हिमालय की सबसे ऊंची चोटी पर पहला कदम रखने के सपने ने, बौद्ध मठ से भागने पर मजबूर किया

शिवानी रज़वारिया

कहानियां तो आपने सुनी होंगी, लेकिन कुछ कहानियां ऐसी होती हैं जो इतिहास के पन्नों में अमर हो जाती हैं। ऐसी ही एक कहानी जिसने बर्फिली चादर को ओढ़कर पहाड़ के सीने को चीरते हुए अपना सपना पूरा किया और पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल कायम की।  माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई 29029 फीट या 8848 मीटर है। इस चोटी की खोज सबसे पहले ब्रिटिश ने की थी। इस्वी 1830 से 1847 के बीच में माउंट एवरेस्ट का सर्वेक्षण जॉर्ज एवरेस्ट ने किया था उन्हीं के नाम पर चोटी का नाम एवरेस्ट रखा गया।

1845 से 1920 के बीच यूरोप के कई पर्वतारोहियों ने माउंट एवरेस्ट फतह करने की कोशिश की लेकिन बर्फीले तूफानों के बीच सफल नहीं हो सके। इसीलिए दुनिया भर के पर्वतारोहियों के लिए माउंट एवरेस्ट एक चुनौती बन गया। कुछ लोग किसी भी कीमत पर माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहुंच कर अपना नाम इतिहास में अमर करवाना चाहते थे। इसी दौर में तेनजिंग नोर्गे अंग्रेजों के अभियान में रोजी-रोटी के लिए शामिल हुए थे लेकिन अपनी काबिलियत के बल पर विदेशी पर्वतारोहियों की जरूरत बन गए। पहाड़ों पर चढ़ने का  जुनून उनके खून में शामिल था। उनके पिता यात्से नोर्गे समान को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने का काम किया करते थे। छोटी सी उम्र में ही तेजिंग को पहाड़ चढ़ने का शौक था इसलिए वह काठमांडू में हिमालय पर्वत को घंटों तक देखा करते थे।

जब उन्हें पुरोहित बनने के लिए बौद्ध मठ भेजा गया तो वह वहां से भाग गए क्योंकि वह जानते थे कि वह इस काम के लिए नहीं बने हैं। 19 साल की उम्र में दार्जिलिंग की शेरपा समुदाय इलाके में जाकर रहने लगे। शेरपाओं की रोजी-रोटी पहाड़ों पर निर्भर करती थी। शेरपा लोग पहाड़ चढ़ने में माहिर होते थे और यही उनकी रोजी रोटी का साधन भी था। शेरपाओं के बिना विदेशी पर्वतारोही हिमालय पर एक कदम भी नहीं रख सकते थे।

नॉर्वे को 1935 में एक ब्रिटिश अभियान के लीडर एरिकसन स्विफ्ट के यहां पहली बार काम करने का मौका मिला जो एक पर्वतारोही थे। नार्वे  का काम समान को बेस कैंप तक पहुंचाने का था। इस तरह तेनजिंग 1930 के दशक में तीन बार पर्वतारोहण करने वाले ब्रिटिश अफसरों के लिए बोझा ढोने का काम करते रहे। 1936 में तेनजिंग ने जॉन मोरिस के साथ भी काम किया जो आल्प्स की सबसे ऊंची चोटी पर चढ़ाई कर चुके थे। 1947 में भी तेनजिंग एवरेस्ट अभियान में शामिल हुए। यह दल चोटी के काफी करीब पहुंच गया था लेकिन 22000 फीट की ऊंचाई पर एक भयंकर तूफान के कारण उन्हें वापस आना पड़ा। इस मिशन के फेल होने के 2 महीने के अंदर ही उन्हें एक अभियान के नेतृत्व के लिए चुना गया। 22769 फीट शिखर तक पहुंच गए थे लेकिन मौसम खराब होने के कारण इस बार भी किस्मत ने साथ नहीं दिया और उन्हें वापस लौटना पड़ा इस तरह के अभियानों में उनको मौका मिल रहा था।

1953 में तेनजिंग ने जॉन हंट के एवरेस्ट अभियान में हिस्सा लिया जो 7 एवरेस्ट अभियानों का नेतृत्व कर चुके थे। उनकी मुलाकात एडमंड हिलेरी से हुई। एडमंड हिलेरी भी एक माहिर पर्वतारोही थे और उनकी चर्चा काफी हो रही थी। एवरेस्ट अभियान के लिए जॉन के नेतृत्व में तेनजिंग, हिलेरी और अन्य सदस्यों को रवाना किया गया। इस अभियान की शुरुआत में ही एडमंड हिलेरी एक बर्फ की बड़ी दरार में फस गए थे। उस समय उनकी कमर की रस्सी तेनजिंग से बंधी हुई थी। तेनजिंग ने अपनी बहादुरी दिखाते हुए कुल्हाड़ी को बर्फ में गाड़ कर हिलेरी को धीरे-धीरे बाहर निकाला। हिलेरी के इस इंसीडेंट को बताते समय उनकी आंखों में आंसू छलक गए। तेनजिंग उन्हें नहीं बचाते तो शायद वह बर्फ की चादर में जम जाते।

इस अभियान में 400 लोग शामिल थे जिसमें कुल 362 लोगों को सिर्फ बोझा ढोने के लिए साथ में लिया गया था। उनको लगभग 45 किलो सामान ऊपर तक  पहुंचाना था ताकि जगह-जगह पर टेंट व खाने-पीने के समान को पहुंचाया जा सके। इस अभियान की सबसे बड़ी सच्चाई यह है कि यदि शेरपा नहीं होते तो एवरेस्ट को फतह करना नामुमकिन था। इसीलिए शेरपाओं को “अनसोंग हीरोज ऑफ एवरेस्ट” कहा जाता है। मार्च 1953 को अभियान दल बेस कैंप पहुंच गया और धीरे-धीरे 7890 फीट की ऊंचाई पर उन्होंने अपना कैंप लगा दिया। 26 मई को टॉम इलेवन और चार्ल्स इवान को जाने के लिए चुना गया। वह दोनों बहुत अनुभवी थे लेकिन भयंकर बर्फिली हवाओं और कोहरे के कारण किसी का भी टिकना मुश्किल था। उनकी बहादुरी ने और हौसले ने उन्हें आगे बढ़ाया लेकिन टॉम का ऑकसीजन खत्म हो जाने के कारण और इवान का ऑक्सीजन सिस्टम काम ना करने के कारण उन्हें मजबूरन वापस लौटना पड़ा। इसके बाद जॉन ने तेनजिंग और हिलेरी को एवरेस्ट की चढ़ाई के लिए भेजा ।

जॉन चाहते तो वह खुद भी पहले पर्वतारोही बन सकते थे लेकिन वह चाहते थे उनसे पहले दूसरों को यह मौका मिले। बर्फीली हवाओं के बीच तेनजिंग और हिलेरी दोनो 2 दिन के अंदर साउथ पोल तक पहुंच गए थे। 28 मई को 8500 मीटर की ऊंचाई पर उन्होंने अपना टेंट लगाया। इतनी ठंड थी कि  उनके पीने का पानी जमकर पत्थर हो चुका था। इतनी थकान के बावजूद दोनों पूरी रात सो नहीं पाए। अगले दिन जब उठे तो एडमिन के पैर बर्फ में जम चुके थे और उन्हें ऐसा लगा कि वह अब आगे नहीं बढ़ पाएंगे। और इसी बर्फ की चादर में दफन हो जाएंगे। लेकिन तेनजिंग ने उन्हें हिम्मत दी और कहा कि हम अपनी मंज़िल के  बहुत क़रीब में पहुंच गए हैं हम अब हार नहीं मान सकते। तेनजिंग के हौसले से हिलेरी में गजब का जोश आ गया। अब दोनों 14 किलो सामान के साथ आगे बढ़ने लगे। लगभग 200 मीटर चलने पर उन्हें एक बड़ी चट्टान का सामना करना पड़ा। इसका सामना करने के लिए एडमंड हिलेरी ने अपना दिमाग लगाया कि अगर वह इस चट्टान से होकर नहीं जाते तो उन्हें दूसरे रास्ते से जाना पड़ेगा जोकि बहुत लंबा हो जाएगा। एडमंड हिलेरी ने चट्टान की दरार से होते हुए रास्ता बनाया जिस पर चढ़कर उन्होंने अपना अंतिम रास्ता तय किया जिसे “हिलेरी स्टेप” कहा जाता है। वहां से जाना आसान हो गया और आखिरकार दोनों 29 मई 1953 को 11:30 बजे विश्व की सबसे ऊंची चोटी पर पहुंच गए। वहां पहुंचकर उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वहां पहुंचकर तेनजिंग ने कुल्हाड़ी के साथ वह यादगार फोटो लिया जिसे हमेशा याद किया जाता है। वह दोनों 15 मिनट तक वहां रुके रहे।

तेन्जिंग नॉरगे एक नेपाली पर्वतारोही थे जिन्होंने एवरेस्ट और केदारनाथ के प्रथम मानव चढ़ाई के लिए जाना जाता है। न्यूजीलैंड के एडमंड हिलेरी के साथ वे पहले व्यक्ति हैं जिसने माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहला मानव कदम रखा। इसके पहले पर्वतारोहण के सिलसिले में वो चित्राल और नेपाल में रहे थे।

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