पत्रकारिता की साख का प्रश्न

निशिकांत ठाकुर

पता नहीं मुझे ऐसा क्यों लगता है की आजकल अखबारों में जो पढ़ रहा हूँ, वह हल्का है और सबमें कुछ न कुछ कमी है। यही धारणा लेखकों के संबंध में भी बनती है। यदि कोई लेख किसी राजनीतिज्ञ का लिखा है तो यह बात स्वाभाविक ही लगती है कि लेखक अपना और अपनी पार्टी का प्रचार कर रहा है। दुख तब होता है जब स्वतंत्र पत्रकारिता करने वालों को या पूर्णकालिक श्रमजीवी पत्रकारों को पढ़ते हुए भी ऐसा लगता है कि यहाँ भी एकपक्षीय बात ही पढ़ रहा हूँ, जो किसी व्यक्ति या राजनीतिक दल विशेष के लिए ही सब कुछ कह रहा है और उनके लिए पूर्णतः करबद्ध है और उनके प्रति वचनबद्ध है। यह तो जनता हूँ कि व्यवस्था में कुछ लोग ऐसे हैं जिनकी नियुक्ति ही इसी आधार पर हुई होती है कि वह सदैव उसका प्रशस्ति गायन करते रहेंगे । ऐसे लोग चाहे जहाँ भी रहे, और चाहे जो भी करते रहे, वह सब करते हुए वे अपने आकाओं के प्रति कटिबद्ध रहेंगे । यहीं पत्रकारिता के पुरोधा स्वर्गीय गणेश शंकर विद्यार्थी की याद आती है जिन्होंने समाज की अस्मिता बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। ऐसे और भी कई पत्रकार हुए हैं जिन्होंने समाज की बुराइयों से लड़ने के लिए जान की बाजी लगाकर समाज में व्याप्त खामियों से उसे बचा लिया। निश्चित रूप से विश्व में समाज के अंदर व्याप्त गंदगी की ओर ध्यानाकर्षित करने के लिए ही पत्रकारिता का उदय हुआ होगा, लेकिन अब उन्हें कोई क्यों याद करे।

पिछले दिनों मैने एक लेख में आपसे अपने अनुभव को साझा करते हुए लिखा था कि एक रिपोर्टर का कार्य किसी सभा समारोह में शामिल होकर वहां उसका विवरण देने तक ही सीमित नहीं होता है। सामने दिखाई देने वाले की अपेक्षा उसके पीछे के सच को निकालना ही सच्ची रिपोर्टिंग है। अनुभव, आलोचना-शक्ति, कल्पना-शक्ति, खोज और गुप्तचरी के साथ खतरों से भरा मार्ग न अपनाकर पता न लगाया जाए तो भला कैसी पत्रकारिता? कोर्ट, सरकार आदि के भय से बचकर, मालिकों को किसी तरह की मुश्किल न हो – यह सावधानी रखकर किसे कितनी प्राथमिकता देनी चाहिए, यह सब ध्यान में रखकर काम करने में ही संपादक का महत्व बढ़ता है। उसमें रोमांच की कोई जगह नहीं होती। क्या ऐसा हो रहा है? यह तो हुई एक बात दूसरी बात जो समझने योग्य है, वह यह कि किसी समाचार में उसकी गरिमा बढ़ाने के लिए जो विचार विद्वानों द्वारा दिए जाते हैं, कम से कम उसकी गरिमा तो बनाए ही रखनी चाहिए। कुछ प्रतिशत लेखों को छोड़कर शेष सारे विद्वान वही तर्क देते हैं जो उनके आका को पसंद हो अर्थात इसे इस तरह कह सकते हैं कि अधिकांश विद्वान वही होते हैं जो प्रशस्ति गायन में अधिक विश्वास रखते हैं। ऐसा कतई नहीं कहा जा सकता कि सरकार द्वारा जनहित में किए गए कार्यों को आमजन तक न पहुँचाया जाए, लेकिन केवल वही समाचार प्रकाशित किया जाए जो सरकार को रुचिकर लगे, भले ही वह असत्य ही क्यों न हो। समाचार पत्र तो अपनी साख पर ही पढ़ा जाता है, लेकिन जब उसके ऊपर किसी दल विशेष का ठप्पा लग जाता है तो उसके साख को गिरने में समय नहीं लगता, फिर साख गिरने के बाद वही गाली देते हैं जिनके लिए हम अपनी साख गिरा चुके होते हैं।

मेरा प्रशिक्षण उनके साथ हुआ है जिन्हे मैं पत्रकारिता का स्तंभ मानता हूँ। उन्हीं का कहना था कि कुछ भी हो जाए अखबार की साख से मत खेलो क्योंकि उससे हजारों परिवार जुड़े होते हैं और साख कोई एक दिन में बनने वाली चीज नहीं है। उसे स्थापित करने में वर्षो लग जाते हैं और गिराने में कुछ ही दिन। फैसला उससे जुड़े लोगों को लेना होता है और विशेष रूप से उनसे जिन्होंने इसे सींचकर बनाया हुआ है। आज जिधर देखता हूं सब एक जैसे ही दिखते हैं और तथाकथित रूप से जो अपने को निरपेक्ष कहते हैं उनके लेख यदि आप पढ़ेंगे तो हो सकता है कि उलझ जाएं। आप यह तय नहीं कर पाएंगे कि आखिर हमारा देश चल किसके बल पर रहा है क्योंकि कुछ वरिष्ठ पत्रकार को छोड़कर शायद ही कोई ऐसा हो जो निरपेक्ष भाव से अपनी बात सार्वजनिक रूप में लिख रहा हो समाज को समझा रहा हो। अथवा ऐसा भी हो सकता जिनके विचार निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक होते हों पर उन्हें प्रकाशित ही न किया जा रहा हो। जो भी हो आमजन का विश्वास आज भी प्रिंट मीडिया पर ही है क्योंकि उनका मानना होता है लिख कर कुछ भी गलतबयानी कोई जानबूझकर नहीं कर सकता।

बात इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया की करें तो जैसे-जैसे प्रिंट मीडिया का साख गिरना शुरू हुआ उसी तेजी से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ऊपर उठने लगा। उसी के साथ ही अब सबको पीछे छोड़ते हुए सोशल मीडिया का जबरदस्त उदय हुआ और वह अब सबको काफी पीछे छोड़ते बहुत आगे निकल गया है। ऐसा नहीं है की सोशल मीडिया की कोई विश्वसनीयता नहीं है। कुछ लोग सवाल खड़े करते हैं कि सोशल मीडिया की बात सुनी-सुनाई होती है और उसका कोई साख नहीं होता। मैं नहीं समझता हूँ जहाँ आप अंधेरे में डूबे होते थे, वहीं आपको घटना के दूसरे ही पल कोई भी जानकारी कहीं कि मिल जाती है। इसलिए जब आप किसी समाचार पत्र को पढ़ना शुरू करेंगे तो आपको ऐसा लगेगा की अब पुरानी घटनाओं को फिर से दोहरा रहे हैं। विश्व ने प्रगति की है और विकास का नियम भी यही है कि हम आगे देखकर विश्व के साथ कदम से कदम मिलाकर चलें। हमारा भारत भी प्रगति कर रहा है, लेकिन उस रफ्तार से नही जिस रफ्तार से आगे बढ़ने की आशा उसके नागरिकों ने की थी। हमारा देश अपनों से ही उलझता गया, कभी आंतरिक सुरक्षा को लेकर तो कभी बाहरी खतरों के कारण, कभी जाति-बिरादरी, हिंदू-मुसलमान के नाम पर उलझते रहे और हमारे देश का विकास कार्य ठप्प पड़ गया। वहीं पिछले वर्ष महामारी के कारण भी हम पिछड़ गए।

पत्रकारिता कोई पेशा नहीं एक जज्बा है, उससे यदि आप नजर हटा लेंगे तो आपकी जगह लेने के लिए एक बड़ी लंबी लाइन लगी है। चयन आपको करना है कि जो अवसर आपको मिला है उस समय में आप अपने को समाज में कितना स्थापित कर सकते हैं। आपकी हर गतिविधि पर नजर रखने के लिए पूरा समाज ही नहीं, पूरा देश आपकी ओर एक उम्मीद भरी नजरों से देख रहा है। अब आपको तय करना है कि समाज आपको बुद्धिजीवी मानकर आपसे उम्मीद लगाए बैठा है कि आपके सच से समाज का ही नहीं प्रशासन की कुंभकर्णी नींद भी खुलेगी और उससे उसका भी भला होगा। अखबार के उन तमाम बड़े पत्रकारों से भी यही उम्मीद हर व्यक्ति को होती है कि वह अपने अंदर व्याप्त भय को त्याग कर सरकार को सच का आईना दिखा सच बताए कि आज देश किस स्थिति से गुजर रहा है। यह ठीक है कि ऐसा करने पर उनका कॉलम छपना बंद हो जाएगा और सरकार में उनकी हैसियत खत्म हो जाएगी, लेकिन कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। अपने आत्मबल और ईश्वरीय शक्ति और बुद्धि से जीविकोपार्जन का कोई न कोई रास्ता तो निकल ही जाएगा। अपने ऊपर विश्वास तो रखिए और सच्चाई को खुलकर सामने तो आने दीजिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)।

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