लॉकडाउन, रचनात्मकता और पारदर्शी व्यवहार
निशिकांत ठाकुर
वैश्विक महामारी कोविड-19 के कारण पूरी दुनिया में लगे लॉकडाउन का विश्वव्यापी प्रतिकूल असर पड़ा है। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था रसातल की ओर जाने लगी है। रोजी-रोटी-रोजगार पर वैश्विक संकट छाने के असार जताए जाने लगे हैं, लेकिन लॉकडाउन का कुछ सकारात्मक प्रभाव भी जनमानस पर पड़ा है। एक ओर जहां उनकी दिनचर्या काफी हद तक संतुलित हो गई है, वहीं साफ-सफाई के साथ मास्क आदि का प्रचलन भी बढ़ा है, जो सेहत को दुरुस्त रखने के लिए अनिवार्य माना गया है। इसके साथ ही घर में बैठे लोगों द्वारा समय काटने के लिए रचनात्मकता की ओर अग्रसर होना भी इसका सकारात्मक पहलू है। दूसरों की बात तो छोड़िए, खुद मुझमें भी इस लॉकडाउन की अवधि में रचनात्मकता प्रखर हो गई है। मेरी लेखनी जो इससे कुछ समय पहले तक काफी सुस्त थी, एकाएक प्रखर हो गई है। मेरे मित्र-शुभचिंतक भी इस ओर इशारा कर चुके हैं। ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि उनकी बात सच हो, क्योंकि लेखनी के बल पर ही तो 42 वर्षों से समाज की सेवा करता रहा हूं। सच में यदि लेखनी प्रखर हो गई है तो निश्चित रूप से इससे समाज का भला ही होगा और समाज का भला होगा तो उसकी परिधि में रहने वाले हर कोई लाभान्वित होगा। वैसे कोविड-19 से बचाव की खातिर लागू किए गए लॉकडाउन के चौथे संस्करण से ढेरों सहूलियतें भी मिलने लगी हैं। लेकिन, देखना यह है कि इस छूट रूपी सहूलियत का उपयोग लोग किस प्रकार करते हैं। हालांकि, लॉकडाउन-4 की शुरुआत ही देश में लगभग एक लाख कोरोना पॉजिटिव मरीज़ होने के बाद की गई है। जरूर इसमें जिन चीजों के लिए छूट दी गई है उसके लिए डॉक्टरों ने और विशेषज्ञों ने सरकार को राय दी होगी, अन्यथा ऐसी विकट स्थिति के बाद इस तरह की छूट देना समाज के लिए कदापि उचित नहीं है। इस महामारी के लिए किया गया शोध बताता है कि यह छुआछूत की बीमारी है और इसके लिए शारीरिक दूरी बनाए रखना आवश्यक है। ऐसे में यदि इस चौथे लॉकडाउन में सब घालमेल हो गया तो इतने दिनों तक सामाजिक और शारीरिक दूरी के साथ पूर्व में लिए गए कई अन्य कठोर निर्णयों का कोई महत्व नहीं रह जाएगा।
सच में यदि लेखनी प्रखर हो गई तो पूरी दुनिया में उससे ताकतवर कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं। लेकिन हां, सामान्य लोगों को इसके लिए पूर्णतः शिक्षित होना आवश्यक है। मित्र हम अपनी कलम को प्रखर तभी मानेंगे, जब हमारी लेखनी से समाज एकमत बने और उसका प्रभाव सरकार पर पड़े। लेकिन हां, हम अपने को निराश नहीं मानते और यह जानते हैं कि हम पत्रकार हैं और हमारा काम समाज को, सरकार को जागरूक करने के साथ उनके समक्ष गंभीर समस्याओं को रखकर उनके निदान के लिए सरकार से आग्रह करना है। आज समाज पर मीडिया का असर होने लगा, उसे देखकर ऐसा लगता है कि जैसे वह दिन दूर नहीं, जब उसकी रिंपोर्टिंंग से सरकार को भी अपनी कुर्सी हिलती महसूस होगी।
दरअसल, सरकार कोई व्यक्ति विशेष नहीं, बल्कि वह एक संस्था है जो छोटी-छोटी इकाइयां और सूत्रों के बल पर अपना संपर्क समाज से बनाकर रखती है और उन्हीं के माध्यम से छानबीन कर समाज के हित के लिए निर्णय लेती है। यदि संपर्क सूत्र कमजोर और गलत सूचनाओं के आधार पर ऊपर अपनी बात पहुंचाता है तो जनता के लिए निर्णय गलत होते है और यदि सूत्र की सूचना सही और ठोस तथ्यों पर है तो उस माध्यम से लिए गए निर्णय जनहितकारी होते हैं। यदि सूत्र पक्षपातपूर्ण है तो उसका सीधा असर समाज पर पड़ेगा। उदाहरण के लिए लॉकडाउन-1 को ही लिया जा सकता है। यदि सरकार को उनके संपर्क सूत्र से सही जानकारी मिल गई होती कि देश के सभी लोग ऐसी स्थिति में नहीं होते कि जिन्हें सुबह पता चले कि देश में लॉकडाउन है, कर्फ्यू है। इसलिए अब फिलहाल उन्हें कोई रोज़गार तो नहीं ही मिलेगा, घर से भी बाहर निकलना भी अपराध होगा।ऐसी स्थिति में उन्हें क्या करना चाहिए… यदि इसके लिए उन्हें कोई गाइडलाइन लॉकडाउन से पहले मिल जाता तो आज जो दैनिक कामगारों की स्थिति हुई है, वह नहीं हुई होती।
दरअसल, जब कोविड-19 जैसी महामारी से अपने नागरिकों को बचाने के लिए देश का शटर बंद करने हम जा रहे थे, तो फिर उसके लिए इतनी गोपनीयता क्यों बरती गई? क्यों नहीं यह सोचा गया कि रोज कमाकर अपने बाल बच्चों का जीवन निर्वाह करने वालों का चार घंटे के बाद क्या हश्र होगा! सड़क पर जब ऐसे निरीह कामगारों को देखते हैं तो हृदय धिक्कार उठता है। अपने से घृणा होने लगती है कि हम इतने अदूरदर्शी तथा इतने कठोर क्यों और कैसे हो गए! सच में एक भावुक और संवेदनशील इंसान के नाते हृदय बिखरने लगता है।
दुख तो तब और होता है जब इन पीड़ित कामगार के पलायन पर भी राजनीति होने लगती है और कुछ बेदर्द लोग इसका भी मज़ाक उड़ाते हैं। अभी एक हास्यास्पद बयान वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का सामने आया है, जो कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष के लिए है। दरअसल, राहुल गांधी एक पैदल कामगार यात्री समूह के साथ बैठकर उन सबसे दुख-दर्द को साझा कर रहे थे। यह बात पता नहीं क्यों भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को बुरी लग गई। ऐसा लगता है कि केंद्रीय सत्तारूढ़ दल के लोग अपने नेता के भयंकर भूल से बुरी तरह से डर गए हैं और इसीलिए अनाप-शनाप बयान देकर अपनी भड़ास निकालकर उस भूल पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं। नहीं तो ऐसी कोई बात ही नहीं थी कि जिससे वित्तमंत्री इतना उत्तजित हो गईं। यदि भाजपा का कोई नेता पीड़ित कामगार से मिलता है तो इसे भावात्मक भेंट कहा जाएगा, लेकिन यदि कांग्रेस का या कोई विपक्षी नेता पीड़ितों से मिले तो वह अपराध हो गया! यह स्थिति तो बड़ी भयावह हो गई। ऐसा तो हमारा संविधान नहीं कहता और न मानवता ऐसी होनी चाहिए।
अभी कुछ साल पहले तक नरसिम्हा राव की सरकार के काल में अमेरिका में भारत को अपना पक्ष रखने के लिए विपक्षी नेता अटल बिहारी बाजपेई को भेजा था। उन्होंने भारत का पक्ष मजबूती से रखा भी। महात्मा गांधी तो विपक्ष हो या पक्ष का कोई व्यक्ति, यहां तक कि अछूत बीमारियों से पीड़ितों की भी अपने हाथों से मरहम-पट्टी करते थे। कहा तो यहां तक जाता है कि गांधी अपने बचपन में इतने कोमल हृदय और भावुक थे कि उन्होंने अमरूद के पेड़ पर एक फल को चिड़ियों द्वारा नोचा हुआ देखा तो वह पेड़ पर पट्टी लेकर उस फल को पट्टी करने चढ़ गए थे। वह तो दुख की घड़ी में विपक्ष को अपने गले लगाते थे। निश्चित रूप से हम वैसे तो नहीं हो सकते, लेकिन हम अपनी सोच तो बदल सकते हैं, पारदर्शी तो हो ही सकते हैं।