कलयुग में श्रीराम ही हैं सर्वव्यापी
पडित नीरज शर्मा
मैंने कुछ माह पहले अपने क्षेत्रों के मजबूर मेहनतकश मजदूरों के अधिकार के लिए रामचरित मानस का पाठ किया। फरीदाबाद में की जा रही कर्मचारियों की छंटनी के विरोध में मैंने जेसीबी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड सेक्टर 58 के गेट पर रामचरितमानस का पाठ किया था। फरीदाबाद में जेसीबी इंडिया प्राइवेट लिमिटिड एवं अन्य कंपनी प्रबंधकों द्वारा कर्मचारियों की छटनी के विरोध में किए गए इस रामचरितमानस से प्रबंधकों का विचार बदला और कर्मचारियों को उनका अधिकार मिले. तुलसीदास जी असज्जन अर्थात् दुष्टों को नमन किया इस भाव से ये ज्ञानप्राप्त होता है कि श्री रामचरित मानस में एकरूपता है ऊंच नीच का भेदभाव भी इससे समाप्त होता है ।
उसके बाद मैंने महसूस किया कि मेरे अंदर के कई अवगुणों का स्वतः ही नाश हो गया है। यह अनायास नहीं होता है। यह श्रीराम की ही महिमा है। मेरे अंदर भी सकारात्मक परिवर्तन आए। उसके बाद मुझे लगा कि यदि व्यापक पैमान पर हर व्यक्ति तक श्रीराम कथा का संदेश पहुंचे, तो सबके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन होगा।
कलियुग में श्रीराम नाम की महिमा अपार है। इसके जाप मात्र से ही मनुष्य अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। जो मनुष्य भौतिक सुख-सुविधाओं में लीन होकर ईश्वर को भूल जाता है उसे अंत में पछताना पड़ता है। श्रीराम प्रात: उठकर अपने माता-पिता व गुरुओं के चरण स्पर्श करते थे। पिता के कहने पर राजपाट त्याग कर वन में ऋषि-मुनियों के सानिध्य में चले गए। उन्होंने अपने जीवन में मर्यादाओं का पालन किया। इसी लिए वे मर्यादा पुरुषोत्तम भी कहाए। ऋषि विश्वामित्र श्रीराम व लक्ष्मण को लेकर जनकपुरी पहुंचे तो वहां दोनों भाईयों को देखने वालों की भीड़ जुट गई। उस समय जिस व्यक्ति के मन में जिस प्रकार के भाव थे उन्हें श्रीराम उसी रूप में दिखाई देने लगे। भक्त को वह भगवान तो दुष्ट को काल नजर आ रहे थे।
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥
कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥
कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमानजी हैं॥
कहते हैं कि कलियुग ने आने के लिए राजा परीक्षित से बहुत अनुनय-विनय की। कहा कि घबराइए नहीं महाराज, हम किसी को तंग नहीं करेंगे, बस ‘स्वर्ण’ में घर बसाएंगे। हमारे साथ दो-चार संगी, साथी होंगे- राग, द्वेष, ईर्ष्या, काम-वासना आदि। अपने गुण बताते हुए कलियुग ने कहा- सुनो हमारी महिमा! हमारे राज में जो प्रभु का ‘केवल’ नाम ले लेगा, उसकी मुक्ति निश्चित है।
और तो और, मन से सोचे गए पाप की हम सजा नहीं देंगे, पर मन से सोचे गए पुण्य का फल जरूर देंगे। राजा परीक्षित ने कलियुग को आने दिया तो सबसे पहले वह राजा के सोने के मुकुट में ही विराजमान हुआ और सबसे पहले उन्हें ही मृत्यु की ओर धकेल दिया।
कलियुग को सभी कोसते हैं, सभी क्रोध, राग, द्वेष और वासना से ग्रस्त हैं। कोई कहता है काश, हम सतयुग में पैदा हुए होते। कोई त्रेता और द्वापर युग के गुण गाता है। तुलसीदास ने जन-मानस की हालत देखकर समझाया कि कलियुग में बेशक बहुत सी गड़बडि़याँ हैं, मगर उन सबसे बचने का उपाय जितनी सरलता से कलियुग में मिल सकता है, उतनी सरलता से किसी और काल में नहीं मिला। पहले प्रभु को पाने के लिए ध्यान करना पड़ता था।
त्रेता में योग से प्रभु मिलते थे, द्वापर में कर्मकांड का मार्ग था। ये सभी मार्ग नितांत कठिन और घोर तपस्या के बाद ही फलीभूत होते हैं, पर कलियुग में ईश्वर को प्राप्त करना पहले के मुकाबले बड़ा ही सरल हो गया है।
कैसे भाई? हर मत और संप्रदाय ने गुण गाया है ‘नाम’ का। यह वह मार्ग है जहाँ विविध संप्रदाय एकमत हो जाते हैं। तभी तो गोस्वामी तुलसीदास ने कहा:
कलियुग केवल नाम अधारा। सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा।।
नाम जप में किसी विधिविधान, देश, काल, अवस्था की कोई बाधा नहीं है। किसी प्रकार से, कैसी भी अवस्था में, किसी भी परिस्थिति में, कहीं भी, कैसे भी नाम जप किया जा सकता है। इस नाम जप से हर युग में भक्तों का भला हुआ। श्रीभद् भागवत में कथा आती है अजामिल ब्राह्माण की, जिसने सतयुग में घोर पाप किया। पत्नी के होते हुए वेश्या के पास रहा। वेश्या के पुत्र का नाम नारायण रख दिया। मरते समय पुत्र को पुकारा, ‘नारायण!’ तो स्वयं नारायण आ गए।
ऐसी ही एक और कथा है गज ग्राह युद्ध की। गज ने अपनी सूंड तक अपने को डूबते पाया तो पुकारा ‘रा!’ इतनी भी शक्ति नहीं थी कि पूरा ‘राम’ कह दे। पर प्रभु ने भाव समझ लिया और गज के प्राण बचा लिए। त्रेता में वाल्मीकि ने नाम जप किया तो उल्टा। ‘राम’ कह न सके, डाकू थे, मांसाहारी थे, सो ‘मरा’ कहना सरल लगा, तोते की तरह रटते रहे तो स्वयं श्री राम पधारे कुटिया में।
‘उलटा नाम जपत जग जाना। वाल्मीकि भए ब्रह्मा समाना।’ द्वापर युग में दौपदी ने भरी सभा में रोते हुए हाथ खड़े कर दिए। सभी का सहारा छोड़ दिया तो कृष्ण की याद आई। श्रीकृष्ण चीर रूप में प्रकट हुए।
कलियुग में तो नाम जप के भक्तों की भरमार है। कबीर, मीरा, रैदास, तुलसीदास, रहीम, रसखान, नानक, रामकृष्ण परमहंस, रमण महर्षि आदि। राजा परीक्षित के वैद्य धन्वन्तरि तो कहते थे कि ‘नाम जप’ औषधि है, जिससे सभी रोग नष्ट हो जाते हैं। इस औषधि का लाभ गांधीजी ने भी तो उठाया। हर अवस्था में, चिंता में, रोग में उन्होंने ‘राम नाम’ का आश्रय लिया।
लेकिन नाम जप का यह अर्थ नहीं कि पाप करने की छूट मिल गई। नाम से पापों का विनाश होता तो है, पर तभी जब व्यक्ति के हृदय में पिछले पापों के प्रति प्रायश्चित और उन्हें दोबारा न करने का संकल्प हो। नाम जप की औषधि के साथ परहेज भी आवश्यक है। नाम जपते रहो, क्रोध स्वत: दूर हो जाएगा। जप में बुरी प्रवृत्तियां पीछे हटती जाती हैं। उन्हें जबरन हटाने का प्रयास न करो, बस नाम जपो, प्रेम से।
रामचरितमानस में भी बाबा तुलसी ने लिखा है,,,,सत्ययुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान करके सब प्राणी भवसागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सब कर्मों को प्रभु को समर्पण करके भवसागर से पार हो जाते हैं॥ द्वापर में श्री रघुनाथजी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्री हरि की गुणगाथाओं का गान करने से ही मनुष्य भवसागर की थाह पा जाते हैं॥
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना। एक अधार राम गुन गाना॥
सब भरोस तजि जो भज रामहि। प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि॥
कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्री रामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्री रामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है,॥ वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है।
(लेखक श्रीराम भक्त और एनआईटी फरीदाबाद, हरियाणा के विधायक हैं।)