राजनीति में रामविलास पासवान होने का मतलब

सुभाष चन्द्र

केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान का गुरुवार को निधन हो गया है। 74 साल की उम्र में उन्होंने अंतिम सांस ली। इस बात की जानकारी उनके बेटे व लोजपा के अध्यक्ष चिराग पासवान ने दी। उन्होंने ट्वीट कर कहा, ‘पापा….अब आप इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन मुझे पता है आप जहां भी हैं हमेशा मेरे साथ हैं।’राम विलास पासवान के निधन पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह समेत दूसरे केंद्रीय मंत्रियों व राजनीति दलों के नेताओं ने शोक जताया है। राम विलास पासवान ने वर्ष 2000 में जनता दल (यूनाइटेड) से अलग होकर लोजपा का गठन किया था। पिछले साल पार्टी की अपने पुत्र कमान चिराग पासवान को सौंपने से पहले वह लोजपा के संस्थापक अध्यक्ष रहे। राम विलास पासवान केंद्र सरकार में उपभोक्ता मामले, खाद्य एंव सार्वजनिक वितरण मंत्री थे। बीमार होने के कारण वह बीते एक महीने से ज्यादा समय से अस्पताल में भर्ती थे और हाल ही में उनके हृदय का ऑपरेशन हुआ था।
राजनीति की नब्ज पकड़ने वाले रामविलास पासवान पहली बार 1969 में एक आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र से संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य के रूप में बिहार विधानसभा पहुंचे थे। 1974 में राज नारायण और जेपी के प्रबल अनुयायी के रूप में लोकदल के महासचिव बने थे। वे व्यक्तिगत रूप से राज नारायण, कर्पूरी ठाकुर और सत्येंद्र नारायण सिन्हा जैसे आपातकाल के प्रमुख नेताओं के करीबी रहे हैं।
अब सवाल उठता है कि बिहार में चुनाव का मौसम है। इस दौर में रामविलास पासवान के निधन के बाद क्या असर पड़ेगा ? दरअसल, रामविलास पासवान के निधन से बिहार में सहानुभूति की लहर है। बिहार में 5 ऐसे जिले हैं, जहां पासवान परिवार का दबदबा है। पासवान के साथ एक बड़ा फैक्टर यह भी था कि अगड़ी जाति के लोग भी उन्हें पसंद करते थे। क्योंकि उन्होंने कभी भी कोई विवादित बयान नहीं दिया था। समस्तीपुर, खगड़िया, जमुई, वैशाली और नालंदा में महादलित वोटों की अच्छी खासी आबादी है।
बिहार में रामविलास पासवान दलितों के इकलौते बड़े नेता थे। लोकसभा के लिए बिहार में सुरक्षित सीटों पर पासवान परिवार का ही कब्जा है। बिहार के 5 जिलों में दलित वोटर एक बड़े फैक्टर के रूप में काम करते हैं। पासवान के निधन से एक सहानुभूति की लहर है। जिसका फायदा राम विलास पासवान की पार्टी एलजेपी को हो सकती है। क्योंकि उनके बेटे चिराग पासवान पहले से ही बिहार में नीतीश कुमार के खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं।
खगड़िया लोकसभा सीट पर भी एलजेपी का कब्जा है। रामविलास पासवान खगड़िया के अलौली सीट से ही राजनीतिक करियर की शुरुआत की थी। पहली बार वह इसी सीट से विधायक बने थे। खगड़िया में दलित वोटर करीब 4 लाख के करीब हैं। इस विधानसभा क्षेत्र में 6 विधानसभा सीटें आती हैं। जिसमें सिमरी बख्तियारपुर, हसनपुर, अलौली, खगड़िया, बेलदौर और परबत्ता है। अलौली सुरक्षित सीट है। इस पर जेडीयू ने उम्मीदवार दिया है। ऐसे में पासवान की पार्टी भी इस सीट से उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है। पासवान की सहानुभूति लहर में यहां सीधा नुकसान जेडीयू को ही होगा। बाकी सीटों पर महादलित निर्णायक भूमिका में तो नहीं हैं, लेकिन जिसके साथ चले जाएं, वह मजबूत जरूर हो जाता है। खगड़िया लोकसभा सीट के 6 में से 4 सीटें जेडीयू के खाते में गई है।
बता दें कि बिहार में अभी की तारीख में महादलित और दलित वोटरों की आबादी कुल 16 फीसदी के करीब है। 2010 के विधानसभा चुनाव से पहले तक रामविलास पासवान इस जाति के सबसे बड़े नेता बताते रहे हैं। दलित बहुल्य सीटों पर उनका असर भी दिखता था। लेकिन 2005 के विधानसभा चुनाव में एलजेपी ने नीतीश का साथ नहीं दिया था। इससे खार खाए नीतीश कुमार ने दलित वोटों में सेंधमारी के लिए बड़ा खेल कर दिया था। 22 में से 21 दलित जातियों को उन्होंने महादलित घोषित कर दिया था। लेकिन इसमें पासवान जाति को शामिल नहीं किया था। नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा में भी महादलित वोटरों की अच्छी आबादी है। नालंदा लोकसभा क्षेत्र में 7 विधानसभा सीट आते हैं। 2014 में जेडीयू उम्मीदवार के खिलाफ यहां एलजेपी के सत्यानंद शर्मा ही मैदान में उतरे थे। एलजेपी ने जेडीयू को कड़ी टक्कर दिया था। नालांदा में महादलितों की आबादी साढ़े 4 लाख के करीब है।

नालंदा की 7 में से 6 विधानसभा सीटें जेडीयू के पास है। राजगीर सुरक्षित सीट है। चिराग ने सभी सीटों पर उम्मीदवार उतारने का फैसला किया है। ऐसे में यहां भी खेल बिगड़ सकता है।एलजेपी बिहार में एनडीए से अलग है। चिराग ने ऐलान कर दिया है कि हम बीजेपी के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारेंगे। वहीं, बीजेपी नेताओं ने 2 टूक कहा है कि चिराग पीएम की तस्वीर यूज नहीं कर सकते हैं। लेकिन रामविलास पासवान के निधन के बाद अमित शाह का ट्वीट कुछ और इशारा कर रहा है। उनके निधन पर श्रद्धांजलि देते हुए अमित शाह ने ट्वीट कर लिखा है कि मोदी सरकार उनके गरीब कल्याण और बिहार के विकास के स्वपन्न को पूर्ण करने के लिए कटिबद्ध रहेगी। इस ट्वीट के कई सियासी मायने हैं। जो कुछ और इशार कर रही है।
करीब आधी सदी के अपने लंबे राजनीतिक जीवन में उन्‍होंने 11 चुनाव लड़े, जिनमें नौ में उनकी जीत हुई। पासवान के पास छ‍ह प्रधानमंत्रियों के साथ उनकी सरकार में मंत्री रहने रिकॉर्ड है। पासवान ने 1977 के लोकसभा चुनाव में हाजीपुर सीट से जनता दल के टिकट पर चुनाव लड़जे हुए चार लाख से ज्यादा वोटों से जीत का वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाया था। इसके बाद 2014 तक उन्होंने आठ बार लोकसभा चुनावों में जीत हासिल की। वर्तमान में वे राज्यसभा के सदस्य तथा नरेंद्र मोदी सरकार में उपभोक्‍ता मामलों तथा खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री थे। पासवान जी पिछले 32 वर्षों में 11 चुनाव लड़ चुके हैं और उनमें से नौ जीत चुके हैं। इस बार उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा लेकिन इस बार सत्रहवीं लोकसभा में उन्होंने मोदी सरकार में एक बार फिर से उपभोक्ता मामलात मंत्री पद की शपथ ली। श्री पासवान जी के पास छः प्रधानमंत्रियों के साथ काम करने का अनूठा रिकॉर्ड भी है। 1.वीपी सिंह 2.एचडी देवेगौड़ा 3.इंद्र कुमार गुजराल 4.अटल बिहारी वाजपेयी 5.मनमोहन सिंह 6.नरेंद्र मोदी। भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में जब जब दलितों के उत्थान की बात होगी, सत्ता में रहकर जनता के मुद्दों को प्रमुखता से उठाने वाले की सूची बनेगी, यकीनन रामविलास पासवान का नाम उनमें प्रमुखता से होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजिंतिक विश्लेषक हैं. )

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