सुप्रीम कोर्ट के प्रस्ताव को सरकार मानेगी, तो किसान क्या करेंगे ?
निशिकांत ठाकुर
सभी नकारात्मकता के भाव से जनमानस को दूषित करने वाले विचारों को शांत करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने किसानों के आंदोलन को एक तरह से जायज ठहराकर तथाकथित तीन नए कृषि कानून पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाकर कमेटी का गठन करने की बात कह दी। इसे देश हित के लिए बहुत बड़ा कार्य माना जा रहा है। वैसे भी भारतीय न्यायिक व्यवस्था पर भारत के प्रत्येक व्यक्तियों का अटूट विश्वास है। हर जगह से पराजित होने के बाद सामान्य व्यक्ति का उसी पर भरोसा अब तक कायम रहा है । गलती सभी से जीवन में होती है, लेकिन उसे स्वीकार करके सुधार लेना व्यक्ति को महान बनाता है। उदाहरण स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ही हैं। उनसे भी कई बार भूल हुई, जिसे उन्होंने स्वीकार किया। सार्वजनिक रूप से उसकी व्याख्या भी की। उनका कहना यह भी था कि मैं अपने सार्वजनिक जीवन में पारदर्शी हूं और मुझमें जो भी कमी है, उसे सार्वजनिक करने मैं मुझे कोई आपत्ति नहीं है । इसलिए आज भी वह महान है और शायद आगे भी कोई उनकी जगह देश में ले सकेगा, इसमें संदेह ही नहीं, विश्वास है। वैसे किसान आंदोलन खत्म होने के कोई आसार अभी नहीं दिख रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद जिस प्रकार से किसान नेताओं ने अपने तेवर तल्ख किए और कमिटी के सदस्यों को लेकर ही सवाल उठा रहे हैं, वैसे में, कोई समाधान नहीं दिख रहा है।
आप सभी से एक बात साझा करना चाहता हूं। मैंने पत्रकारिता में चार दशक से अधिक का समय व्यतीत कर लिया है। गांव से लेकर देश की राजधानी को करीब से देखा और समझा है। उसके आधार पर कह रहा हूं कि किसी भी समारोह में जाकर वहां जो कुछ होता है , उसका ब्योरा देना ही रिपोर्टिंग नहीं होता है। सामने दिखने वाले की अपेक्षा उसके पीछे सत्य को खोज निकालकर दिखाना ही सच्ची रिपोर्टिंग है। अनुभव , आलोचना – शक्ति , कल्पना – शक्ति, खोज और गुप्तचर के साथ खतरो से भरा मार्ग अपनाकर पता न लगाया जाए, तो भला कैसी पत्रकारिता ! आज के दौर में ट्विटर पर ही लोग खबर बनाकर अपनी पीठ खुद थपथपाना चाहते हैं। कोई खबर छापनी है और यदि छपनी है तो कितनी ? कोर्ट – सरकार के भय से बचकर , मालिकों को किसी तरह की मुश्किल न हो , किसे कितनी प्राथमिकता देनी चाहिए यह सब ध्यान में रखकर काम करने से ही संपादक का महत्व है। यह मेरा निज का अनुभव है।
अब प्रश्न यह उठता है कि इसका उल्लेख यहां किसलिए ? वह इसलिए कि आज देश के सभी बुद्धिजीवी जानते हैं कि किस प्रकार की रिपोर्टिंग की जा रही है । अब देखता हूं कि देश के बहुत कम पत्रकार इन मानदंडों पर चलकर पत्रकारिता करते हैं । उदाहरण आप पाठकों सहित उन पत्रकारों के समक्ष है जो किसान लगभग 45 दिनों से दिल्ली को घेरकर खुले आसमान के नीचे ठिठुरती ठंड और बरसात में तीन तथाकथित काले कृषि बिल को निरस्त कराने के लिए जीवन मृत्यु से संघर्ष कर रहे हैं उसकी रिपोर्टिंग कैसी हो रही है ? किसान के क्रुद्ध होने का एक कारण मीडिया भी तो है जो कभी शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन कर रहे थे, पर कभी उन्हें मीडिया या तथाकथित सोशल मीडिया द्वारा आतंकवादी , कभी चीनी – पाकिस्तानी सहायता प्राप्त आंदोलनकारी कहा गया । उनका अपमान सड़क खोदकर, उन पर पानी की बौछरें डालकर कभी पुलिसिया जोर आजमाकर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे किसानों पर बलात बल प्रयोग करके उकसाने का प्रयास किया।
आज तक की जो जानकारी है, उसके अनुसार 27 किसानों की मृत्यु हो चुकी है जिनमे तीन संतों ने किसानों की समस्याओं से आजीज आकर आत्महत्या कर चुके हैं । उन्होंने अपने आत्मह्त्या से पहले जो पत्र लिखा वह किसी का दिल दहलाने के लिए काफी है । क्या इसकी सच्ची रिपोर्टिंग हुई , उसके पीछे छिपे किसानों के दर्द को महसूस किया गया ? क्या जिनके कारण इतनी बड़ी समस्या जन समूह की हो गई है उस पक्ष को खंगाला गया , सरकार से प्रश्न पूछे गए ? गांधी जी को भी जन जागरण के लिए और सरकार को सही सूचना देने के लिए साउथ अफ्रीका में भी अखबार निकालना पड़ा था और भारत आकर भी अग्रेजों की गुलामी से देश को मुक्त कराने के लिए अखबार का भी सहारा लिया था। यदि उस काल का मीडिया भी वैसा ही करता जो आज की मीडिया द्वारा किया जा रहा है तो क्या हम अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हो पाते ? तब भी क्या हम ऐसा कहते की जो हो रहा है वह ठीक है । गुलाम होना हमारे भाग्य में है इसलिए हमे यही जीवन अच्छा लगता है – हमें गुलाम ही रहने दे ।
यह ठीक है कि सदैव एक ही लीक पर चला जाय, तो उस रास्ते पर गड्ढे पड़ जाते है । इसलिए उसे बदलना तो पड़ता ही है। इसलिए कहते हैं – परिवर्तन विकास की निशानी है । अब उदाहरण अपने देश का ही लेकर हम चलें तो आजादी से पहले अंग्रेजों ने और उससे पहले मुगलों ने जो नरसंहार किया हमें लूटा उस काल में हम कहां पहुंच गए । मुगल शासक तो जब आए थे, उनका उद्देश्य ही लूट पाट करना ही था , लेकिन वह भारत के उस अकूत संपदा को लूटकर पूरी तरह नहीं ले जा सके । क्योंकि जहां से जिस देश से वे लूट के इरादे से आए थे वहां वापस लौटना उनके लिए संभव नहीं हो सकता था । कितने हाथी, घोड़े, खच्चर , ऊंट पर लादकर हीरे जवाहरात ले जा सकते थे, अतः उन्हें यहां का होकर ही रहना पड़ा। सैकड़ों वर्षों तक तानाशाही शासन करने के बाद भी इसी भारत भूमि में रहना स्वीकार कर लिया और तथाकथित भारतीय होकर रह गए। लेकिन, अंग्रेजो ने तो हमे गुलाम भी बनाया , हमारे ऊपर अत्याचार भी किया और जी भर कर अकूत संपदा लूटकर, निचोड़कर चले गए।
हमने हजारों नहीं लाखों कुर्बानियों को देकर उन्हें मजबूर कर दिया कि वह भारत को आजाद करे। सुभाष चन्द्र बोस वाली आजाद हिन्द फौज और बापू की अहिंसावादी टीम ने अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर किया । तो क्या उस काल में भी हमारा मीडिया इसी तरह ठकुरसुहाती बात करतीं थीं कि हमें गुलामी ही अच्छी लगती है । कभी ऐसा नहीं हुआ कि सभी मीडिया घरानों ने पत्रकारों ने विदेशी आक्रांताओं का डटकर विरोध न किया हो और उसी का परिणाम है कि आज हमारा देश स्वतंत्र हैं और हम भारतीय संवैधानिक दायरे में जीने के लिए आजाद हैं । क्या गणेश शंकर विद्यार्थी यदि घुटने टेक देते तो उनकी शहादत होती ? वह एक श्रेष्ठ कोटि के पत्रकार थे । क्या कोई बता सकता है कि आज फिर देश का कोई भी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी बनने के लिए तैयार है ?
आज तक सरकार और किसानों के बीच आठ बार मीटिंग हो चुकी है, लेकिन वही ढाक के तीन पात । अब अगली बैठक 15 जनवरी को होगी । वैसे विश्वास बहुत बड़ी बात होती , लेकिन इस बात को यदि सकारात्मक सोच से देखे तो हो सकता है सरकार के प्रतिनिधि कोई रास्ता निकाल ले और समस्या का समाधान हो जाए और एक लंबे अरसे से जिद पर डटे दोनों पक्ष खुशी खुशी अपने परिवार के पास सही सलामत पहुंच जाए। लेकिन हां मुख्य धारा से जुड़े सभी सूचना माध्यम को एक होकर दोनों पक्षों को एक जुट करके देश की अशांत स्थिति को शांत करना पड़ेगा । अन्यथा सरकार द्वारा जन हित के लिए बनाई गई सारी योजना धरी की धरी रह जाएगी ।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक है)।