किसानों का गुस्सा क्या रूप धरेगा

निशिकांत ठाकुर

हाल के दिनों में मेरे मन में एक सवाल बार-बार उठता हूं। क्या भारत को किसी की नजर लग गई है ? जहां देखो , जिस तरफ देखो अशांति है। कोई ना कोई अव्यवस्था है। हर किसी के मन में किसी ना किसी प्रकार का डर बैठ गया है कि कल की छोड़िए अगले पल क्या होगा ?असल में, ऐसा होने के कई कारण हैं – एक तो यह कि हम एक दूसरे के प्रति अविश्वास करने लगे हैं, दूसरा सरकार और जनता के बीच में ऐसा लगता है कि तालमेल खत्म हो गया। अभी कई घटनाओं को हम सब ने देखा है। हरियाणा से लेकर दिल्ली की सीमा तक किसानों पर पानी की बौछार, दिल्ली आने से रोकने के लिए हाईवे को काट देना, अपने ही देश के नेताओं और मंत्रियों को उन किसानों से नहीं मिलना, जो लंबा सफर करके अपने नेताओं से मिलकर अपना दुखड़ा रोकर सरकार की सहानुभूति चाहते थे । बदले में उन्हें कपकपाती ठंड में खुले आसमान के नीचे रहना पड़ा। वास्तव में, यह स्थिति दुखदाई है और सरकार को फिर नए सिरे से किसान नेताओं से मिलकर उनकी समस्या का समाधान करना चाहिए। वैसे बिना बातचीत के किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। चाहे वह देश की आंतरिक समस्या हो या सीमा विवाद। यह भी कहा जाता है कि बीमारी को दूर करने के लिए कड़वी दवा देने की जरूरत है, लेकिन यह अपने ही देश के अन्नदाता है, जो कठोर परिश्रम करके हमारे लिए दो जून की रोटी का जुगाड़ करते हैं और स्वयं अपना जीवन यापन करते हैं। यदि उन्हें बरगलाया गया है, तो भी सरकार को इसकी जांच कराने की जरूरत है। यदि सरकार उन्हें किसान समझती ही नहीं है और बिचैलिया मान रही है तो फिर निश्चित रूप से उन्हें कड़वी दावा पिलाई जानी चाहिए। लेकिन, फिर वही प्रश्न उठता है कि जब यह न्यूनतम समर्थन मूल्य कृषि कानून बनाया जा रहा था, तो क्या उस समय जो विशेषज्ञ थे, उन्होंने सच में जमीनी हकीकत को देखा और परखा था?

तो फिर यह बात उन नेताओं को क्यों नहीं बताया जा रहा है कि किसी गलत नियत से अथवा पुजीपतियों को बढ़ावा देने के लिए यह कानून नहीं बनाया गया है। उन्हें समझने की समझाने की बात है, क्योंकि निश्चित रूप से सरकार में ऐसे लोग बैठे हैं जो दिन रात देश के विकास सहित किसानों के विकास का सपना देखते हैं। वह अपना तर्क दें, बैठक करे फिर मामला क्यों नहीं शांत होगा?

किसान जो अपना घर द्वार छोड़कर दिल्ली को घेरकर बैठे हैं उन्हें फिर अपना काम भी करना है। लक्ष्य सरकार का यह होना चाहिए कि किसान अपने अपने घर खुशी खुशी वापस जाए। अब तक सरकार की किसान नेताओं से पांच दौर की बेनतीजा बातचीत हो चुकी है। ऐसा क्यों हो रहा है कि इतनी बैठक के बावजूद समस्या का समाधान नहीं निकल रहा है।

अब फिर यह प्रश्न उठता है कि जब बातचीत का दौर चल ही रहा था कि तभी किसान नेताओं ने आंदोलन को और तेज करने का ऐलान कर दिया । यह बात समझ में नहीं आई की अभी बातचीत का अंतिम दौर खत्म भी नहीं हुआ था कि उन्होंने रेल ट्रैक रोकने की , दिल्ली को हर ओर से घेरकर टोल प्लाजा को फ्री करने का ऐलान कर दिया। इतनी जल्दी इतनी बड़ी घोषणा किसी के भी हित नहीं है। अब दो प्रश्न फिर उठते हैं कि सरकार आखिर क्या कर ?े और तो और, वहीं दूसरा प्रश्न यह उठता है कि किसान भी क्या करे ? दुखद स्थिति यह है कि दोनों पक्षों के कदम इतने आगे बढ़ चुके हैं कि कोई भी पीछे हटने को तैयार नहीं है। इसलिए सबाल उठा है कि इस समस्या का समाधान आखिर किस तरह हो। कृषि मंत्री कहते हैं कि किसानों को बातचीत के रास्ते पर आना चाहिए और बातचीत से ही समस्या और अविश्वास का संकट दूर होगा।

दूसरी ओर, किसान नेताओं का कहना है कि आजादी के बाद से किसी भी सरकार ने उनकी समस्या का समाधान नहीं किया और केवल वोट बैंक समझ कर उनका इस्तेमाल करते रहे । इसलिए जो नया कानून बनाया गया है वह उन्हें बिना विश्वास में लिए बनाया गया है इसलिए उसे रद्द किया जाए । इन दोनों के आपसी टकराव में आम लोगों के मन में डर बैठ गया है कि अब क्या होगा । यदि दिल्ली को किसानों ने घेर लिया तो उसका हश्र आम लोगों को ही झेलना पड़ेगा । अब देखना यह है कि किस सूझ बूझ से देश के धुरंधर नेतागण इस विकट स्थिति का समाधान ढूंढ निकलते हैं ।

अब तक किसानों की समस्या नहीं सुलझने का एक कारण यह भी है कि शायद हो सकता है। कुछ ऐसे अराजक तत्व कहीं अदृश्य रूप से घुस आया है जो नहीं चाहता है कि माहौल शांत हो और हालात सुधरे। अफवाह तो यहां तक फैलाई गई की इस आंदोलन की अगवाई कुछ आतंकी गुट और खालिस्तानी हवा दे रहे हैं, लेकिन अफवाह अफवाह ही है उसका कोई सिर-पैर नहीं होता , निश्चित रूप से यह अफवाह फैलाने वाला वहीं अराजक तत्व होगा जो नहीं चाहता कि दोनों पक्ष एक टेबल पर बैठकर समस्या का समाधान ढूंढ सके।

कृषि मंत्री का यह कहना ठीक है कि कोई भी कानून खराब नहीं होता , कुछ उसके प्रावधानों में कमी हो सकती है , कुछ बिंदुओं में कमी हो सकती है जिसका समाधान मिल बैठकर किया जा सकता है इसी बात को नजर में रखते हुए ड्राफ्ट बनाकर उनके पास भेजा गया था , लेकिन किसान नेताओं ने उस ड्राफ्ट को रद्द कर दिया । उनका यह भी कहना है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम एस पी) से उन तीनो कानून से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिए एम एस पी पहले की तरह जारी रहेगा । इतनी स्पष्टता के बावजूद पता नहीं दोनो पक्षो के बीच क्या संशय बना हुआ है, यह बात समझ में नहीं आती।

अब देखना यह होगा किसानों द्वारा घोषित रेल, सड़क बंद होने की तारीख से पहले इसका समाधान हो पाता है या यह आंदोलन लंबा चलेगा । दोनों पक्षों को इस पर गहनता से विचार करके इस समस्या का समाधान शीघ्र खोजना पड़ेगा । यदि समाधान नहीं निकाला गया, तो किसानों जो अब तक अहिंसक थे यदि वह उग्र हो गए तो इसका खामियाजा आम जनता को ही झेलना पड़ेगा , जो दुर्भाग्यपूर्ण होगा । हमारी राय तो यही है कि दो एक कदम आगे पीछे हटकर इसका निराकरण करना ही सर्वोत्तम होगा । वैसे सरकार में बैठे उच्च पदस्थ अधिकारी और सलाहकार भी यही चाहते होगें और सरकार तो यह चाहती ही है ,पर गेंद तो अभी किसानों के ही पक्ष में है इसलिए समझौते का पक्ष तो उन्हें ही रखना है ।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक है) ।

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