अहसान फरामोश फुटबाल को चैंपियनों की बददुआ खा गई

राजेंद्र सजवान

भारतीय फुटबाल के लिए खून पसीना बहाने वाले और एशियाड एवम ओलंपिक में देश का नाम रौशन करने वाले खिलाड़ी कहाँ और कैसे हैं, कितने स्वर्गवासी हो गए और जो बचे हैं किस हाल में हैं, जैसे सवालों के जवाब सरकारों और देश में फुटबॉल का कारोबार करने वालों के पास शायद ही हो! कुछ पूर्व खिलाड़ियों ने अपने स्तर पर प्रयास किए और पाया कि अब सिर्फ आठ ओलंपियन ही बचे हैं। बाकी कब और किस हाल में दुनिया से विदा हो गए जिम्मेदार लोगों ने शायद ही कभी जानने का प्रयास किया हो।

नतीजा सामने है। दो एशियाई खेलों में भारत की विजय पताका फहराने वाले और ओलंपिक में चैंपियनों को टक्कर देने वाले महान खिलाड़ियों को भुलाने और उन्हें अभाव का जीवन जीने के लिए मजबूर करने वाली व्यवस्था ने अब महान खिलाड़ी पैदा करना बंद कर दिया है।

अब फुटबाल के नाम पर बस आईएसएल जैसा बेतुका आयोजन बचा है, जिसमें बूढ़े और अन्तरराष्ट्रीय फुटबाल से दर बदर खिलाड़ी भाग ले रहे हैं। आई एस एल और आई लीग जैसे आयोजन क्यों किए जा रहे हैं और किसको फायदा पहुंच रहा है इस बारे में तो भारतीय फुटबाल फेडरेशन ही बता सकती है। लेकिन देश की राष्ट्रीय फुटबाल चैंपियन शिप, संतोष ट्राफी का क्या हाल है?

कभी संतोष ट्राफी खेलना और अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करना हर खिलाड़ी का सपना होता था। अब संतोष ट्राफी, फेडरेशन कप, डूरंड, डीसीएम, आईएफए शील्ड और अन्य कई आयोजन या तो पहचान खो चुके है या आर्थिके तंगी और अन्य कारणों से बंद हो गए हैं।

यही आयोजन हैं जहां से भारतीय फुटबाल को नामी खिलाड़ी मिले, जिनके दम पर हमने दो बार महाद्वीप में चैंपियन का रुतबा कायम किया। आज हमारी हालात यह है कि हमें उपमहाद्वीप की फिसड्डी टीमें डरा धमका रही हैं।

पूर्व खिलाड़ियों का कहना है कि उनके समय में ग्रास रुट स्तर बहुत मजबूत था। स्कूल कालेज में खेल के लिए भले ही बेहतर सुविधाएं नही थीं लेकिन एक फुटबाल से पचास बच्चे खेलते थे। यही आगे चल कर दमदार खिलाड़ी बने।

बड़े क्लबों में खेल कर भारत के लिए खेले। मेवा लाल, पीके बनर्जी, पीटर थंगराज, चुन्नी गोस्वामी, यूसुफ खान, अरुण घोष, शैलेंन मन्ना, बलराम, डिसूजा, एसएस हकीम, जरनैल सिंह, हबीब, मगन सिंह, इंदर सिंह, हरजिंदर, परमिंदर, प्रसून बनर्जी, जैसे खिलाड़ी उस दौर में उभर कर आए जब हर क्लब, संस्थान और प्रदेश के पास उच्च स्तरीय खिलाड़ियों की भरमार थी। देश के सौ से अधिक श्रेष्ठ खिलाड़ियों के नाम आम फुटबाल प्रेमी की जुबान पर थे।

पिछले चार दशकों की फुटबाल पर नजर डालें तो विजयन, बाइचुंग और सुनील छेत्री जैसे नाम ही चर्चा में रहे। ज़ाहिर है भारतीय फुटबाल में स्टार खिलाड़ियों की खेती बंजर पड़ी है। हालांकि एआईएफएफ के कुछ मुहंलगे सहमत नहीं होंगे, उनके पेट में मरोड़े पड़ रहे होंगे लेकिन सच्चाई है तो कड़वी भी लगेगी।

जिन फुटबाल प्रेमियों ने पचास साठ साल पहले की भारतीय फुटबाल को जिया है, करीब से देखा है, उन्हें कल और आज की फुटबाल का फर्क पता है। वे यह भी जानते हैं कि भारतीय फुटबाल ने कल के चैंपियनों का सम्मान नहीं किया, उन्हें दर बदर किया और अभाव में जीने के लिए विवश किया। उनकी हाय और बददुआ ने ही हमारी फुटबाल का सर्वनाश किया है, ऐसी राय रखने वाले कई हैं।

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं.)

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