जन्मदिन पर विशेष: व्यवस्था का शिकार हुआ पिता का भारत रत्न, बेटे का पद्मश्री!
राजेंद्र सजवान
देर से ही सही लेकिन अब कुछ कुछ समझ आ रहा है कि आख़िर क्यों हॉकी के जादूगर मेजर ध्यान चन्द को भारत रत्न नहीं मिल पाया। जब विश्व कप विजेता भारतीय हॉकी टीम के स्टार खिलाड़ी और दद्दा ध्यान चन्द के सुपुत्र अशोक कुमार को पद्म श्री के काबिल नहीं समझा गया तो यशस्वी पिता की अनदेखी का कारण भी सहजता से समझा जा सकता है, यह खुलासा आज यहां 69 वर्षीय अशोक ध्यान चन्द ने अपने जन्मदिन पर किया।
ध्यान चन्द को भले ही सबसे बड़ा राष्ट्रीय सम्मान नहीं मिला लेकिन पूरा देश जानता है कि जिस प्रकार महात्मा गाँधी भारत की पहचान बने उसी प्रकार आज़ादी पूर्व के तीन ओलंपिक गोल्ड मेडल ने दद्दा और देश को अंतरराष्ट्रीय मानचित्र पर सम्मान दिलाया। उनके नाम पर राष्ट्रीय खेल दिवस मनाया जाता है, स्टेडियम का नामकरण किया जाता है और बड़ी बड़ी खेल योजनाएँ एवम् अवार्डो का नामकरण किया जाता है लेकिन उन्हें भारत रत्न ना देने की विवशता समझ नहीं आती। ऐसा नहीं है कि देश की सरकारों को ध्यानचन्द परिवार से किसी तरह की नाराज़गी रही है या कहीं कोई गंदी राजनीति की जा रही हो। इस बारे में जब अशोक ध्यान चन्द से पूछा गया तो हमेशा की तरह उन्होने जवाब दिया ‘अपने पिता के लिए सम्मान माँगते मुझे अच्छा नहीं लगता और ना ही कभी कोई प्रयास किया। लेकिन जब आप जैसे पत्रकार मित्र पूछते हैं तो मैं कह देता हूँ कि इसका जवाब सरकार ही दे सकती है’।
मुझे इस बात की खुशी है कि आपने मेरे बारे में भी सवाल किया और जानना चाहा कि मुझे पद्मश्री क्यों नहीं मिल पाई! आपको बता दूं कि मैं अपने पिता की तरह देशभक्त और अनुशासित खिलाड़ी रहा हूँ। मैने कोई अपराध नहीं किया और ना ही मैदान और मैदान के बाहर किसी विवाद से जुड़ा रहा हूँ। हाँ, मेरी ग़लती यह है कि मैने कभी पद्मश्री के लिए आवेदन नहीं किया। तीन विश्व कप खेले और क्रमशः ब्रांज, सिल्वर और गोल्ड जीते। म्यूनिख ओलंपिक में पदक नहीं जीत पाए लेकिन तीन एशियाई खेलों में तीन सिल्वर मेडल मेरे खाते में हैं।
1975 में जिस भारतीय टीम ने अजित पाल की कप्तानी में विश्व कप जीता था अशोक उस टीम के स्टार खिलाड़ी थे। उनके खेल के चर्चे आम थे। कोई उन्हें मैच विजेता कहता था तो हॉकी की गहरी समझ रखने वाले उन्हें ड्रिब्बलिंग का शहँशाह कह कर बुलाते थे। बेशक, वह देश के सबसे लोकप्रिय खिलाड़ियों में से रहे लेकिन फिर भी उन्हें तमाम उपलब्धियों के चलते पद्मश्री माँगनी पड़े तो दोष उनका नहीं व्यवस्था का है। अशोक कहते हैं कि उन्होने यह सोच कर आवेदन नहीं किया कि अगर उनकी प्रार्थना अस्वीकार हुई तो खुद से भी आँख नहीं मिला पाएँगे। एक चैम्पियन यदि यह कहता है तो रेबड़ियों की तरह राष्ट्रीय सम्मान बाँटने वालों पर शर्म आती है। वैसे भी कौन नहीं जानता कि इस देश ने कैसे कैसे अवसरवादियों को पद्म सम्मान बाँटे हैं।
मोहन बागान और इंडियन एयर लाइंस जैसी चैम्पियन टीमों को सेवाएँ देने वाले अशोक को इस बात का अफ़सोस है कि भारतीय हॉकी में स्टार खिलाड़ियों की कमी आई है। ऐसा इसलिए क्योंकि खिलाड़ियों को घरू आयोजनों में खेलने का मौका नहीं मिल पाता। सालों साल कैंप में रहते हैं और जब कोई बड़ा आयोजन होता है तो नतीजे बदल नहीं पाते। उल्टे हॉकी प्रेमी अपने खिलाड़ियों से दूर होते जा रहे हैं और उन्हें पहचान भी नहीं पाते। उनके समय में राष्ट्रीय और क्लब स्तरीय टीमों के अधिकांश खिलाड़ी ख़ासे चर्चित हुआ करते थे। अशोक को लगता है कि एक बड़ी ख़िताबी जीत भारतीय हॉकी को बदल सकती है, जिसका कई सालों से इंतज़ार है।
(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं। ये उनका निजी विचार है, चिरौरी न्यूज का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं है।आप राजेंद्र सजवान जी के लेखों को www.sajwansports.com पर पढ़ सकते हैं।)