क्यों राजनीति के कीचड़ में उतर रहे हैं खिलाड़ी?

राजेंद्र सजवान

पिछले कुछ सालों में भारतीय खिलाड़ियों में राजनीति को लपकने और खेल मैदान छोड़ने के बाद दलगत राजनीति में कूदने की होड़ सी लगी है। हालाँकि कुछ एक खिलाड़ी कामयाब भी रहे हैं पर ज़्यादातर की नाकामी कुछ सवाल भी खड़े करती है। ख़ासकर, किसान आंदोलन के चलते खिलाड़ियों द्वारा अपने पदक और राष्ट्रीय सम्मान लौटाने का मामला तूल पकड़ गया है।

गुस्सा ज़ायज़ है:

यह सही है कि किसान आंदोलन से जुड़े ज़्यादातर खिलाड़ी किसान परिवारों से हैं। उनके माता पिता ने खेती कर अपने बच्चों को पाला पोषा और देश की सेवा के काबिल बनाया। ऐसे परिवारों को यदि खालिस्तानी और देश द्रोही कहा जाएगा तो किसान और उसके खिलाड़ी परिवार का नाराज होना ग़लत नहीं है। हालाँकि पहले भी कुछ खिलाड़ियों ने व्यक्तिगत कारणों से सम्मान लौटाने का साहस दिखाया है परंतु किसानों की माँगो को लेकर खिलाड़ियों का बड़ी तादात में एकजुट होना और विरोध करना कुछ और संकेत देता है।

मैदान छोड़ने के बाद क्या करें:

अक्सर देखा गया है कि ज़्यादातर भारतीय खिलाड़ी खेल मैदान से हटने के बाद आम इंसान सा जीवन व्यतीत करने लगते हैं। इसलिए क्योंकि उनके पास और कुछ करने के लिए नहीं होता। अर्थात उन्होने जो कुछ सीखा, पढ़ा और पाया उसके आगे कम ही उपयोग हो पाता है।

कुछ एक बड़े या जुगाडू खिलाड़ी सरकारी सुविधाओं का लाभ उठाने में सफल हो जाते हैं तो बाकी का किया धरा उनके साथ जाता है। उनकी योग्यता क्षमता और क़ाबलियत का कोई उपयोग नहीं हो पाता। एसा इसलिए क्योंकि देश में खेल और खिलाड़ियों के अनुभवों का लाभ उठाने की कोई योजना नहीं है। नतीजन खिलाड़ी गंदी राजनीति के शिकार हो रहे हैं।

राजनीति क्यों?

हाल के घटनाकर्म पर नज़र डालें तो विजेंद्र, योगेश्वर जैसे ओलंपिक पदक विजेता खिलाड़ी देश दुनियाँ में नाम कमाने के बाद राजनीति में हाथ आजमा रहे हैं। फिलहाल दोनों ही महारथी सफल नहीं हो पाए हैं। उम्मीद है एक दिन हमारे ओलंपिक पदक विजेता राजनीति के भी धुरंधर खिलाड़ी बन जाएँगे।

लेकिन खेल से उन्हें जो कुछ मिला है उसे वापस कैसे करेंगे? इस बात की कोई गारंटी नहीं कि नेता या मंत्री बन जाने के बाद वे खिलाड़ियों के बारे में कुछ बेहतर करेंगे। यह ना भूलें कि विजेंद्र भारत के लिए ओलंपिक पदक जीतने वाले पहले मुक्केबाज़ हैं तो योगेश्वर कुश्ती के एशियन, कामनवेल्थ और विश्व चैम्पियन रहे और ओलंपिक कांस्य जीत कर महान बन गए। तो फिर उन्हें राजनीति की दलदल क्यों रास आ रही है?

मानो दुनिया छोड़ दी:

एक जाने माने खिलाड़ी और कोच की माने तो खेल मैदान छोड़ने के बाद भारत का खिलाड़ी दुनिया छोड़ने के लिए जिंदा रहता है। उसके पास खेल को देने के लिए कुछ भी नहीं बच पाता। कारण जिस दिन वह मैदान या कोर्ट से बाहर होता है उसी दिन से उसको भुला देने की उल्टी गिनती शुरू हो जाती है। उसके गुण, ज्ञान, योग्यता और अनुभव उसी दिन समाप्त मान लिए जाते हैं।

कारण, चैम्पियनों के हुनर का लाभ उठाना हमने कभी नहीं सीखा। हाँ उनकी जगह नेताओं की चाकरी करने वाले फर्जियों को बड़े पद सौंप दिए जाते हैं। ज़रा खेल मंत्रालय और भारतीय खेल प्राधिकरण की बनावट पर नज़र डाल कर देख लें तो सब साफ हो जाएगा। इन विभागों के नीति निर्माताओं में खिलाड़ी नाम का प्राणी शायद ही दिखाई दे।

खिलाड़ियों को ज़िम्मेदारी सौंपें:

जिन खिलाड़ियों को देश की खेल नीति और भावी प्रतिभाओं के शिक्षण प्रशिक्षण में भागीदार होना चाहिए, योगदान देना चाहिए उन्हें दरकिनार कर नेताओं के जी हुजुरों को बागडोर सौंपी जाएगी तो भला भारतीय खेलों का भला कैसे होगा? कैसे हम ओलंपिक पदक की उम्मीद कर सकते हैं? इससे बड़े शर्म की बात क्या हो सकती है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र और चीन केबाद सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश खेलों में सबसे फिसड्डी है।

यदि योगेश्वर, विजेंद्र और उनके जैसे चंद और चैम्पियनों को देश या किसी प्रदेश का खेल मंत्री बना दिया जाता या उनके खेलों के शीर्ष पद सौंप दिए जाते तो शायद उन्हें राजनीति केकीचड़ में कूदने की ज़रूरत नहीं पड़ती

विदेशी क्यों?

देश के अधिकांश अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी और कोच विदेशियों की घुसपैठ को लेकर अंदर ही अंदर सुलग रहे हैं। सच्चाई यह है कि जब तक हमने अपने कोचों पर भरोसा किया, हमारे खिलाड़ी कुछ खेलों में शानदार प्रदर्शन करते रहे लेकिन जब से विदेशी कोचों की घुसपैठ बढ़ी है सभी खेल धड़ाम से गिरे हैं। हॉकी और फुटबाल के उदाहरण सामने हैं। आज भारतीय हॉकी चालीस साल से और फुटबाल 58 सालों से स्वर्ण पदक की बात जोह रहे हैं। तो फिर विदेशी कोच किसलिए? क्यों अपने शीर्ष खिलाड़ियों के अनुभवों का फायदा नहीं उठाया जा रहा? कौन हैं जो जबरन विदेशियों की घुसपैठ करवा रहे हैं?

नेता खाएँ मलाई:

कभी कहा जाता था कि खेल और राजनीति का कोई मेल नहीं लेकिन वक्त के साथ साथ यह धारणा भी बदल रही है। आज के हालात में राजनेता तो खेलों को निगल रहे हैं और बड़ी उपलब्धियों वाले खिलाड़ी तरस रहे हैं। यही कारण है कि राजनीति के लुभावने फ़ायदों को देख कर भारत का खिलाड़ी भी ललचा रहा किहै। नेताओं को मलाई ख़ाता देख उसकी जीभ भी लपलापा रही है और वह भी नेता बनने की असफल कोशिश में जुट गया है।

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार हैं.)

 

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