पैरालम्पिक खिलाड़ी: ‘TOPS’ में नहीं फिर भी TOP कैसे कर गए

राजेंद्र सजवान

टोक्यो पैरालम्पिक खेलों में भारतीय खिलाड़ियों के धमाकेदार प्रदर्शन ने देश के खेल मानदंडों, खेल समीकरणों और खेलों के प्रति आम भारतीय की सोच को लगभग पूरी तरह बदल कर रख दिया है।

पैरा खेलों से दो सप्ताह पहले समाप्त हुए ओलंम्पिक खेलों में मिली कामयाबी को अभी आम भारतीय पूरी तरह पचा भी नहीं पाया था कि दिव्यांग खिलाड़ियों ने एक के बाद एक धमाके कर देश में खेलों का कारोबार करने वाले मंत्रालय, साई, खेल संघों और अन्य गैरजिम्मेदार लोगों को जागने और अपनी सोच बदलने का संकेत दे दिया है।

दावे से भी बढ़ कर:

पैरालम्पिक खिलाड़ियों की कामयाबी की खास बात यह रही कि उनका रख रखाव रखने वाली पीसीआई ने कोई खोखला दावा नहीं किया। खिलाड़ी कोच और अधिकारी सभी 15 पदक तक जीतने की उम्मीद कर रहे थे लेकिन जीत कर लाए 19(5-8-6) पदक। तारीफ की बात यह है कि सामान्य खिलाड़ियों को जहां एक मात्र स्वर्ण पदक ही मिला तो दिव्यांगों ने पांच स्वर्ण पदकों पर कब्जा किया।

1968 से 2016 के 48 सालों में हमारे दिव्यांग मात्र 12 पदक ही जीत पाए थे। लेकिन इस बार उन्होंने ना सिर्फ सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले अपितु ओलंम्पिक में भारत की सौ साल की कामयाबी को अदना साबित किया है। अब दिव्यांगों के खाते में 52 साल में 31 पदक हैं और पेरिस ओलंम्पिक में वे सामान्य खिलाड़ियों को बहुत पीछे छोड़ सकते हैं। टोक्यो में दिव्यांगों ने एथलेटिक में 8, निशानेबाजी में 5, बैडमिंटन में 4 जबकि टेबल टेनिस और तीरंदाजी में एक एक पदक जीत कर देश का नाम रोशन किया।

टॉप पर रहे:

एक तरफ वो खिलाड़ी हैं जिन पर देश ने कऱोडों खर्च किए। उन्हें सरकार ने TOPS (टारगेट ओलंम्पिक पोडियम स्कीम) का लाभ दिया था। लेकिन कुछ एक ही कसौटी पर खरे उत्तर पाए। ज्यादातर पर किया गया खर्च यूं ही बेकार गया। खाली हाथ लौटने वाले इसलिए आलोचना से बच गए क्योंकि नीरज चोपड़ा के स्वर्ण पदक ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींच लिया था।

उधर दिव्यांग खिलाड़ी साधन सुविधाओं का रोना छोड़ अपने अभ्यास में जुटे रहे और चुपचाप उन्होंने वह सब कर दिखाया जिसकी शायद ही किसीने कल्पना की होगी। उन्हें TOPS का सुख भोग प्राप्त नहीं था लेकिन हर एक ने टॉप क्लास प्रदर्शन किया। भला कैसे, इसका जवाब तो खेल मंत्रालय और साई ही दे सकते हैं।

वाह डीएम साहब:

अक्सर देखा गया है कि ओलंम्पिक पदक जीतने के बाद हमारे खिलाड़ियों का लाइफ स्टाइल बदल जाता है। भले ही उन्होंने स्कूल भी पास आउट न किया हो लेकिन सरकारी और गैर सरकारी विभागों में उन्हें बड़े पद रेबड़ियाँ की तरह बांट दिए जाते हैं। कुछ एक तो ऐसे भी हैं जिन्हें हल्की फुल्की कामयाबी के चलते एसीपी, डीसीपी और अन्य उच्च पदों पर बैठा दिया जाता है।

लेकिन नोयडा के डीएम सुहास एलवाई एक अपवाद हैं। उत्तर प्रदेश बैच के 2007 के इस आईएएस की जितनी भी तारीफ की जाए कम है। वह किसी बड़े पद या प्रतिष्ठा के मोहताज नहीं हैं। बस चैंपियन का तमगा चाहिए था और बैडमिंटन का रजत पदक जीत कर यह हसरत भी पूरी कर ली है। और हां, उनकी धर्म पत्नी ऋतु सुहास भी कुछ कम नहीं हैं। गाज़ियाबाद की कड़क एसडीएम मिसेज इंडिया का खिताब जीत चुकी हैं।

झांझरिया द ग्रेट:

पैरालम्पिक 2020 में भले ही सुमित अंतिल, अवनी, प्रोमोद भगत, मनीष नरवाल और कृष्णा नागर ने स्वर्णिम प्रदर्शन कर भारत को पदक तालिका में 24 वां स्थान दिलाया लेकिन 40 वर्षीय जेवलिन थ्रोवर देवेंद्र झांझरिया ने 2004 और 2016 के स्वर्ण पदकों के बाद इस बार रजत जीत कर ऐसा इतिहास बनाया है जोकि भारतीय खिलाड़ियों के लिए हमेशा चुनौती रहेगा। आज तक कोई भी भारतीय खिलाड़ी एकल स्पर्धाओं में ऐसा करिश्मा नहीं कर पाया है।

चलते चलते

यह भी पूछ लेते हैं कि हमारे करोड़ों के TOPS निशानेबाज और तीरंदाज ओलंम्पिक से खाली हाथ लौट आते हैं लेकिन ये दिव्यांग कैसे पदकों पर निशाने लगा रहे हैं?

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं. इनके लेख को आप www.sajwansports.com पर पढ़ सकते हैं.)

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