राष्ट्रपति मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा: क्या राज्यपालों के बिलों पर निर्णय लेने के लिए समयसीमा तय की जा सकती है?
चिरौरी न्यूज
नई दिल्ली: तमिलनाडु के विधेयकों पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143 के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट से सलाह मांगी है। राष्ट्रपति ने पूछा है कि क्या संविधान में समयसीमा नहीं होने के बावजूद राज्यपालों को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए न्यायिक आदेशों द्वारा समयसीमा निर्धारित की जा सकती है।
राष्ट्रपति ने शीर्ष अदालत से यह राय भी मांगी है कि जब कोई विधेयक राज्यपाल के समक्ष अनुच्छेद 200 के तहत प्रस्तुत किया जाता है, तो क्या राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना अनिवार्य है?
इसके साथ ही राष्ट्रपति ने एक अहम संवैधानिक सवाल उठाया: “जब अनुच्छेद 361 के तहत राज्यपाल की कार्रवाईयों पर न्यायिक समीक्षा से रोक है, तब क्या विधायी बिलों पर राज्यपाल के विवेकाधिकार की समीक्षा न्यायालय में की जा सकती है?”
इसके अलावा, राष्ट्रपति ने यह भी पूछा कि जब कोई विधेयक राष्ट्रपति के समक्ष अनुच्छेद 201 के तहत विचार के लिए भेजा जाता है, तो क्या राष्ट्रपति के निर्णय की समयसीमा या प्रक्रिया अदालत द्वारा तय की जा सकती है?
इससे पहले अप्रैल में, सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि और राज्य सरकार के बीच विधेयकों की मंजूरी को लेकर चल रहे गतिरोध को सुलझाते हुए, अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेष अधिकारों का उपयोग किया था। न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की खंडपीठ ने राज्यपाल द्वारा 10 विधेयकों को मंजूरी न देने को “अवैध और मनमाना” करार दिया था और स्पष्ट किया था कि यदि राज्य विधानसभा कोई विधेयक पुनः पारित कर राज्यपाल को भेजती है, तो राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के पास नहीं भेज सकते।
अदालत ने यह भी कहा कि राष्ट्रपति को ऐसे मामलों में तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा, और यदि समयसीमा में निर्णय नहीं लिया गया, तो राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिका दाखिल कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने एक प्रकार से राष्ट्रपति की कार्रवाई को भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में ला दिया है। इसके बाद उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस फैसले पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए अनुच्छेद 142 को ‘न्यायपालिका के पास मौजूद न्यूक्लियर मिसाइल’ बताया और न्यायपालिका पर लोकतांत्रिक संस्थाओं पर अतिक्रमण का आरोप लगाया।
यह संवैधानिक बहस अब सुप्रीम कोर्ट के विचारार्थ है, जिसकी राय से भारत में विधायी प्रक्रिया और संघीय ढांचे की दिशा में संभावित परिवर्तन देखे जा सकते हैं।