जन्म दिवस कैसे बना खेल दिवस
राजेंद्र सजवान
भले ही हॉकी जादूगर मेजर ध्यान चन्द को उनके अपने देश ने वह सम्मान नहीं दिया, जिसके हकदार थे लेकिन यह क्या कम है कि उनके जन्म दिवस(29 अगस्त) को भारत के खेल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस अवसर पर राष्ट्रीय खेल अवॉर्ड बाँटने की रस्म भी अदा की जाती है, जिसमें देश के चुने हुए खिलाड़ियों को खेल रत्न, द्रोणाचार्य , ध्यान चन्द और अर्जुन अवार्ड दिए जाते है। लेकिन क्रिकेट के पागलपन में डूबे देश ने दद्दा के जन्मदिन को राष्ट्रीय खेल दिवस के रूप में मनाने का फ़ैसला यूँ ही नहीं किया। उनके कुछ करीबीयों, हॉकी प्रशासकों, हॉकी प्रेमियों और आम आदमी को एक ऐसे अभियान से जुड़ना पड़ा जिसकी अगुवाई झाँसी के सांसद पंडित विश्वनाथ शर्मा कर रहे थे।
दरअसल, नेहरू हॉकी टूर्नामेंट सोसायटी के सचिव शिव कुमार वर्मा की दिली इच्छा थी कि विश्व हॉकी के महानतम खिलाड़ी के जन्मदिन को यादगार बनाया जाए। उन्होने एक दिन मीडिया के सामने यह प्रस्ताव रखा और देशभर में ध्यान चन्द जी के जन्मदिन को खास बनाने के लिए जोरदार माँग शुरू हो हो गई। वर्मा जानते थे कि जिस रफ्तार से भारत में क्रिकेट की लोकप्रियता बढ़ रही है और भारत का राष्ट्रीय खेल हॉकी शिखर से लुढ़क रहा है, ऐसे में वह दिन दूर नहीं जब ध्यान चंद को भुला दिया जा सकता है। अतः उन्होंने इस दिशा में प्रयास शुरू कर दिए।
ध्यानचन्द जी के परम स्नेही और प्रशंसक पंडित विश्वनाथ, शिव कुमार वर्मा, अशोक ध्यान चन्द, ओलम्पियनों और तमाम पत्रकारों की कड़ी मेहनत अंततः रंग लाई । प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव सरकार ने 1994 के 29 अगस्त को राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित कर दिया। तत्कालीन खेल मंत्री मुकुल वासनिक ने ज़रा भी विलंब नहीं किया और यह कहते हुए पूरे देश को गदगद किया कि देश की महान हस्तियों को याद करने के लिए हर मौका खोजा जाना चाहिए। उन्होने दद्दा की याद को खेल दिवस के रूप में मनाने के लिए पंडित जी और वर्मा जी के प्रयासों को सराहा।
29 अगस्त 1995 को मेजर ध्यानचंद की मूर्ति राजधानी के नेशनल स्टेडियम में स्थापित की गई और नेशनल स्टेडियम को ध्यान चंद स्टेडियम के नाम से जाना जाने लगा। इसी के साथ उस परंपरा की शुरुआत हो गई जिसके लिए देश के हॉकी प्रेमी और खिलाड़ी सालों से इंतज़ार कर रहे थे। अर्थात 1928, 1932 और 1936 के ओलंपिक स्वर्ण विजेता और विश्व के श्रेष्ठतम खिलाड़ी को सम्मान पाने के लिए लगभग साठ साल तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। बेहतर होता ध्यान चन्द को जीते जी यह सम्मान मिल गया होता। हैरानी वाली बात यह है कि जिस खिलाड़ी ने भारत को पूरी दुनिया में पहचान दी और एक ऐसा रिकार्ड कायम किया जिसे तोड़ पाना शायद ही भारतीय हॉकी के लिए कभी सम्भव हो पाए, उसे सरकारों ने अपने विवेक से कभी याद नहीं किया।
जिस खिलाड़ी ने हिटलर जैसे तानाशाह को झुका दिया और जिसके नेतृत्व में भारत ने जर्मनी को उसके हज़ारों समर्थकों के सामने सिर झुकाने के लिए मजबूर किया उसके सम्मान में हमारी अपनी सरकारों ने श्रेय लूटने के सिवाय और कुछ नहीं किया। आख़िरकार, पंडित विश्वनाथ और शिव कुमार वर्मा की मेहनत रंग लाई। वरना ध्यान चन्द के नाम को कब का भुला दिया जाता। गनीमत है उन्हें अब जन्मदिन पर स्वतः याद कर लिया जाता है।
हालाँकि राजनीति करने वाली सरकारों के बहुत से नेता सांसद हॉकी के महान योद्धा को खेल दिवस जैसा बड़ा सम्मान देने के लए तैयार नहीं थे| कुछ एक ऐसे भी थे जो क्रिकेट के मारे थे। ऐसे में पंडित जी ने जब लोक सभा के पटल पर प्रस्ताव रखा तो विरोध करने का साहस कोई नहीं जुटा पाया। हालाँकि कुछ एक चाहते थे कि 29 अगस्त को हॉकी दिवस या ध्यान चन्द दिवस के रूप में मनाया जाए। लेकिन पंडित विश्वनाथ डटे रहे। उन्हें शिव कुमार वर्मा, ध्यान चन्द जी के सुपुत्र अशोक कुमार और सैकड़ों अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों का समर्थन प्राप्त था, जिनमें हरबिन्दर सिंह, ब्रिगेडियर चिमनी, अशोक दीवान, ज़फ़र इकबाल, विनीत कुमार जैसे नाम शामिल थे।
देश के हॉकी प्रेमी और अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियो का मानना है कि स्वर्गीय ध्यान चन्द को यह सम्मान उनके जीते जी मिल जाता तो बेहतर रहता। भले ही उनके खेलते भारत गुलाम था और आज़ादी मिलने के बाद उन्हें भुलाए जाने की साजिश भी की गई लेकिन उनके चाहने वाले दुनिया भर में हैं। उनमें से कुछ समर्पितों के प्रयासों से ही वह अजर अमर बने रहेंगे। कम से कम देश उन्हें खेल दिवस पर तो याद करता रहेगा।
(राजेंद्र सजवान वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं. आप इनके लिखे लेख www.sajwansports.com पर भी पढ़ सकते हैं.)