पत्रकारिता को चाटुकारिता से बचाना होगा

Journalism must be saved from sycophancyनिशिकांत ठाकुर

पिछले दिनों कुछ तथाकथित ‘राष्ट्रीय’ खबरिया चैनलों ने अपनी विश्वसनीयता को जिस तरह गिराया है, उससे तो यही लगता है कि यदि भविष्य में भी इन चैनलों द्वारा इसी तरह गलत समाचार प्रसारित किए जाते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब श्रोता—दर्शकों के मन में यह बात बैठ जाएगी कि खबरिया चैनलों पर दिखाए जाने वाले समाचार झूठ के सिवा कुछ नहीं हैं।

उदाहरण के लिए अभी एक चैनल ने कांग्रेस के पूर्व  अध्यक्ष और वर्तमान सांसद राहुल गांधी के जिस बयान को  जानबूझकर तोड़-मरोड़कर दर्शकों के सामने परोसा, वह वाकई  घोर निंदनीय है। वैसे, चैनल ने अपनी गलतियों के लिए माफी मांग ली है, लेकिन गिरी  हुई साख को फिर से ऊपर उठाना कितना दुरूह होगा, इस सच को भी केवल वह चैनल ही समझ सकता है। आईएनएस (इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी, रफी मार्ग, नई दिल्ली) बिल्डिंग के ठीक सामने कांस्टीट्यूशन क्लब में दैनिक जागरण द्वारा एक सेमिनार आयोजित किया गया था जिसमें चर्चा का विषय था ‘समाचार-पत्र का साख’। इसमें हिस्सा लेने के लिए देश के कोने—कोने से वरिष्ठ पत्रकार, मैनेजमेंट गुरु युवाओं को  पत्रकारिता की पवित्रता और उसकी अहमियत समझाने के साथ उसके प्रभाव पर चर्चा के लिए आमंत्रित किए गए थे।

सौभाग्य से उसमें श्रोता—आयोजक के रूप में मैं भी उपस्थित था। सम्मेलन वर्ष 2001 के शुरुआती दिनों में इसलिए किया गया था ताकि अहसास हो सके कि प्रिंट मीडिया के लिए यह शताब्दी वर्ष कैसा रहेगा। तीन दिन चले इस कार्यक्रम के पहले दिन लंच तक बहुत ही गर्मजोशी का था, लेकिन लंच के ठीक पहले जिन मैनेजमेंट गुरु ने अपने विचार रखे, उन्होंने पूरे खुशनुमा शैक्षिक माहौल को बोझिल कर दिया। उनका कहना था कि प्रिंट मीडिया के सभी साथी अपना बोरिया—बिस्तर बांध लें, क्योंकि शीघ्र ही वह समय आने वाला है जब समाज पर टेलीविजन की पकड़ इतनी मजबूत हो जाएगी कि कोई समाचार पत्र को पूछेगा भी नहीं और सारे प्रिंट हाउसेज बंद हो जाएंगे। ऐसे में उससे जुड़े सभी साथियों के सामने रोजी-रोटी की समस्या खड़ी हो जाएगी।

सेमिनार का विषय कुछ था और चर्चा किसी और मुद्दे पर होती जा रही थी। उसमें उपस्थित प्रिंट के सभी साथी हतोत्साहित और निराश हो चुके थे। सभी की सोच यह होती जा रही थी कि उन्होंने अपना पूरा जीवन समाचार—पत्र की गरिमा को बढ़ाने में लगा दिया, अब उनके आखिर काल में ऐसा कैसे हो जाएगा कि समाचार—पत्र बंद हो जाएं और वे बेरोजगार हो जाएं!

लंच करते समय पत्रकारिता में अपनी एक अलग छवि बनाने वाले दैनिक जागरण के पूर्व प्रधान संपादक (अब स्वर्गीय) नरेंद्र मोहन ने इस चुप्पी और उदासी को अपनी पैनी निगाहों और वक्ता के उद्बोधन से समझ लिया था। उन्होंने पूछा कि भाई यह उदासी किसलिए! उसी गमगीन माहौल से उन्हें बताया गया कि टेलीविजन आने वाला है, इसलिए अब हमलोगों के करियर का जो हश्र होने वाला है, उसी को सोचकर सब गमगीन हैं। उन्होंने भरोसा दिलाया कि सभी अपना लंच करें।

इस मसले पर आगे आप सब को बताऊंगा। खैर, लंच समाप्त होने के बाद जब दुबारा सेमिनार शुरू हुआ तो उन्होंने (नरेंद्र मोहन) कहा कि हम आप सबकी उदासी को समझते हुए इतना कहना चाहते हैं कि आप समाचारों की विश्वसनीयता को बनाए रखें, आपका समाचार—पत्र कभी बंद नहीं होगा और इसका प्रसार टेलीविजन आने के बाद कई गुणा और बढ़ जाएगा। अपने भाषण को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि शिक्षा का जितना प्रसार हो रहा है, उनमें पढ़ने वाले और होंगे और टेलीविजन के समाचारों को सुनने के बाद उसे पढ़ना भी चाहेंगे, क्योंकि कहने में विश्वसनीयता की घोर कमी होती है। कही हुई बातों को हम भूल जाते हैं, लेकिन किसी भी चीज को लिखते समय हम पूरे मनोभाव से, पूरे होशो-हवाश में उस पर विचार करते हुए एक—एक शब्द का चयन करके फिर लिखते हैं। इसलिए विश्वसनीयता को परखने के लिए लिखित पढ़ना हर कोई चाहता है। पत्रकारिता के पांचों डब्ल्यू के आधार पर यदि समाचार आप लिखेंगे तो आपसे कोई गलती हो ही नहीं सकती। यह ध्यान रखने की चीज है। यदि आप बेरोजगार होना नहीं चाहते हैं तो इन बातों को ध्यान में रखना ही होगा।

जो लोग टेलीविजन के नाम पर इतना डर आपके दिल-ओ—दिमाग में पैदा कर रहे हैं, वह सही नहीं है। समाचार-पत्र एक लिखित प्रपत्र (डॉक्यूमेंट) है, जिसे आप झुठला नहीं सकते, लेकिन टेलीविजन पर चले समाचारों को उस तरह का विश्वसनीय इसलिए नहीं मान सकते, क्योंकि यदि समाचारों के चलने के बाद कोई गलत समाचार चैनल चला रहा है, तो गलती का अहसास होने पर वह उसे तत्काल बदल सकता है, जबकि प्रिंट के मामले में ऐसा नहीं हो सकता। प्रिंट वाले इस बात का ध्यान रखें कि खबरों के एक—एक शब्द का महत्व होता है, क्योंकि एक शब्द के द्वारा आप किसी को कितना आघात पहुंचा देते हैं, इसका एहसास आपको करना ही होगा, आपको संवेदनशील बनना ही होगा।

अखबारी साख क्या चीज है, इसे समझाते हुए उनका कहना था कि जिस प्रकार अखबार के मत्था (मास्ट हेड्स) इस बात को दर्शाता है कि यह इस नाम का अखबार है, जिस प्रकार उस मास्ट हेड्स के नीचे तारीख होती, वह यह दर्शाता है कि यह आज का अखबार है; क्योंकि अखबार पर लिखा हुआ है कि यह आज की तारीख का अखबार है, इसलिए आज यही तारीख है। जिस दिन का होता है, वही लिखा यह दर्शाता है कि अमुक समाचार पत्र उस दिन का है, अमुक तारीख का है। उसी प्रकार उसमें प्रकाशित समाचार का एक—एक अक्षर सत्य होना चाहिए कि निश्चित रूप से ऐसा हुआ है, इसलिए यह लिखा गया है। इसे ही साख कहते हैं और यह साख एक—दो दिन में नहीं, बल्कि उसे स्थापित करने और पाठकों के मन में अकूत विश्वास पैदा करने में समय लगता है।

उन्होंने कहा कि सभा—समारोह में जाकर उसका ब्योरा देना ही पत्रकारिता नहीं है। सामने दिखने वाले की अपेक्षा उसके पीछे के सत्य को खोजकर उसे उजागर करना सच्ची पत्रकारिता है। अनुभव, आलोचना-शक्ति, कल्पना-शक्ति, खोज और गुप्तचरी के साथ खतरों से भरा मार्ग अपनाकर पता न लगाया जाए, तो भला उसे कैसी पत्रकारिता कहेंगे। इसके साथ ही यह भी बार—बार कहा कि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री ने रिश्वत ली या नहीं, इसका निर्णय इस देश के न्यायालय में नहीं होता है, साक्ष्य और कागजात के आधार पर भी नहीं होता है। इसका फैसला केवल जनता करती है, चुनाव में। यह कोई नई बात नहीं है।

इस पेशे से जुड़े लगभग सभी इस बात को जानते हैं कि किस बात से समाज में सनसनी फैलेगी और किस बात से समाज दंगों की आग में झुलसने लगेगा, लेकिन लिखते समय वह इस बात को भूल जाते हैं कि उनकी इस एक पंक्ति का असर समाज या जनमानस पर क्या पड़ेगा। जो इस संवेदनशील भावना को समझकर पत्रकारिता करेगा, वह निश्चित रूप से अच्छी पत्रकारिता होगी। पत्रकारिता के इतने सारे गूढ़ रहस्यमय ज्ञान को जिन्होंने प्राप्त कर लिया, वह पीत पत्रकारिता कभी नहीं करेगा।

इन उदाहरणों को पेश करने का तात्पर्य महज इतना है कि हम किसी बात को तिल का ताड़ क्यों बना देते हैं! यह ठीक है कि भारतीय संविधान और न्यायालय ने हमें लिखने-बोलने की आजादी दी है, लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं कि समाज के सीधे—सादे लोगों की मति को भ्रष्ट कर उसे कत्लेआम करने के लिए मजबूर कर दें।

अंग्रेजी पढ़े—लिखे भारतीय लोग जब अपने को किसी के प्रति समर्पित कर देते हैं, निश्चित रूप से मन में तब समर्पण का भाव पैदा होता है और फिर वह दंगा—फसाद करने के आदि हो जाते हैं। यही तो अंग्रेजों की नीति थी जिसके लिए उन्होंने बड़ी बारीकी से ऐसे लोगों को नियुक्त किया जो हम भारतीयों की मति को भ्रष्ट कर सकें और उन अंग्रेजों के चिरस्थायी गुलाम बने रहें। जिस प्रकार वर्ष में कई मौसम बदलते हैं, उसी प्रकार पांच या दस वर्ष में सरकार भी बदलती है। फिर पक्षपात करने वाले उन पत्रकारों का क्या होगा, इसलिए भविष्य में पत्रकारिता की गरिमा को बनाए रखने के लिए अपने विचारों को अपने ऊपर हावी न होने दें।

काश, पत्रकारिता के  उन उसूलों पर, जिनकी चर्चा सेमिनार में हुई थी, हम मनन करें तो पत्रकारों पर जो घृणित और कुटिल शब्दवाण आज समाज में चलाए जा रहे हैं, वह स्वयं बंद हो जाएगा और फिर गणेश शंकर विद्यार्थी, भरतेंदु, नरेद्र मोहन, लाला जगतनारायण  जैसे मूर्धन्य  पत्रकारिता के पुरोधा सदैव याद किए जाते रहेंगे। आजादी के पहले और आजादी के बाद हजारों पत्रकार हुए हैं, लेकिन उनमें से कितनों को याद किया जाता है पर, कुछ जो मूर्धन्य पत्रकार देश में हुए हैं जिनका नाम लेते ही माथा गर्व से ऊंचा हो जाता है, छाती चौड़ी हो जाती है। उन्हें हम आज भी याद करते हैं।

पत्रकारों के प्रति समाज में जो घृणा का भाव दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, उसे ठीक करने के लिए किसी और की जरूरत नहीं, बल्कि हमें स्वयं आत्ममंथन करना होगा, तभी तरह—तरह के जिन विशेषणों से उन्हें संबोधित किया जाता है, वह बंद हो पाएगा । इसलिए इतना ही कहा जा सकता है कि पत्रकार फेकन्यूज से बचें,व्हाट्सएप, फेसबुक आदि इंटरनेट मीडिया के बढ़ते दुष्प्रभाव से अपने को प्रभावित न होने दें ।  जिसके जाल में  बिना सोचे समझे फसकर आज  अपनी और अपने संस्थान की  विश्वसनीयता को खबरिया चैनल के  पत्रकार ने  भंग किया और आज पूरा  देश उन पर थू थू कर रहा है , इसलिए हमारे पत्रकारों को ज्ञानचक्छु खोलकर रखना ही पड़ेगा अन्यथा इसी तरह समाज में उपहास के पात्र हम होते रहेंगे ।

Due to ego and stubbornness, the world is on the cusp of the third world war.(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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