सरकार की गजब पालिसी: अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ियों को नौकरी और राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी देश पर बोझ

राजेंद्र सजवान

‘पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे होगे खराब”, इस कहावत को झुठलाने वाले अब एक बार फिर से सोचने लगे हैं। आज के भारत पर सरसरी नज़र डालें तो देश में करोड़ों पढ़े लिखे बेरोजगार धक्के खा रहे हैं और खेल में रिकार्ड तोड़ प्रदर्शन करने वालों को भी रोज़गार नसीब नहीं है। ऐसा सिर्फ़ महामारी के कारण नहीं हुआ है बल्कि पिछले बीस सालों में बेरोज़गारी इस कदर तेज़ी से बढ़ी है कि पढ़ाई लिखाई के साथ साथ खेल के प्रति भी नकारात्मक सोच साफ नज़र आती है।

इसमें दो राय नहीं कि पढ़ाई कभी बेकार नहीं जाती, ऐसा अक्सर कहा जाता है।  एक ना एक दिन योग्यता और हुनर अपना रंग ज़रूर दिखाते हैं लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं कि अच्छे खिलाड़ी हमेशा कामयाब रहते हों।  यदि ऐसा होता तो करोड़ों राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ियों को दाने दाने के लए मोहताज नहीं होना पड़ता। देश के लाखों खिलाड़ी उस दिन से सकते में है जिस दिन सरकार के खेल मंत्रालय द्वारा 63 खेलों से जुड़े खिलाड़ियों को ग्रुप सी में नौकरियाँ देने के लिए डीओपीटी से सिफारिश की गई और मंज़ूरी भी मिल गई है। लेकिन आम खिलाड़ी के लिए ज़्यादा खुश होने की बात नहीं है क्योंकि नौकरियाँ सिर्फ़ उन खिलाड़ियों के लिए होंगी जोकि एशियाड, ओलंपिक और अन्य बड़ी स्पर्धाओं में अच्छा प्रदर्शन करेंगे। अर्थात राष्ट्रीय स्तर पर अपने   स्कूल,  विश्वविद्यालय और राज्य का  प्रतिनिधित्व करने वाले हजारों लाखों खिलाड़ियों को आगे भी नौकरी नहीं मिलने वाली।

खेल मंत्रालय ने अपने प्रस्ताव में उल्लेख किया है कि खेलों की संख्या को 43 से 63 करने का बड़ा कारण यह है कि अधिकाधिक खेलों को सरकारी नौकरी के साथ जोड़ा जाए।  लेकिन शायद मंत्रालय ने यह नहीं सोचा कि पहले से मान्य खेलों से जुड़े कितने खिलाड़ियों को नौकरी दी गई। खैर, खेलों को बढ़ावा देने का नारा बुलंद करने वाली सरकार ने बेरोज़गार खिलाड़ियों के बारे में सोचा, यही क्या कम है! वरना पिछले कई सालों से सरकारी नौकरियों पर जैसे प्रतिबंधा लगा था।  कुछ एक मंत्रालयों में चार-छह साल में एक दो खिलाड़ी ज़रूर  भर्ती किए जाते रहे हैं।

देखा जाए तो भारतीय खेलों और खिलाड़ियों के  लिए 1975 से अगले 25 सालों का दौर  सुखद  रहा। तब विभिन्न सरकारी, गैर सरकारी विभागों, बैंकों, बीमा कंपनियों, पुलिस, सेना और अर्धसैनिक बलों में हज़ारों खिलाड़ियों को भर्ती  किया गया।  तब ऐसे  खिलाड़ी भी नौकरी पा गए, जोकि सिर्फ़ राष्ट्रीय स्तर पर खेले थे।

बेशक, हर देश अपने शीर्ष और सफलतम खिलाड़ियों को विशेष दर्जा देता है। भारत में  भी अंतरराष्ट्रीय पदक जीतने वाले खिलाड़ी बड़ी पुरस्कार राशि पा रहे हैं, उन्हें बड़े खेल अवार्ड मिल रहे हैं और उच्च पदों पर भर्ती की जा रही है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि वे भी कभी राष्ट्रीय स्तर पर खेले। उनके मां बाप ने लाखों खर्च कर उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया। हो सकता है कि भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया हो और पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते आगे खेल जारी न रख पाए हों। यह भी हो सकता है कि  ऊंची पहुंच नहीं होने की कीमत चुकानी पड़ी हो।

सरकारें और योजनाकार यह क्यों भूल जाते हैं कि एक एक सीढी चढ़ कर ही कोई खिलाड़ी शिखर तक पहुंचता है। तो फिर राष्ट्रीय खेल अवार्डों और खेलों की संख्या बढ़ाने वाली सरकार यह कैसे भूल  गई कि राष्ट्रीय स्तर पर खेलने वालों के भी पेट और परिवार हैं। उन्होंने भी देश के लिए खेलने का सपना देखा था, जोकि किसी कारणवश पूरा नहीं हो पाया। खैर, अब देखना यह होगा कि किन खिलाड़ियों को सरकारी नौकरी मिल पाएगी।  उम्मीद है कि सर्वथा योग्य खिलाड़ियों को उनका हक मिलेगा! लेकिन ऐसा भला  कभी हुआ है? वरना बीस खेल क्यों बढ़ाए गए हैं, यह तो वक्त ही बताएगा।

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं. इनके लिखे लेख आप www.sajwansports.com पर भी पढ़ सकते हैं.)

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