माफ़ करना रहीम साहब!

राजेंद्र सजवान
पिछले पचास-साठ सालों में भारतीय फुटबाल ने अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। क्षमा करें, सिर्फ़ उतार देखे हैं, क्योंकि चढ़ाव का दौर तो सैयद अब्दुल रहीम अपने साथ ले गये थे। अब आप पूछेंगे कि यह रहीम साहब कौन थे? जी वही रहीम जिनके कोच रहते भारतीय फुटबाल ने अपना स्वर्णिम दौर ज़िया और अगर वह नहीं होते तो शायद भारतीय फुटबाल के पास बोलने-लिखने के लिए भी कुछ नहीं होता। आज उन्हीं का जन्मदिन है।

चूँकि भारतीय खेलों में अपनी महान हस्तियों को याद करने की परंपरा लगभग समाप्त सी हो गई है इसलिए शायद आप हम और हमारे बाद की पीढ़ी कुछ एक सालों में अब्दुल रहीम को भुला देगी। लेकिन जो इतिहास लिखा जा चुका है और सुनहरे पन्नों में दर्ज़ हो चुका है, उसे कोई कैसे भूल पाएगा! रहीम भुला देने वाला नाम नहीं है और चूँकि भारतीय फुटबाल ने अपने इतिहास के सबसे बड़े शिल्पकार को भुलाने का दुस्साहस किया,इसलिए हमारी फुटबाल अपनी चाल और पहचान भी भूल गई है।

भारतीय फुटबाल के नाम जो बड़ी उपलब्धियाँ हैं, उन पर सबसे पहला नाम रहीम का जुड़ा है। 1951 के दिल्ली एशियाड और तत्पश्चात 1962 के जकार्ता एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली भारतीय टीम के कोच और मार्गदर्शक वही थे। वही थे जिनके कोच रहते भारत ओलंपिक के सेमी फाइनल तक पहुँचा। 1963 में कैंसर पीड़ित होने और मौत को गले लगाने से पहले वह भारतीय फुटबाल को मज़बूत बुनियाद दे चुके थे जिसे बाद के अधिकारियों ने गंदी राजनीति के चलते बर्बाद कर रख दिया।

बेशक, भारतीय फुटबाल को अर्श से फर्श पर पटकने में देश की फुटबाल फ़ेडेरेशन का बड़ा रोल रहा। भारतीय फुटबाल को समृद्ध ढाँचा देने वाले रहीम ने जैसे ही दुनिया से कूच किया भारत में फुटबाल के बुरे दिन शुरू हो गए और एक दिन वह भी आया जब हमारे बेहतरीन खिलाड़ियों में शामिल सुनील क्षेत्री को मुट्ठी भर फुटबाल प्रेमियों के सामने गिड़गिडाना पड़ा और कहना पड़ा की उनके मैच देखने ज़रूर आएँ।

एक दौर वह भी था जब कलकता, गोवा, महाराष्ट्र, केरल, दिल्ली, हैद्राबाद और देश भर के फुटबाल स्टेडियम खचा खच भरे होते थे। तब सितारा खिलाड़ियों की भरमार थी। एशियाई खेलों में अपने खेल का जौहर दिखाने वाले खिलाड़ियों के अलावा दर्जनों स्टार खिलाड़ी थे जोकि छोटे बड़े क्लबों में खेलते थे और जिनकी जीविका फुटबाल से ही चलती थी। तब रहीम ने भारतीय फुटबाल को आगाह किया था कि अपनी प्रतिभाओं को संवार कर रखें। उन्हें देश विदेश में ट्रेनिंग के लिए भेजें और देश में अच्छे कोचों के साथ साथ खेलने के अधिकाधिक मैदान और स्टेडियम भी बनाएँ। लेकिन सरकार, फ़ेडेरेशन और ज़िम्मेदार लोगों ने उनकी सीख को हवा में उड़ा दिया। नतीजा सामने है, भारतीय फुटबाल की हवा फुस्स हो गई है।
जो देश कभी फ्रांस, पुर्तगाल और इटली को टक्कर देता था और जिसे जापान, ईरान, कोरिया जैसे देश सम्मान देते थे उसकी हालत यह हो गई है कि अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश भी कुछ नहीं समझते। उसे एशियाड में खेलने लायक भी नहीं समझा  जाता।
रहीम के जाने के बाद भारतीय फुटबाल ने 40 बार कोच बदले, अपनों को त्याग कर विदेशी कोचों को भी आजमाया लेकिन प्रदर्शन में गिरावट को नहीं थाम पाए। कई गोरे कोच आए पर भारतीय फुटबाल फिसलती चली गई। शायद रहीम के मार्गदर्शन से भटकने की सजा भुगतनी पड़ी। भारत के लिए उन्होने 4-2-4 की फारमेशन को बेहतर बताया था जिसे हमारे और विदेशी कोाचों ने तोड़ मरोड़ कर रख दिया। दुर्भाग्य भारतीय फुटबाल का आज रहीम साहब के जन्मदिन पर उन्हें तोहफे में देने के लिए कुछ भी नहीं बचा। चलिए हम सभी गुनहगार उस महान आत्मा से माफी माँग लेते हैं।  शायद यही सच्ची भेंट और श्रद्धांजलि होगी।

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(राजेंद्र सजवान वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं. आप इनके लिखे लेख www.sajwansports.com पर भी पढ़ सकते हैं.)

 

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