खेल मंत्री हो तो विजय गोयल जैसा

राजेंद्र सजवान

देश का खेल मंत्री कैसा हो? इस सवाल का सीधा सा जवाब यही हो सकता है की वह खेलों का जानकार या खिलाड़ी भले ही ना हो लेकिन यह जानता हो कि भारतीय खेलों को किस तरह से पटरी पर लाना है और कैसे देश के खिलाड़ी तरक्की प्रगति कर सकते हैं। बेशक, मंत्री जी के पास विद्वानों की एक अच्छी ख़ासी टीम होती है जोकि खेलों और खिलाड़ियों का लगातार अध्यन करती हैं और उन्हें यह बताने का प्रयास करते हैं कि खिलाड़ियों को किस प्रकार बेहतर प्रदर्शन के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।

इसे भारतीय खेलों का दुर्भाग्य कहा जाएगा कि खेल मंत्रालय और खेल मंत्री को कभी भी किसी भी सरकार नेज्यदा महत्व नहीं दिया। यह बात अलग है कि मारग्रेट अल्वा, उमा भारती, अजय माकन और विजय गोयल ने अपने मंत्रालय को बखूबी समझा और खेलों एवम् खिलाड़ियों को उनका कार्यकाल खूब भाया।तारीफ़ की बात यह है कि इनमें से कोई भी किसी खेल का चैम्पियन नहीं रहा।  देश के कुछ खिलाड़ियों, कोचों, गुरु ख़लीफाओं, खेल जानकारों और खेल समीक्षकों के एक सर्वे से पता चला है कि पिछले कुछ सालों में जिस खेल मंत्री को सबसे ज़्यादा पसंद किया गया वह निश्चित रूप से विजय गोयल हैं, जिन्होने स्कूल कालेज स्तर पर खोखो और कबड्डी खेली है।

आम तौर पर यह कहा जाता है कि ज़रूरी नहीं कि एक अच्छा खिलाड़ी अच्छा कोच या खेल प्रशासक भी साबित हो। ठीक इसी प्रकार यह भी ज़रूरी नहीं कि कोई ओलंपिक पदक विजेता या विश्व विजेता खिलाड़ी खेल मंत्री का दायत्व भी उसी खूबी के साथ निभा सके। कुछ बड़े खिलाड़ियों, जिनमे ओलंपिक पदक विजेता भी शामिल हैं का मानना है कि राज्य वर्धन राठौर से जो अपेक्षा की गई थी उसके आस पास भी नज़र नहीं आए। ख़ासकर, साथी खिलाड़ियों ने तो यहाँ तक कहा कि मंत्री बनते ही उनके तेवर भी बदल गये थे। भले ही कुछ बड़े नाम वाले खिलडी आज अपना बयान बदल दें लेकिन तत्कालीन खेल मंत्री महोदय ने उन्हें मिलने तक का समय नहीं दिया था।

हाल के वर्षों में जिन खेल मंत्रियों के दरवाजे हर खिलाड़ी और प्रताड़ित के लिए खुले रहे, उनमें उमा भारती, अजय माकन और विजय गोयल का उल्लेख बार बार आता है। कारण, ये सभी नेता मजबूत बुनियाद लिए थे और आम आदमी की तरह खिलाड़ियों की परेशानियों को भी समझते थे। इनकी लोकप्रियता का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि खबरों में बने रहने के मामले में सभी पीएचडी थे। ख़ासकर विजय गोयल जानते थे कि बिना मीडिया को साथ लिए उनका मंत्रालय अन्य भारी भरकम मंत्रियों के वजन तले दब कर रह जाएगा।

एक वक्त वह भी आया जब प्रधानमंत्री के बाद गोयल सबसे ज़्यादा खबरों में रहे। कोई भी छोटा बड़ा खिलाड़ी विदेश से पदक जीत कर लाता तो वह अपने घर पर बुला कर स्वागत करते और फोटो खिंचवाते। सैकड़ों, हज़ारों खिलाड़ियों पर वह अपनी छाप छोड़ चुके थे। उनसे मिलना इतना आसान हो गया था कि कोई भी खिलाड़ी बिना पूर्व अनुमति के उनके घर पहुँच जाता और खुशी खुशी वापस लौटता। ख़ासकर, अपने मतदाताओं तक पकड़ बनाने का उनका दाँव ख़ासा लोकप्रिय हुआ। झोपड़ पट्टी और ग़रीब- गंदी बस्तियों में दौड़ करवाना और बच्चों  को टी शर्ट, फुटबाल, नाश्ता बाँटकर उन्होने खूब वाह वाह लूटी। अपने इस अभियान में उन्होने उन पत्रकारों को भी साथ लिया जिन्हें बाद में ओलंपिक पदक विजेता खेल मंत्री ने दरकिनार कर दिया।

इसमें दो राय नहीं कि हर मंत्री अपने क्षेत्र और पूर्व परिचित पत्रकारों पर ज़्यादा भरोसा करता है। लेकिन विजय गोयल ने सिर्फ़ हिन्दी भाषी पत्रकारों को वरीयता नहीं दी। अन्य भी उनके कामों को सराहते रहे। राष्ट्रीय खेल अवॉर्ड कमेटियों के गठन को उन्होने गंभीरता से लिया और जिस किसी पर उंगली उठी उसे आड़े हाथों लेने में भी नही हिचकिचाए। लेकिन कुछ प्रदेश विशेष के नेताओं ने खेल मंत्रालय संभालते ही अपने अपनों को रेबड़ी बाँटी, ओलंपिक में पदक जीतने के झूठे दावे किए और सच्चाई सामने आई तो भाग खड़े हुए।

आज भी आम खिलाड़ी, खेल संघ, अधिकारी और तमाम लोग खेल मंत्रालय से खुश नहीं हैं। जो मजबूत ढाँचा और विश्वास गोयल ने खड़ा किया वह चरमराने लगा है। खेल संघों की मान्यता समाप्त होने के बाद से खेल मंत्रालय पर उंगलियाँ उठनी शुरू हो गई हैं। बेशक, खेल जानकार और विशेषज्ञ मान रहे हैं कि कोरोना काल के साथ साथ भारतीय खेलों का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दौर भी चल रहा है, क्योंकि खेल मंत्रालय की फ़ज़ीहत हो रही है। खेल संघों पर गिरी गाज बेहद गंभीर विषय है, जिसकी चौतरफा निंदा हो रही है। खेल मंत्री के लिए भी खतरे की घंटी बज चुकी है।

(लेखक वरिष्ठ खेल पत्रकार और विश्लेषक हैं। ये उनका निजी विचार हैचिरौरी न्यूज का इससे सहमत होना आवश्यक नहीं है।आप राजेंद्र सजवान जी के लेखों को  www.sajwansports.com पर  पढ़ सकते हैं।)

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