थिति में भी चुनाव सर पर है । समझ में नहीं आता कि इस स्थिति में चुनाव कैसे कराया जाएगा और कौन डूबते उतरते वोट डालने पोलिंग बूथ पर पहुंच पाएगा । लेकिन , हो सकता है कि चुनाव आयोग ने अपना सर्वेक्षण कराया हो । जो भी हो बिहार में जो भी चुनाव जीतकर आएगा वह इन समस्याओं के अंबार से कैसे लड़ पाएगा । वैसे जिसके मन में अपने राज्य के विकास के प्रति जज्बा होगा उसके लिए कोई कठिन काम तो नहीं ही होगा , लेकिन कोई समय काटने के उद्देश्य से सत्ता की कुर्सी पर बैठेगा तो उसकी बात ही अलग होगी जैसा आज बिहार के उप मुख्यमंत्री मान्यवर सुशील मोदी कहते हैं कि रांची जेल में बंद लालू प्रसाद यादव उनकी सरकार को काम नहीं करने दे रहै है ।

धिक्कार है ऐसे नेताओं पर जो सत्तासीन रहते हुए जेलमे बंद व्यक्ति के लिए कहते हैं कि वह उनकी सरकार को काम करने नहीं देते । ऐसा कमजोर व्यक्ति बिहार जैसे राज्य का भला कभी नहीं कर सकता पर हां अपने मुहजोर गाल बजाने के कारण भोली भाली जनता को गुमराह जरूर करता रहेगा । इसलिए इस सबसे निजात केवल जनता ही दिला सकती है यदि वह तय कर ले । इसका इलाज केवल चुनाव है तभी बिहार का भविष्य में विकास संभव ।

साल में छह महीने बाढ़, महामारी, बीमारी और मौत से लड़ने के बाद बाकी छह महीनों में दर्जनों पर्व और उत्सव मनाते हैं। पर्व, मेले, नाच, तमाशे! सांप पूजा से लेकर सामां-चकेवा, पक्षियों की पूजा, दर्द-भरे गीतों से भरे हुए उत्सव! जी खोल कर गा लो, न जाने अगले साल क्या हो। इसलिए कोसी अंचल में बड़े-बड़े मेले लगते हैं। सिर्फ पौष-पूर्णिमा में कोसी के किनारे, मरी हुई कोसी की सैकड़ों धाराओं के किनारे भी सौ से ज्यादा मेले लगते हैं। कोसी नहान मेला और इन मेलों में पीड़ित प्राणियों की भूखी आत्माओं को कोई स्पष्ट देख सकता है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

 

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