…तो क्या मरने के लिए ही पैदा होते हैं मजदूर!
निशिकांत ठाकुर
आजकल सुबह सो कर उठते ही दुर्घटना के ही किसी-न-किसी समाचार से पाला पड़ता है। ये हादसे बेहद दुखद और हृदय को उद्वेलित करने वाले होते हैं। पता चलता है कि कभी मालगाड़ी ने पटरी पर सो रहे मजदूरों को काट डाला, तो कभी झांसी में ट्रक मजदूरों पर चढ़ जाता है। कभी मुजफ्फरनगर तो कभी समस्तीपुर तो कभी औरैया में हादसों मे मजदूर मारे जा रहे हैं। हादसे भी अलग-अलग तरह के… कभी खाली सड़क पर परिवार के साथ अनंत यात्रा पर पैदल ही निकले लोग वाहनों द्वारा कुचल दिए जा रहे हैं, तो कभी थक कर चूर होने के बाद रेलवे ट्रैक पर सो जाने के कारण मालगाड़ी के नीचे आ जा रहे हैं। कभी ट्रॉला को पीछे से टक्कर मार कर कोई ट्रक एक साथ उसमें भरे दो दर्जन से ज्यादा मजदूरों को मौत की नींद सुला देता है। हादसों में जान गंवाने वाला यह परिवार उन्हीं का होता है, जो जान हथेली पर लेकर हजारों किलोमीटर की अनंत यात्रा पर अपनी जान बचाने ही निकले हैं। उनके पास न पैसा होता है, न खाने का कोई जुगाड़। बस, चलते जाना है। वे अपने घर पहुंच भी पाएंगे या नहीं… उन्हें स्वयं पता नहीं होता। निश्चित रूप से मजदूरों की ऐसी नियति को अलग से समझने की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि ये शुरुआत से ही इतने उपेक्षित रहे हैं, जिसकी कोई कल्पना तक नहीं कर सकता था। सच तो यह है कि ऐसी स्थिति भी कभी नहीं आई कि कोई बेवजह इन मजदूरों की चिंता करे।
मेरी समझ में यह बात नहीं आ रही है कि देश के ये कामगार इतने उपेक्षित क्यों हैं! कल्पना कीजिए यदि कामगार न होते तो शानदार शहरें, चौड़ी सड़कें, बेहतरीन भवनों, पुल-पुलियों, मॉल-मल्टीप्लेक्स के अलावा ताजमहल-लालकिला जैसी धरोहरों का निर्माण कौन करता? दरअसल, मजदूर केवल निर्माता है, और निर्माता जिसका निर्माण करता है, निर्माण के बाद उस चीज से बेदखल हो जाता है। क्या अभी हमारा देश इस स्थिति में आ गया है कि वह मशीनों के द्वारा इस सब का निर्माण कर ले। यह मजदूर-कामगार नहीं रहेंगे तो विकसित राष्ट्र की कल्पना कैसे कर सकते हैं। जो भी हा,े इस लॉकडाउन में कामगारों की उपयोगिता को सिद्ध करने का एक छोटा प्रयास जरूर हुआ है।
लॉकडाउन के लगभग दो महीने बाद सरकार की सहानुभूति अब उन कामगारों के प्रति जगी है, इसलिए तो सरकार ने निर्देश जारी किया है कि पुलिस-प्रशासन घर लौट रहे जरूरतमंद इन श्रमिकों को भोजन और शरण दे तथा आगे की यात्रा के लिए ट्रेन और बस का इंतजाम करे। अब तक तो होता यह था कि पुलिस द्वारा जगह-जगह की गई नाकेबंदी के कारण वे सड़क छोड़कर कहीं रेल की पटरियों के सहारे, कहीं नदी को पार करके, जंगलों में भटकते-भटकते छुपते- छुपाते निकलने की कोशिश करते। इसी बीच जब पुलिस की पकड़ में आ जाते थे, तो फिर नसीब में डंडे भी लिखे होते थे।
इस सबके बावजूद मजदूरों का एकमात्र उद्देश्य यही होता था कि वे किसी भी प्रकार अपने घर पहुंच जाएं। क्या वह कोई भगोड़े थे? ऐसा नहीं था शायद, बल्कि सरकार की मंशा यह रही होगी कि शारीरिक दूरी बनाकर रहें, ताकि उनके जीवन की रक्षा हो सके, क्योंकि वैश्विक महामारी कोविड-19 छुआछूत की बीमारी है और जिसका कोई टीका विश्व के वैज्ञानिक अब तक ईजाद नहीं कर पाए हैं। इसलिए कुछ राज्य सरकारों ने तो मजदूरों की मदद, तो कुछ राज्यो ने उनकी उपेक्षा की। ऐसे में राज्य की सीमाओं पर भूखे-प्यासे कई-कई दिनों तक ये खड़े रहे, यानी उन्हें बीच रास्ते में मरने के लिए छोड़ दिया गया। इसे सरकारों की अदूरदर्शिता नहीं तो और क्या कहेंगे कि उसने मजदूरों की अहमियत को कभी समझा ही नहीं। शायद यह सोचकर कि ये तो कीड़े-मकोड़े हैं, जिनका समाज में कोई औकात और अहमियत नहीं। ये पैदा ही मरने के लिए होते हैं।
लॉकडाउन के काल में और उससे पहले भी कई अच्छी पुस्तकें पढ़ने का अवसर मिला, जिनमें ’महात्मा गांधी की आत्मकथा’, तथा गिरिराज किशोर लिखित ’पहला गिरमिटिया’ तथा ’बा’ शामिल है। साउथ अफ्रीका के कई शहरों- जोहानिसवर्ग, केपटाउन आदि में मैं स्वयं घूमा हूं। केपटाउन में मैंने स्वयं कोर्ट में देखा, जो अब धुंधला पड़ चुका है बेंचों पर अब भी लिखा है ’नोट फॉर ब्लैक।’ मोहनदास करमचंद गांधी ने अपने 21 वर्ष के अफ्रीकी प्रवास काल में जो आमूल परिवर्तन कराया, ऐसा विश्व में कहीं और किसी ने नहीं किया होगा। उन पुस्तकों में कहा गया है कि अफ्रीका में तीन प्रकार के लोग रहते थे। पहला व,े जो वहां के मूल निवासी थे, जिन्हें वतनी कहा जाता था। दूसरे गोरे अंग्रेज, जिनका अफ्रीका में कब्जा था। तीसरे थे वे हिंदुस्तानी, जिन्हें कुली कहते थे। मोहनदास करमचंद गांधी हमेशा सत्य और अहिंसा की लड़ाई लड़ते रहे, चाहे दक्षिण अफ्रीका हो या हिंदुस्तान। उनका विश्वास था कि हम गोली-बंदूक से अंग्रेजां से जीत नहीं सकते, क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता था।
गोरे अच्छे घरों में रहने, अच्छा मनोरंजन और अच्छी शराबों के आदी थे। वतनी काले हब्शी होते थे, इसलिए उन पर इन गोरों का कोई असर नहीं होता था। फिर खेती और घर का काम, उद्योगों में काम, रेलवे ट्रैक बिछाने का काम, सामान ढोने का काम कौन करे! चूंकि भारत में भी ब्रितानी महारानी का शासन था, इसलिए हिंदुस्तान और दक्षिण अफ्रीकी सरकारों में एक समझौता हुआ, जिसके तहत यहां के श्रमिकों को पांच वर्षों के लिए एग्रीमेंट के आधार पर अफ्रीका ले जाने लगे। चूंकि यहां के लोग पढ़े-लिखे नहीं होते थे, इसलिए उस एग्रीमेंट पर जाने वाले को गिरमिटिया मजदूर कहा जाने लगा। उनके लिए सुविधा का कोई प्रावधान नहीं था और उन पर हमारी सोच से भी अधिक अत्याचार गोरे करते थे।
मोहनदास करमचंद गांधी जब वहां गए तो स्थितियों को सही करने में उन्हें 21 वर्ष लग गए। इस बीच उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा, उनकी पिटाई हुई, फर्स्ट क्लास का टिकट होते हुए भी बर्फीली रात में ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया और न जाने कितनी प्रताड़नाओं से उन्हें गुजरना पड़ा। गांधी की दक्षिण अफ्रीकी यात्रा का उल्लेख पिछले लेख में भी मैंने किया था। उद्देश्य केवल यह कि जो अत्याचार अपने देश में अब कामगारों पर होने लगा है और कोविड-19 के काल में जिन हालातों से उन्हें गुजरना पड़ा है, उसे सही दिशा दिलाने के लिए कोई मोहनदास करमचंद गांधी को हिंदुस्तान में फिर जन्म लेना होगा? यदि ऐसा नहीं होगा तो देश के मजदूरों का वही हाल होगा जो दक्षिण अफ्रीका में हो रहा था। याद रखना होगा कि कुछ दिनों बाद इन्हीं कामगारों की जरूरत हर जगह होगी, जिन्हें हम भूखे-प्यासे सड़क पर परिवार सहित मरने के लिए छोड़ आए हैं। हमें अंग्रेजां की गुलामी से तो मुक्ति मिल गई, लेकिन उस गुलामी से हम आज तक आजाद नहीं हो सके जिसे हमने वर्षों अंग्रेजों के अधीन रहते हुए अपनी मानसिकता में घोल लिया है। पता नहीं हमारे कुछ राष्ट्रपुरुष इतने हृदयहीन क्यों हो जाते हैं जो दुखदाई जन कल्याण में होता है उस पर निर्णय इतने विलंब से लिए जाते हैं कि जन समूह आपा खो देता है, क्योंकि उसकी भरपाई करने अथवा कष्ट निवारण करने वाला कोई नहीं होता।