सुशील कुमार के महानायक से खलनायक बनने की कहानी, कौन है असली गुनहगार?
राजेंद्र सजवान
भारत का सर्वकालीन श्रेष्ठ खिलाड़ी पहलवान सुशील कुमार अर्श से फर्श पर कैसे गिरा और उसको हीरो से ज़ीरो बनाने में कौन से कारण जिम्मेदार हैं?
इन सवालों के जवाब खोजने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। सीधे घटनास्थल पर चलते हैं जहां से सुशील ने अपने करियर की शुरुआत की थी। दस साल की उम्र में वह छत्रसाल स्टेडियम पहुंचा और छत्तीस साल की उम्र तक इसी अखाड़े ने उसे वह सब दिया जिसने उसे भारत का सबसे महान पहलवान तो बनाया ही साथ ही ऐसा पहला भारतीय खिलाड़ी भी बना जिसने ओलंपिक में दो व्यक्तिगत पदक जीते। ऐसा करिश्मा कोई दूसरा भारतीय खिलाड़ी नहीं कर पाया है।
कामयाबी के शिखर पर पहुंचने के बाद उस पर धनवर्षा हुई, मान सम्मान इतना मिला जितना पहले कभी किसी खिलाड़ी को नहीं मिला था। सच तो यह है कि देश के लिए स्वर्ण पदक जीतने वाले अभिनव बिंद्रा भी उसके सामने बहुत बौने नजर आते थे। वह जहां जाता देश के बच्चे, युवा, बुजुर्ग, पत्रकार, बडे से बड़े खिलाड़ी , नेता और अभिनेता उसके साथ फोटो खिंचवाने पर खुद को धन्य मानते।
इसमें दो राय नहीं कि वह जितना बड़ा खिलाड़ी है, उससे कहीं बड़ा इंसान भी कहलाया। बड़े बुजुर्गों और मीडियाकर्मियों को झुक कर, पांव छूकर सलाम करता। फिर यकायक ऐसा क्या हुआ कि भारतीय खिलाड़ियों का आदर्श भागने और छुपने के लिए विवश हुआ? क्यों वह कुश्ती का गुनहगार बना? आखिर क्यों एक महान खिलाड़ी को थू थू का शिकार होना पड़ा?
सुशील के उत्थान और पतन के गवाह रहे पहलवान और उसके करीबी कोचों का मानना है कि जिस दिन उसने रेलवे से डेपुटेशन पर दिल्ली सरकार के खेल विभाग का जिम्मा संभाला उसी दिन से उसकी यश कीर्ति की उल्टी गिनती शुरू हो गई थी। कारण, वर्षों से छत्रसाल स्टेडिम से देश के स्कूली खेलों का जंगलराज नियंत्रित होता आया है।
आम धारणा यह रही है कि स्कूल गेम्स फेडरेशन आफ इंडिया एक भ्र्ष्ट संस्था है, जिसने भारतीय खेलों की बर्बादी में सबसे बड़ा रोल अदा किया है। सवाल दिल्ली सरकार से भी पूछा जा सकता है कि आखिर उसने क्यों कर एक सरकारी अखाडे को प्राइवेट हाथों में सौंप दिया? क्यों अखाड़े की गतिविधियों पर नजर नहीं रखी गई?
सतपाल जैसा ससुर, सावी जैसी पत्नी, दो प्यारे जुड़वां बेटे और हर तरह के ठाट बाट के बावजूद भी यदि सुशील के गलत मार्ग चुना तो उसके लालन पालन में ही कोई कमी रह गई होगी। उसे रामफल मान और स्वर्गीय यशवीर जैसे नेकदिल द्रोणाचार्यों ने दांव सिखाए, शिक्षा दीक्षा दी। यह बात अलग है कि उन्हें वह सम्मान नहीं मिला जिसके हकदार थे। सवाल यह पैदा होता है कि उसके ससुर और चैंपियन पहलवान सतपाल से कहाँ चूक हुई? क्यों वह सशील को गलत राह पकड़ने से नहीं रोक पाए?
काश, सुशील बेगुनाह साबित हो और उस पर लगा दाग धूल जाए! फैसला सम्मानित न्यायालय को करना है। लेकिन सागर की हत्या हुई है। कोई तो हत्यारा है। उसे माफी कदापि नहीं मिलनी चाहिए। लेकिन देश के खेल आकाओं, स्कूल गेम्स फेडरेशन, छत्रसाल अखाड़े के संचालकों और सुशील के अपनों से यह तो पूछा ही जा सकता है कि एक महान पहलवान और प्यारा खिलाड़ी हैवान कैसे बन गया? उसकी शिक्षा दीक्षा में कहां कमी रह गई?
(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं. )