कौन है हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के रचियता, जानें पूरी कहानी

शिवानी पाल

नई दिल्ली। पूरा विश्व इस समय जिन हालातों से गुज़र रहा हैं  वो किसी से छिपा नहीं है। विश्व स्तर की बात करें तो कोरोना वायरस का कहर तेजी से बढ़ता हुआ सभी देशों को अपनी चपेट में ले रहा है। इसे रोकने के लिए सभी देश हर मुमकिन कोशिश में लगे हैं। कोरोना से बचने के लिए जिस दवा का आज सबसे ज्यादा चर्च है वो है हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन.

क्या है हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन?

आपने हाल ही में चल रहे कोरोना काल में इस शब्द को काफी सुना होगा और पढ़ा होगा। दरअसल यह एक दवाई का नाम है, जोकि मलेरिया रोग में उपयोग की जाती है। हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का उत्पादन बंगाल में किया जाता है। बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड एकमात्र सबसे बड़ी कंपनी है, जिसकी स्थापना 119 साल पहले आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रॉय ने की थी। यह कंपनी क्लोरोक्वीन फास्फेट बनाती है, जो एक मलेरिया की दवा है। इसका प्रभाव भी वही है जो हाल में हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन सल्फेट का है। हालाकि  इस कंपनी में कुछ सालों से दवाईयों का उत्पादन बंद था, जिसे शुरू करने के लिए दोबारा लाइसेंस लेने की जरूरत पड़ेगी।
हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का नाम तब अधिक चर्चा में आया जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन के निर्यात की गुजारिश की । दरअसल इस दवाई का इस्तेमाल कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों पर किया जा रहा है। काफी समय से इस दवाई पर भारत से निर्यात पर रोक लगी हुई है। खबरें यह भी थी कि डोनाल्ड ट्रंप ने भारत को धमकी भी दी है, कि वह इस रोक को हटा दे।

क्लोरोक्वीन या एचसीओएस मलेरिया की बेहद पुरानी और कारगर दवाई है, इसका इस्तेमाल दशकों से मलेरिया के मरीजों के लिए किया जा रहा है। क्लोरोक्वीन और इससे जुड़ी दवाइयां विकासशील देशों में पर्याप्त मात्रा में मौजूद हैं, इन देशों में मलेरिया के इलाज में इन दवाओं का इस्तेमाल होता आया है। हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन को दूसरे विश्व युद्ध के दौरान इजाद किया गया था, इसके अलावा इसे जोड़ों के दर्द के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। दरअसल, एक छोटे से अध्ययन के मुताबिक हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन के साथ एजिथ्रोमाइसीन का संयोजन covid-19 के असर को कम कर सकता है। जैसे-जैसे कोरोना के इलाज में इस दवा के प्रभावी होने की संभावना व्यक्त की जा रही है वैसे-वैसे कई देशों में इसकी मांग बढ़ी है और उसकी उपलब्धता में कमी हो रही है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का यह कहना है कि ये कोरोना वायरस के इलाज में कितनी प्रभावी है, इसे लेकर कोई ठोस प्रमाण मौजूद नहीं है। वैज्ञानिकों को उम्मीद इस वजह से जागी क्योंकि लंबे समय से हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन का इस्तेमाल मलेरिया के बुखार को कम करने में किया जा रहा है और उम्मीद है कि यह कोरोना वायरस को भी रोकने में सक्षम हो सकती है। दूसरी ओर इस दवा का गुर्दे और लिवर पर गंभीर दुष्प्रभाव होता है। बहरीन का दावा है कि उसने सबसे पहले अपने यहां कोरोना के मरीज पर हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन का इस्तेमाल किया है। भारत में हर महीने करीब 20 लाख टेबलेट की जरूरत पड़ती है। यानी साल में करीब दो करोड़ चालीस लाख टेबलेट। वहीं भारत हर साल 20 करोड़ टेबलेट बना सकता है।

डॉ प्रफुल्ल चंद्र रॉय का हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन से क्या संबंध है?

नाइट्राइट्स का मास्टर कहे जाने वाले आचार्य प्रफुल्ल चंद्र रॉय के बारे में जितना बताया जाए उतना कम है। महात्मा गांधी ने उनके बारे में कहा था, “शुद्ध भारतीय परिधान में आवेष्ठित इस सरल व्यक्ति को देखकर विश्वास नहीं होता कि वह एक महान वैज्ञानिक हो सकता है।”

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अति प्रतिष्ठित विज्ञान पत्रिका “नेचर” ने उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए लिखा था, “लिपिबद्ध करने के लिए संभवत प्रफुल्ल चंद्र रॉय से अधिक विशिष्ट जीवन चरित्र किसी और का हो ही नहीं सकता।”
महान रसायनज्ञ, उद्यमी तथा महान शिक्षक डॉ प्रफुल्ल चंद्र राय ने ही हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन का अविष्कार किया था। उस समय शायद ही उन्हें यह विचार आया हो जब दुनिया में कोरोना जैसी महामारी का आगमन होगा तब उनकी यह दवाई सर्वाधिक लोकप्रिय होगी।

डॉक्टर प्रफुल्ल चंद रॉय के जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण बातें…

आचार्य रॉय भारत के प्रथम रसायन शास्त्र के प्रोफेसर ही नहीं थे अपितु रसायन उद्योग की नीव रखने वाले भारत के पहले व्यक्ति भी थे। अचार्य जी का जन्म 2 अगस्त 1861 को बंगाल की खुलना जिले के रारूली कतिपुरा नामक ग्राम में हुआ था। उनके पिता श्री हरिश्चंद्र रॉय फारसी के विद्वान थे उन्हें अंग्रेजी शिक्षा का महत्वपूर्ण ज्ञान था। अपने ही गांव में उन्होंने मॉडल स्कूल की स्थापना की। इसी स्कूल से आचार्य जी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी की इसके पश्चात आचार्य जी का पूरा परिवार कोलकाता चला गया।

1887 में एडिनबर्ग विश्वविद्यालय विद्यासागर कॉलेज से उन्होंने अपनी आगे की पढ़ाई पूरी की। रसायन विज्ञान के साथ साथ आचार्य जी को इतिहास से भी बहुत लगाव था। 10 से 12 वर्षों के गहन अध्ययन के बाद उन्होंने “रसायन का इतिहास” नामक ग्रंथ लिखा। यह ग्रंथ देश-विदेश तक के वैज्ञानिकों ने सराहा। इसी पुस्तक के उपलक्ष्य में “डरहम विश्वविद्यालय” ने D.S.C की सम्मानित उपाधि आचार्य जी को प्रदान की।

उनकी आत्मकथा “लाइफ एंड एक्सपीरियंस ऑफर बंगाली केमिस्ट” में उनके जीवन के विभिन्न गुणों को दिखाया गया है। आचार्य का सपना था कि देश इस मुकाम पर खड़ा हो, जहां उसे जीवनरक्षक दवाओं के लिए पश्चिमी देशों का मुंह न ताकना पड़े। और आज दुनिया की कई बड़ी महाशक्ति कोरोना से निपटने के लिए भारत से मदद की गुहार लगा रही है।

12 साल की उम्र में जब बच्चे परियों की कहानी सुनते हैं, तब प्रफुल्ल गैलीलियो और सर आइजक न्यूटन जैसे वैज्ञानिकों की जीवनियां पढ़ने का शौक रखते थे। वैज्ञानिकों के जीवन चरित्र उन्हें बेहद प्रभावित करते। प्रफुल्ल ने जब एक अंग्रेज लेखक की पुस्तक में 1000 महान लोगों की सूची में सिर्फ एक भारतीय राजा राम मोहन राय का नाम देखा तो स्तब्ध रह गए। तभी ठान लिया कि इस लिस्ट में अपना भी नाम छपवाना है। रसायन विज्ञान उनके लिए पहले प्यार की तरह था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से डिप्लोमा लेने के बाद वह 1882 में गिल्क्राइस्ट छात्रवृत्ति लेकर विदेश जाकर पढ़ने लगे। 1887-88 में एडिनबरा विश्वविद्यालय में रसायन शास्त्र की सोसाइटी ने उन्हे अपना उपाध्यक्ष चुना। स्वदेश प्रेमी प्रफुल्ल विदेश में भी भारतीय पोशाक ही पहनते थे।

व्यक्तिगत विशेषताएं….

*1888 में भारत लौटे तो शुरू में अपनी प्रयोगशाला में मशहूर वैज्ञानिक और अजीज दोस्त जगदीश चंद्र बोस के साथ एक साल जमकर मेहनत की।
*1889 में, प्रफुल्ल चंद्र कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज में रसायन विज्ञान के सहायक प्रोफेसर बन गए।
*प्रफुल्ल चन्द्र  सिर्फ अपने विज्ञान से ही नही बल्कि राष्ट्रवादी विचारों से भी लोगों को प्रभावित करते, उनके सभी लेख लंदन के अखबारों में प्रकाशित होते थे।

*वे अपने लेखों से ये बताते कि अंग्रेजों ने भारत को किस तरह लूटा और भारतवासी अब भी कैसी यातनाएं झेल रहे हैं।
*मातृभाषा से प्रेम करने वाले डॉ. राय छात्रों को उदाहरण देते कि रूसी वैज्ञानिक निमेत्री मेंडलीफ ने विश्व प्रसिद्ध तत्वों का पेरियोडिक टेबल रूसी में प्रकाशित करवाया अंग्रेजी में नही।

*1894 में प्रफुल्ल ने सबसे पहली खोज मर्करी (पारा) पर की, उन्होंने अस्थाई पदार्थ मरक्यूरस नाइट्रेट को प्रयोगशाला में तैयार कर दिखाया, इसकी सहायता से 80 नए यौगिक तैयार किए और कई महत्वपूर्ण एवं जटिल समस्याओं को सुलझाया।

*अपने इस असाधारण कार्य के कारण विश्व स्तर पर श्रेष्ठ रसायन वैज्ञानिकों में गिने जाने लगे।  डॉक्टर प्रफुल्ल चन्द्र अपने ज्ञान और कार्य का उपयोग देशवासियों के लिए करना चाहते थे।वे जानते थे कि भारत जीवनरक्षक दवाओं के लिए विदेशों पर निर्भर है। अपनी आय का अधिकांश हिस्सा वे इसी कार्य में लगाते थे।
*घर पर पशुओं की हड्डियां जलाकर शक्तिवर्धक फॉस्फेट और कैल्शियम तैयार करते।

*मेघनाद साहा और शांति स्वरूप भटनागर जैसे प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक उनके चेले रहे हैं। प्रफुल्ल चंद्र का मानना था कि भारत की प्रगति औद्योगिकीकरण से ही हो सकती है, उन्होंने अपने घर से काम करते हुए, बहुत कम संसाधनों के साथ, महज 800 रुपये की अल्प पूंजी से भारत का पहला रासायनिक कारखाना स्थापित किया।
*1901 में, इस अग्रणी प्रयास के परिणामस्वरूप बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड की नींव पड़ी, आज बंगाल केमिकल्स 100 से ज्यादा साल से समृद्ध विरासत के साथ फार्मास्यूटिकल्स और केमिकल्स के क्षेत्र में एक विश्वसनीय नाम है।

 

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