दिसम्बर का अंतिम सप्ताह: गुरु गोविन्द सिंह के साहबजादों की वीरता और शहादत के दिन

रमेश शर्मा
दिसम्बर माह का अंतिम सप्ताह गुरु गोविन्द सिंह के चार पुत्रों के अद्भुत साहस और मातृभूमि के लिये बलिदान के दिन हैं । दो पुत्रों ने जहाँ युद्ध भूमि में अनोखे साहस का परिचय दिया तो दो छोटे बालकों ने जिन्दा दीवार में दफ़न होना पसंद किया पर धर्मांतरण न किया । उनके सबसे बड़े पुत्र की आयु सत्रह वर्ष और सबसे छोटे पुत्र की आयु मात्र पाँच वर्ष ही थी ।
वह समय भारत में मुगल बादशाह औरंगजेब के शासनकाल का अंतिम दौर था । उसने सिखों को जड़ से समाप्त करने का संकल्प कर लिया था । पूरे पंजाब में मुगलों की फौज सिखों को तलाश रही थी । सिखों के दसवें गुरु गोविन्द सिंह आनंदपुर किले में थे । जहां मुगलों की फौज ने घेरा डाला हुआ था । यह घेरा करीब छै माह तक पड़ा रहा । किले का राशन पानी सब खत्म हो गया था । गुरू गोविन्द सिंह  के सामने दो ही रास्ते थे एक अंतिम युद्ध लड़कर शहादत दी जाय दूसरा सुरक्षित निकलकर युद्ध जारी रखा जाय । गुरु गोविन्द सिंह ने दूसरा मार्ग चुना । वे आनंदपुर से निकलकर चमकौर पहुँचे ।

यहां एक पुराना किला था वहां के निवासी सिख गुरु के प्रति श्रद्धा रखते थे । गुरु गोविन्द सिंह ने अपने परिवार और विश्वस्त सैनिकों के साथ यहीं आये । वे 21 दिसम्बर 1704 की रात को चमकौर पहुँचे । इसकी खबर मुगल सेना को लग गयी थी । मुगल फौज भी इस काफिले के पीछे चली । मुगलों की फौज का नेतृत्व  सरहिन्द के नबाब बजीर खां के हाथ में था । मुगल फौज ने चमकौर में घेरा डाल लिया । चमकौर की इमारत पुरानी थी । वह इस स्थिति में नहीं थी कि लंबे समय तक सुरक्षित रह सके । कुछ दीवारें तो केवल मिट्टी की ही थीं । इतिहास की पुस्तकों में मुगल फौज की संख्या तीन लाख अंकित है । जबकि किले के भीतर सिखों की संख्या मात्र दो हजार जिसमें नागरिक स्त्री बच्चे अधिक थे । सैनिकों की संख्या तो मात्र कुछ सौ ।  लेकिन सिखों ने साहस से मुकाबला किया । यहीं से यह कहावत प्रसिद्ध हुई कि “सवा लाख से एक लड़ांऊ” । यहाँ दो निर्णय हुये जत्थों के साथ युद्ध किया जाय और गुरुजी यनि गुरु गोविन्द सिंह को सुरक्षित निकाला जाय ।
जत्थों में केवल दस ही सैनिक हों । पहले जत्थे का नेतृत्व साहबजादे अजीत सिंह को सौंपा गया । हालांकि अन्य सैनिकों ने साहबजादे को रोका पर अजीतसिंह न माने ।  गुरु गोविन्द सिंह ने स्वयं अपने बेटे को हथियार दिये । साहबजादे निकले और शत्रु सेना पर टूट पड़े । वे बहुत अच्छे तीरंदाज थे । उनके पास तीर कमान और तलवार दोनों थी । उन्होंने अपने अंतिम तीर तक युद्ध किया और तलबार से तब तक जब तक तलवार टूट न गयी । कोई इस वीरता की कल्पना कर सकता है कि केवल दस सैनिकों और एक नायक के साथ लड़ा गया यह युद्ध दिन के तीसरे पहर तक चला । यह 23 दिसम्बर का दिन था जब साहबजादे अजीत सिंह की शहादत हुई । अगले दिन का युद्ध साहबजादे फतेह सिंह के नेतृत्व में सिख जत्थे ने लड़ा ।

तब फतेह सिंह की आयु मात्र पन्द्रह साल थी । वे भी वीरता पूर्वक शहीद हुये । तब पंच प्यारों ने गुरू जी से सुरक्षित निकल जाने का आग्रह किया । उनका आग्रह मानकर गुरु गोविन्द सिंह अपने परिवार और कुछ सैनिकों के साथ किले के गुप्त मार्ग से निकलना स्वीकार कर लिया । यह संख्या कुल इक्यावन थी । कहीं कहीं यह संख्या साठ भी लिखी है । बाकी लोगों ने किले में ही रहकर मुकाबला करने का निर्णय लिया ताकि मुगल सैनिकों को यह संदेह न हो कि गुरुजी निकल गये । चमकौर के पास सरसा नदी बहती थी । यह 24 और 25 दिसम्बर 1704 की दरम्यानी रात थी । भयानक ठंड और मावट का मौसम । पानी बर्फ की तरह ठंडा था । अभी गुरू गोविन्द सिंह का काफिला नदी पार भी न कर पाया था कि वजीर खान को खबर लग गयी । उसकी सेना नदी पर टूट पड़ी । इस अफरा तफरी मे गुरु गोविन्द सिंह का परिवार बिखर गया ।  सबसे छोटे दो साहबजादे जोरावर सिंह सात वर्ष और जुझार सिंह पाँच वर्ष दादी माता गुजरी के साथ बिछुड़ गये इनके साथ न कोई सेवक और न कोई सैनिक । अंधेरी रात और भीषण सर्दी के बीच दादी दोनों बच्चों ने नदी पार की । दादी अंधेरे में ही दोनों बच्चों को लेकर जहाँ राह मिली उसी ओर चल दी । कितना चलीं कितनी राह निकली कुछ पता नहीं । सबेरा हुआ । सूरज निकला । एक स्थान पर थकान मिटाने रुकीं, बच्चो को भोजन भी जुटाना था । तभी एक व्यक्ति दिखा । जिसका नाम गंगू था ।

वह गुरू गोविन्द सिंह का पुराना सेवक था । उसने माता गुजरी को पहचाना और विश्वास दिलाकर अपने घर ले गया । उसके गाँव का नाम खैहैड़ी था । उसने भोजन दिया विश्राम कराया । और घर से निकल लिया । यह 25 दिसम्बर का दिन था । उसने खबर बजीर खान को दी और इनाम में सोने की मुहर प्राप्त की । शाम तक मुगल सैनिक आ धमके । माता गुजरी और दोनों बच्चो को पकड़ ले गये । उन्हे रात भर बिना कपड़ो के बुर्ज की दीवार पर बांधकर रखा गया ।

अगले दिन वजीर खान के सामने पेश किया गया । वह 26 दिसम्बर 1704 का दिन था । वजीर खान ने माता गुजरी और दोनों बच्चो से इस्लाम कुबूल करने को कहा । बच्चो ने इंकार  करदिया । वजीर खान ने आदेश दिया कि यदि बच्चे इस्लाम कुबूल न करें तो इन्हे जिन्दा दीवार में चुन दिया जाय । बच्चों को भूखा रखा गया । रात भर फिर बुर्ज पर पटका । पर दोनों साहबजादे अडिग रहे । उन्हें 27 दिसम्बर को जिन्दा दीवार में चुन दिया गया । और माता गुजरी के प्राण भी भीषण यातनाएं देकर लिये । इस तरह दिसम्बर माह का यह अंतिम सप्ताह गुरु गोविन्द सिंह के चारों साहबजादों की बलिदान और स्मृति के दिन हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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